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म्यांमार के हालात और भारत की भूमिका…

म्यांमार और भारत के बीच करीब 1,600 किलोमीटर की साझा सीमा है। यह पूर्वोत्तर के चार राज्यों मणिपुर, नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम तक विस्तारित है।

Last Updated- April 23, 2024 | 9:19 PM IST
Myanmar: Relief for Aung San Suu Kyi, military regime cuts sentence

पड़ोसी देश म्यांमार में छिड़े गृह युद्ध के हालिया रुझान यह बताते हैं कि भारत को वहां की सैन्य शासन विरोधी ताकतों के साथ अपने संपर्क को मजबूत करने की आवश्यकता है। बता रहे हैं शंकर आचार्य

म्यांमार और भारत के बीच करीब 1,600 किलोमीटर की साझा सीमा है। यह पूर्वोत्तर के चार राज्यों मणिपुर, नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम तक विस्तारित है। परंतु हमें म्यांमार के बारे में ज्यादा बातें सुनने को नहीं मिलती हैं, खासतौर पर 1 फरवरी, 2021 के बाद से जब मिन अंग हलाइंग के नेतृत्व वाली म्यांमार की सेना यानी तमरॉ ने लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई आंग सान सू ची के नेतृत्व वाली नैशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) की सरकार का तख्ता पलट दिया था। तब से वहां क्या हो रहा है? लेकिन उसके पहले हमें म्यांमार के सरकारी इतिहास पर एक नजर डालनी चाहिए।

आजादी के बाद करीब 15 वर्ष के लोकतांत्रिक शासन के बाद सेना ने देश में शासन संभाल लिया। इसकी शुरुआत 1962 में जनरल ने विन के तख्तापलट से हुई। सन 1988 में देश के शहरी क्षेत्रों में छात्र-छात्राओं के नेतृत्व में विद्रोह भड़का और संयोग से उसी समय आंग सान सू ची ब्रिटेन से अपनी बीमार मां को देखने स्वदेश पहुंची। उनके नेतृत्व में एनएलडी का जन्म हुआ। खूनी दमन जारी रहा और इस बीच 1990 में सेना के जनरलों ने चुनाव की इजाजत दी और तमाम विपरीत हालात के बीच एनएलडी ने चुनावों में स्पष्ट जीत हासिल की।

इस बीच सू ची को घर में नजरबंद कर दिया गया था। जल्दी ही चुनाव नतीजों को अवैध घोषित कर दिया गया और सू ची अगले तकरीबन 20 वर्षों तक नजरबंद बनी रहीं। समय के साथ पश्चिमी आर्थिक प्रतिबंधों और म्यांमार के दक्षिण पूर्व एशिया के अन्य देशों से पिछड़ते जाने से सेना मजबूर हो गई और 2008 में उसने नया संविधान बनाया जिसमें सरकार में सेना की भूमिका के प्रति गहरा झुकाव था। 2010 में चुनाव हुए।

सू ची को पुन: नजरबंद कर दिया गया और एनएलडी ने इन चुनावों का बहिष्कार किया। सैन्य सरकार के दल को जीत हासिल हुई और उसने 2015 तक शासन किया। इस दौरान उसने अर्थव्यवस्था को आंतरिक और बाहरी स्तर पर काफी हद तक खोलने का प्रयास किया।

2011 में सू ची को रिहा कर दिया गया। एनएलडी ने 2015 के चुनावों में हिस्सा लिया और तमाम हालात और अनुमानों को परे हटाते हुए पार्टी ने संसद के दोनों सदनों तथा अधिकांश राज्य विधानसभाओं में भारी जीत हासिल की। दुनिया में ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं है जहां 25 वर्ष बाद एक ही दल और नेता को इतनी बड़ी जीत हासिल हुई हो।

एनएलडी ने सरकार जरूर बनाई लेकिन गृह मामलों, रक्षा तथा सीमा संबंधी मामलों के अहम मंत्रालय 2008 के संविधान के मुताबिक सेना के पास रहे। प्रभावी तौर पर देखें तो सू ची और एनएलडी को जबरदस्त चुनावी जीत मिलने के बाद भी अगले पांच साल तक सेना के साझेदार के रूप में ही शासन चलाना था। यह एक अहम तथ्य है जिसकी अक्सर अनदेखी कर दी जाती है।

नवंबर 2020 के सबसे ताजा चुनावों में सू ची और एनएलडी को लगातार तीसरी बार जीत मिली। बहरहाल धैर्य गंवा चुके सैन्य नेताओं और सेवानिवृत्ति के करीब पहुंच चुके उनके कमांडिंग जनरल मिन अंग हलाइंग ने दोबारा गद्दी पर वापस आने का निर्णय लिया और फरवरी 2021 में वहां एक बार फिर तख्तापलट हुआ। चुनावों को निरस्त करते हुए एनएलडी को गैरकानूनी करार दे दिया गया। पार्टी के कई नेताओं को जेल भेज दिया गया या उनकी जान ले ली गई। सू ची को कई मनगढ़ंत आरोपों में दोषी ठहराया गया करीब 30 साल की कैद की सजा के लिए जेल में डाल दिया गया।

फरवरी 2021 के सैन्य तख्तापलट के बाद देश भर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन आरंभ हो गया खासकर शहरी इलाकों में। सेना ने इस पर बर्बर प्रतिक्रिया दी। हजारों लोग मारे गए, 20,000 से अधिक लोग जेल में बंद कर दिए गए। हवाई हमले भी किए गए और करीब 10 लाख से अधिक लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा। हजारों लोगों ने पड़ोसी देशों खासकर थाईलैंड में शरण ली। अप्रैल तक एक ढीलीढाली निर्वासित राष्ट्रीय एकता सरकार का गठन किया गया।

इसमें एनएलडी के पुराने सांसद, अन्य जातीय समूहों के प्रतिनिधि और कई अल्पसंख्यक दलों के सदस्य शामिल थे। मई में इस सरकार ने पीपुल्स डिफेंस फोर्स के गठन की घोषणा की। राष्ट्रीय एकता सरकार और पीपुल्स डिफेंस फोर्स की शुरुआत लड़खड़ाहट भरी रही लेकिन समय के साथ उसे लोकप्रियता और मजबूती दोनों हासिल हुए। उसने जातीय उपद्रवी साझेदारों को साथ लिया।

उदाहरण के लिए अराकान आर्मी, कचिन इंडिपेंडेंस आर्मी, शान स्टेट आमी और करेन नैशनल लिबरेशन आर्मी आदि। धीरे-धीरे म्यांमार गृह युद्ध में घिर गया। बीते छह से आठ महीनों में माहौल तमरॉ के खिलाफ हो गया। हालांकि सरकार की सैन्य शक्ति को कम करके नहीं आंका जा सकता है, खासकर विदेशी सैन्य आपूर्ति को देखते हुए।

गत अक्टूबर में ‘थ्री ब्रदरहुड अलायंस’ नामक क्षेत्रीय बलों के गठजोड़ ने तमरॉ के सैकड़ों लोगों की हत्या कर दी और बड़ी तादाद में लोगों को बंदी बना लिया। हालांकि चीन की मध्यस्थता से जनवरी 2024 में कुछ हद तक शांति स्थापित हुई लेकिन जातीय समूहों और पीपुल्स डेमोक्रेटिक फोर्स को देश भर में जीत मिलती रही। सैन्य शासन पर ड्रोन हमले बढ़े। तमरॉ ने इलाके खाली किए।

फरवरी के आखिर में सैन्य शासन ने युवाओं की अनिवार्य भर्ती आरंभ की जिससे बचने के लिए बड़ी तादाद में युवा म्यांमार के लोग पड़ोसी देशों की ओर भागे। इस सप्ताह के आरंभ में तमरॉ ने करेन प्रांत के अहम कारोबारी केंद्र म्यावड्‌डी पर नियंत्रण गंवा दिया। यह थाईलैंड की सीमा के निकट है।

देश के दूसरी ओर कुछ दिन पहले भारत सरकार ने हालात की गंभीरता को पहचाना और सित्तवे में अपने वाणिज्य दूतावास को खाली करा लिया। जानकार विश्लेषकों के मुताबिक भारत तथा राष्ट्रीय एकता सरकार तथा अन्य सैन्य शासन विरोधी दलों के बीच सीमित संपर्क है। ऐसा इसलिए कि लंबे समय तक यह लगता रहा कि सीमा पार के उपद्रवी तत्त्वों के प्रबंधन के लिए ऐसा करना जरूरी था।

परंतु म्यांमार में गृह युद्ध के हालिया हालात को देखते हुए सैन्य शासन विरोधी शक्तियों के साथ रिश्ते मजबूत करने की अहमियत बढ़ रही है। पूर्व विदेश सचिवों कंवल सिब्बल और श्याम सरन ने इसी पक्ष में दलील दी है। उन्होंने कहा है कि म्यांमार विवाद के दोनों पक्षों के साथ चीन की संबद्धता को देखते हुए इसका प्रतिकार करना आवश्यक है। किसे पता हो सकता है, ऐसा होना शुरू भी हो गया हो।

(लेखक इक्रियर के मानद प्राध्यापक और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)

First Published - April 23, 2024 | 9:19 PM IST

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