Bihar Elections: समस्तीपुर में 24 अक्टूबर को आयोजित रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने दुनिया भर में सबसे कम लागत पर गांव-गांव इंटरनेट पहुंचाया है। इस ‘चायवाले’ ने युवाओं के लिए हर गांव से रील्स बनाना संभव कर दिया है। वह दिन दूर नहीं जब युवा हर गांवों में स्टार्टअप स्थापित करेंगे। उन्होंने कहा, ‘एक जीबी डेटा अब चाय के एक कप से भी सस्ता है।’
प्रधानमंत्री की इस टिप्पणी पर तत्काल तीखी प्रतिक्रिया हुई। कुछ ही घंटों में जन सुराज पार्टी के प्रमुख प्रशांत किशोर ने कटाक्ष करते हुए कहा, ‘बिहार के लोगों को नौकरी चाहिए। डेटा नहीं, बेटा चाहिए।’ उनका इशारा सीधे-सीधे पलायन की तरफ था। यानी सस्ता डेटा नहीं बल्कि ऐसा रोजगार चाहिए, जिससे बेटे को प्रदेश से बाहर न जाना पड़े।
पूरे बिहार में पलायन हमेशा से मुद्दा रहा है। संभवतः इसलिए, क्योंकि यह इसे शर्मनाक लगता है। राज्य सरकार ने कभी यह पता लगाने का कोई व्यवस्थित प्रयास ही नहीं किया कि कुशल या अकुशल, शिक्षित या अशिक्षित, कितने लोग हर साल काम की तलाश में बिहार से देश के दूसरे हिस्सों में जाते हैं। कभी यह भी कोशिश नहीं की गई कि किस जिले से कितना पलायन है, इसी पर कोई अध्ययन किया जाए। अंतिम विश्वसनीय आंकड़ा 2011 की जनगणना से ही मिला था, जिसमें खुलासा हुआ था कि लगभग 74 लाख लोग बिहार से भारत के अन्य स्थानों पर चले गए। यह आंकड़ा उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा है, जहां से 1.23 करोड़ लोगों ने पलायन किया। इस बात को लगभग डेढ़ दशक बीत चुका है और उसके बाद से प्रवासन की प्रकृति के बारे में कोई आधिकारिक डेटा उपलब्ध नहीं है।
मौखिक रूप से बहुत सारे उदाहरण हैं, जो पलायन की स्थिति को बयां करते हैं। एलएन विश्वविद्यालय दरभंगा में 41 वर्षों तक राजनीति विज्ञान पढ़ाने के बाद हाल ही में सेवानिवृत्त हुए प्रोफेसर एके झा कहते हैं कि वह छुट्टियों में मुंबई के गोरेगांव गए थे। वहां उन्होंने कई लोगों को मैथिली बोलते सुना। जब उन्होंने पूछताछ की तो पता चला कि क्षेत्र के अधिकांश हाउसकीपिंग कर्मचारी मधुबनी से ताल्लुक रखते हैं।
प्रो. झा कहते हैं, ‘इनमें ज्यादातर 18 से 30 साल की उम्र के युवा थे। वे मुझे अपने आवास पर ले गए। मैं बताता हूं कि वे कैसे रहते हैं। उनकी बिल्डिंग के सुपरवाइजर से बात होती है। मैंने हाउसिंग सोसाइटियों के बेसेंट में पिलर के किनारे लाइन से बिस्तर लगे देखे। ये लोग रात में वहां सोते हैं और दिन में कार धोने व सफाई करने जैसे काम करते हैं। वे आसपास के ठेलों से खाना खा लेते हैं।
इस तरह वे प्रति माह 16,000-18,000 रुपये कमा लेते हैं। इस राशि में से कुछ वे घर भेज देते हैं। मैंने उनसे कहा कि वे वही काम बिहार की कॉलोनियों में भी कर सकते हैं, यहां क्यों आए। इस पर उनका सीधा सा जवाब था- वहां इतना पैसा कहां मिलता है? दूसरे, सामाजिक दबाव भी रहता है।’ अधिकांश लोगों के लिए बिहार में नौकरी का मतलब सरकारी नौकरी होता है। कार या ऑटो रिक्शा चलाना अथवा ढाबे-होटल खोलना नौकरी या रोजगार नहीं माना जाता।
15वें वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एनके सिंह का कहना है कि 2023 में लगभग 73,000 कामगार विदेश चले गए। बिहार की लगभग 7.2 प्रतिशत आबादी अन्य राज्यों में रहती है। यहां आधे से अधिक परिवार कहीं और से अर्जित आय पर निर्भर हैं। यह एक जनसांख्यिकीय विरोधाभास है। बिहार दुनिया को श्रम बल आपूर्ति करता है, फिर भी उस मानव पूंजी का उपयोग घरेलू उत्पादकता बढ़ाने में नहीं किया जाता।
इसका एक ही जवाब है- औद्योगीकरण। लेकिन यह धीरे-धीरे हो रहा है। समस्या का एक हिस्सा बड़े भूखंडों की कमी है, लेकिन सरकार औद्योगिक संपदा और आर्थिक जोन बनाने के लिए लगातार भूमि-बैंक बना रही है। यही नहीं, उद्योगों के विकास के लिए कई रोजगार-आधारित प्रोत्साहन योजनाओं की घोषणा की गई है।
बिजनेस स्टैंडर्ड से बात करते हुए राज्य के उद्योग मंत्री नीतीश मिश्रा ने बताया कि बिहार इंडस्ट्रियल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी का लक्ष्य राज्य के सभी 38 जिलों में 15,000 एकड़ जमीन का अधिग्रहण करना है। ऐसी कंपनियां जो 1000 से अधिक व्यक्तियों को रोजगार देने का खाका पेश करती हैं, तो निवेश के लिए सरकार उन्हें 1 रुपये प्रति एकड़ पर भूमि देने को तैयार है।
लेकिन सरकार के अन्य मंत्री मानते हैं कि इस राह में कई चुनौतियां हैं। बिहार में भूमि का अधिग्रहण न केवल अन्य राज्यों की तुलना में अधिक महंगा है, बल्कि टुकड़ों में भूमि होने के कारण यह कार्य बहुत कठिन भी है।
उदाहरण के लिए सड़क मंत्री नितिन नवीन कहते हैं, ‘हरियाणा में राज्य सरकार को भूमि का अधिग्रहण करने के लिए जिन लोगों को भुगतान करना होता है, उनकी संख्या प्रति एकड़ एक या दो हो सकती है। बिहार में यह आंकड़ा 36 और कहीं-कहीं प्रति एकड़ 51 लोग भी हो सकते हैं।’
बिहार में 2014 और 2025 के बीच 1400 किमी से अधिक राष्ट्रीय राजमार्ग नेटवर्क का विस्तार हो चुका है। यहां मार्च 2014 में 4,467 किलोमीटर राष्ट्रीय राजमार्ग थे जो जून 2025 में बढ़कर 6,155 किमी हो गए, लेकिन विकास की पर्याप्त गतिविधियों के लिए इनका उपयोग बहुत कम हो पाता है।
नीतीश मिश्रा का कहना है कि अगर सत्ता में वापस आते हैं, तो राजग सरकार की प्राथमिकताएं व्यापक कौशल विकास और रोजगारपरक उद्योगों की स्थापना होगी। उनका कहना है कि इससे पलायन रुकेगा। नितिन नवीन कहते हैं, ‘बिहार से सबसे ज्यादा लोग विनिर्माण क्षेत्र में काम करने के लिए बाहर जाते हैं। एक बार जब हम सैटेलाइट सिटी बनाना शुरू कर देंगे, तो अपने बिहार में ही निर्माण कार्यों के काफी अवसर उपलब्ध होंगे। किसी को भी काम की तलाश में बाहर नहीं जाना पड़ेगा।’ सत्तारूढ़ राजग ने अगले पांच वर्षों में राज्य में 1 करोड़ नौकरियां पैदा करने का वादा अपने घोषणा पत्र में किया है। वर्तमान में विपक्ष में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और महागठबंधन के अन्य घटकों ने भी रोजगार को अपनी प्राथमिकता सूची में रखा है।
लेकिन दिल्ली के एक मध्यम स्तर के होटल में काम करने वाले पटना निवासी प्रिंस कुमार का कहना है कि उन्हें हाल-फिलहाल घर लौटने की कोई उम्मीद नजर नहीं आती। वह कहते हैं, ‘सरकार ने अत्यंत गरीबों के लिए वह सब किया है जो वह कर सकती थी। अत्यंत अमीरों को सरकार की जरूरत नहीं है। हम जैसे मध्यम वर्गीय लोग ही हैं, जो वापस नहीं जा सकते। हमारे लिए वहां कुछ है ही नहीं।’