पश्चिमी देशों की ‘सार्वभौमिकता’ की अवधारणा साम्राज्यवाद का ही पुराना रूप है जिसे नए कलेवर में पेश किया जा रहा है जो संदिग्ध प्रतीत होता है। बता रहे हैं आर जगन्नाथन
वामपंथी-उदारवादियों को भले ही यह बात पसंद न हो लेकिन लगभग हर जगह राष्ट्रवाद का पुनरुत्थान हो रहा है। राष्ट्रवाद के पहले चरण की शुरुआत एशिया और अफ्रीका में ब्रितानी और यूरोपीय साम्राज्यों का दायरा सिमटने के साथ शुरू हुई थी।
हालांकि, जब हमने शीत युद्ध के दौर में प्रवेश किया तब अंतरराष्ट्रीयतावाद के दो वैकल्पिक विचार उभरे जिनमें से एक विचार का सिरा अमेरिका से जुड़ा था जबकि दूसरे का सोवियत संघ से।
वर्ष 1980 के दशक में रूस की पश्चिमी सीमा और पूर्वी यूरोप बंट कर राष्ट्रवादी देशों में तब्दील हो गए। उस वक्त ऐसा माना गया कि चूंकि इनमें से कुछ देशों ने यूरोपीय संघ से जुड़कर अपनी संप्रभुता उसके अधीन कर दी है, ऐसे में अंतरराष्ट्रीयतावाद के एक नए दौर का उभार होगा। हालांकि पश्चिमी यूरोप में राष्ट्रवादी ताकतों का उभार फिर से हो रहा है।
हाल के चुनावों में जर्मनी से लेकर फ्रांस, ऑस्ट्रिया, इटली और यहां तक कि उत्तरी यूरोप के देशों में भी तथाकथित धुर दक्षिणपंथी दलों का उभार देखा गया है। इस कड़ी में नीदरलैंड में गीयर्ट वाइल्डर्स की इस्लाम विरोधी पार्टी, फ्रीडम पार्टी (पीवीवी) का नाम सबसे ताजातरीन है।
इस्लाम के खिलाफ विवादास्पद टिप्पणी करने वाले वाइल्डर्स ने वाम-उदारवादियों को हैरान कर दिया और अब तो उन्हें सरकार से बाहर रखने के गंभीर प्रयास भी किए जा रहे हैं। लेकिन ऐसे राजनीतिक दलों को निंदात्मक तरीके से ‘धुर दक्षिणपंथी’, ‘नस्लवादी’ या ‘फासीवादी’ करार देने से यह हकीकत नहीं बदलने वाली है कि मूल रूप से ‘उदारवादी’ माने जाने वाले यूरोप और अमेरिका सहित कई देश अब राष्ट्रवाद की ओर बढ़ रहे हैं। ये राष्ट्रवादी दल अनिवार्य तौर पर दो बातों का पूर्ण विरोध करते हैं।
पहला, सांस्कृतिक रूप से बाधाकारी तत्त्वों को अपने देश में प्रवेश करने की अनुमति देना और पारंपरिक मूल्य प्रणालियों में फेरबदल करना।
दूसरा, यूरोपीय संघ जैसे बहुराष्ट्रीय संगठनों को अपनी सांस्कृतिक विरासत का अवमूल्यन करने और जनसांख्यिकीय आक्रामकता से जुड़ी स्पष्ट असुरक्षा को दूर करने का अधिकार देना।
ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से बाहर निकलना और डॉनल्ड ट्रंप के ‘अमेरिका फर्स्ट’ नारे में तेजी से उभार, वास्तव में एंग्लो सैक्सन संस्कृति के प्रभुत्व वाली दुनिया में राष्ट्रवाद के पुनरुत्थान के संकेत को दर्शाता है।
भारत में हमने उत्तर, पश्चिमी और यहां तक कि पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत के अधिकांश हिस्सों में ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ दल, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का उभार देखा है। हाल में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों के नतीजे भी इसी रुझान को दर्शाते हैं।
दक्षिण भारत में केरल और तमिलनाडु ही ऐसे क्षेत्र हैं जहां वामपंथी-उदारवादी संभ्रांत वर्ग को दक्षिणपंथी रुझान के उभरने को लेकर संदेह है। हालांकि, यहां भी भाजपा एक राज्य में सत्ता में रही है और हाल ही में उसने दूसरे राज्य (तेलंगाना) में अपनी वोटों की हिस्सेदारी बढ़ाई है।
भाजपा को बाहर रखने के लिए उत्तर-दक्षिण भारत के विभाजन को गहरा करने के लिए ‘कृत्रिम उदारवादी’ अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं लेकिन ऐसे आसार अब नहीं दिखते हैं कि भाजपा के लिए दक्षिण भारत हमेशा के लिए निषिद्ध क्षेत्र बना रहेगा।
यह सही है कि उग्र राष्ट्रवाद जैसे विचारों से सावधान रहना उचित है लेकिन सामान्य राष्ट्रवाद को वैध तरीके से देखना गलत क्यों माना जाता है? पश्चिमी देशों की ‘सार्वभौमिकता’ और वैश्विकता की अवधारणा ही दुनिया को संचालित करने का एकमात्र तरीका क्यों होना चाहिए? क्या ‘सार्वभौमिकता’ की मूल्य प्रणाली को कृत्रिम रूप से थोपना भी नवसाम्राज्यवाद को स्वीकार्य बनाने का एक अप्रत्यक्ष तरीका नहीं है?
प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में बड़े पैमाने पर लोगों की मौत से जीवन की हानि, हिटलर के उदय और यहूदियों के होलोकॉस्ट ने वैश्विकतावादियों के लिए राष्ट्रवाद को शांति के खतरे के प्रतीक के रूप में स्थापित करना आसान बना दिया। लेकिन क्या हिटलर को एक राष्ट्रवादी, जर्मन नस्लवादी या साम्राज्यवादी कहा जा सकता है?
परिभाषा के अनुसार, एक राष्ट्रवादी सीमाओं के भीतर अपने लोगों के लिए काम करता है, लेकिन जब इस सीमा का विस्तार एक साम्राज्य बनाने के लिए होता है तब यह साम्राज्यवादी ताकत या नव-उपनिवेशवाद की परिभाषा के दायरे में आता है, राष्ट्रवाद की नहीं।
युद्ध खत्म होने के बाद यूरोपीय संघ का गठन भविष्य के सभी युद्धों को समाप्त करने के लिए बनाया गया था। लेकिन अब यूक्रेन युद्ध के साथ यूरोप में युद्ध के दौर की वापसी हो गई है। अगर जर्मनी के साम्राज्यवाद का दायरा कम हो गया है तब ऐसे में यूरोप में अमेरिका की रक्षा गारंटी प्रभावी रूप से इसे यूरोप में एक बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में स्थापित करती है। ऐसे में निस्संदेह रूप से पूरा यूरोप अब अमेरिका के रणनीतिक हितों के अधीन है।
विचारों और विचारधारा की दुनिया में जिसे हम सार्वभौमिक मूल्य कहते हैं, वे वास्तव में सार्वभौमिक हों यह जरूरी नहीं है। यह मूलतः पश्चिमी विचारधारा का विकास है जिसे मूलभूत मूल्यों के रूप में घोषित कर, पूरी दुनिया पर थोपा जाता है।
राष्ट्रवाद के बारे में इन झूठे कथ्यों का विरोध करने वाले एक बुद्धिजीवी, इजरायल के रूढ़िवादी विचारक योरम हजोनी हैं। उनकी 2018 में आई एक पुस्तक, ‘द वर्च्यू ऑफ नैशनलिज्म’ को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उतनी ख्याति नहीं मिली जिसकी वह हकदार थी।
हजोनी कहते हैं कि वैश्विक स्तर पर ‘उदारवादी’ परियोजना वास्तव में पश्चिमी आधिपत्य का ही विस्तार है जिसे सार्वभौमिक नाम दे दिया गया है और यह सार्वभौमिकता दरअसल दूसरे नाम वाले वैचारिक साम्राज्यवाद से ज्यादा कुछ नहीं है।
हजोनी इस बात को स्पष्टता से रखते हैं कि वैश्विकता साम्राज्यवाद का सिर्फ एक नया रूप भर है और यह राष्ट्रवाद की जगह ‘देशभक्ति’ या यहां तक कि ‘नागरिक राष्ट्रवाद’ जैसे शब्दों को स्वीकार कर नई कुलीन शब्दावली के साथ समझौता करने से इनकार करता है।
इस तरह की व्यंजना या कोमल शब्दावली के प्रयोग का उद्देश्य ‘स्वतंत्र राष्ट्रों की सरकारों के हाथों से निर्णय लेने की प्रक्रिया को खत्म करना और इसे अंतरराष्ट्रीय सरकारों या निकायों के हाथों में सौंपना’ है। हालांकि उन्होंने यह बात इसमें नहीं जोड़ी है कि इनमें से अधिकांश निकाय निर्वाचित नहीं हैं।
इन वैश्विक अभिजात्य वर्ग की अवधारणा में केवल दो चीजें मायने रखती हैं: व्यक्तिगत अधिकार और एक वैध देश जिसका हिस्सा बनने के लिए स्वतंत्र लोगों ने सहमति दी है। प्राथमिक संबंध व्यक्ति और देश के बीच है, और अन्य सभी मानव संबंध और संस्थान, जैसे कि परिवार, कुटुंब, जनजाति, जाति, नस्ल, या धर्म, इन दो धारणाओं के साथ संघर्ष करने पर अनुचित माने जाते हैं।
दुनिया के एंग्लो-सैक्सन दृष्टिकोण को संबंधों या रिश्तों के बजाय अधिकारों द्वारा परिभाषित किया जाता है और यह उन देशों के लिए सोचने का एक वैध तरीका है जो इसमें विश्वास करते हैं। हजोनी बताते हैं कि ‘कानून के शासन, बाजार अर्थव्यवस्था और व्यक्तिगत अधिकारों’ से जुड़े उदारवादी सिद्धांत दरअसल ब्रिटेन, नीदरलैंड और अमेरिका जैसे देशों की घरेलू परिस्थितियों के संदर्भ में विकसित हुए हैं। वे उन संस्कृतियों के लिए विशिष्ट माने जा सकते हैं जिनमें वे विकसित हुए हैं और इन्हें किसी भी तरह से सार्वभौमिक नहीं कहा जा सकता है।
हालांकि इनमें से कुछ मूल्यों को अन्य संस्कृतियों द्वारा थोड़े हिस्से में साझा किया जा सकता है लेकिन कोई भी उन्हें पूरी तरह से साझा नहीं करेगा। इस तरह ये ‘सार्वभौमिक मूल्यों’ के रूप में लागू करने के लिए उपयुक्त साबित होने लगते हैं।
हजोनी के विचार में एक राष्ट्र ही है जो पारंपरिक समूहों जैसे कि परिवारों, कुटंब, जनजातियों और जातियों को स्पष्ट स्तर पर एक पारस्परिक वफादारी वाले संबंधों के साथ एक राज्य में प्रभावी ढंग से संगठित कर सकता है, भले ही सभी देशों में विभिन्न प्रकार के अल्पसंख्यक होंगे। लेकिन, जब तक प्रमुख राष्ट्रवादी समूह, निष्पक्ष रूप से नियमों को परिभाषित करते हैं तब तक अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा की जा सकती है।
उदारवादी लोग इसे पसंद करें या न करें लेकिन राष्ट्रवाद का पुनरुत्थान जोरदार तरीके से हुआ है चाहे इसे किसी भी शब्दों में परिभाषित किया जाए। यह दरअसल सार्वभौमिकतावाद का मुखौटा धारण करने वाला साम्राज्यवाद है जिसे मूल रूप से वैचारिक हस्तक्षेप कहा जा सकता है और इसीलिए यह आंशिक रूप से वैध नहीं है।
सार्वभौमिकता स्वतंत्र राष्ट्रों को अपनी स्वेच्छा से नियम तय करने को लेकर सहमति बनाने के लिए कहती है जो सभी पर लागू होंगे। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि एक छोटे, अनिर्वाचित ‘उदारवादी’ अभिजात्य वर्ग द्वारा ऊपर से आदेश दिया जाता हो और जो केवल नियम बनाने वालों के हित में कारगर हो। निश्चित तौर पर राष्ट्रवाद को उसका हक देने का समय आ गया है।
*(लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)