के. चंद्रशेखर राव (KCR) के लिए तेलगांना में राजनीतिक पुनरुत्थान उनकी सोच से कहीं अधिक कठिन हो सकता है। कल्याणकारी योजनाओं वाली राजनीति जो वर्ष 2018 में शानदार तरीके से कारगर रही, वह इस बार विफल हो गई। इस चुनावी हार के पीछे पहचान और आजीविका से जुड़े अधिक जटिल कारक थे।
तेलंगाना-आंध्र प्रदेश के कई अन्य राजनेताओं की तरह, केसीआर भी तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा) से जुड़े रहे और चार बार विधायक भी बने। वर्ष 1999 में वह मंत्री पद पाने के बिल्कुल करीब थे, लेकिन उसी साल चुनाव लड़कर पहली बार विधायक बनने वाले पूर्व सीबीआई निदेशक विजय रामा राव ने मंत्री पद के लिए उन्हें कड़ी टक्कर दे दी।
केसीआर अगर उस वक्त मंत्री बने होते तब शायद तेलंगाना को लेकर इतना बड़ा मोर्चा नहीं संभालते। बहरहाल, उन्होंने 2001 में तेदेपा को छोड़कर तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) का गठन किया जो तेलंगाना के साथ हुए अन्याय को दुरुस्त करने के लिए था। तेलंगाना सदियों से पिछड़ा और सामंती क्षेत्र रहा है।
यह याद रखना होगा कि यह क्षेत्र कभी अंग्रेजों के अधीन नहीं आया बल्कि यहां हैदराबाद के निजाम का शासन था जिसने फ्रांस के लोगों के सहयोग से वारंगल में कुछ कारखाने और एक कपड़ा मिल स्थापित की थी। हालांकि वहां रोजगार के अवसर बहुत कम थे और सामंती शोषण खूब होता था। मशहूर फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्म ‘अंकुर’ में भी इसे दर्शाया है। केसीआर पर कांग्रेस के तंज का यही संदर्भ है, ‘डोरा तब (तब जमींदार) और डोरा अब’।
केसीआर ने वर्ष 2001 की सर्दियों में टीआरएस की स्थापना की और पहले विधानसभा उपाध्यक्ष पद से और फिर तेदेपा से इस्तीफा दे दिया। वर्ष 2001 में गर्मी के मौसम में आंध्र प्रदेश में स्थानीय निकाय के चुनाव हुए थे। टीआरएस को इसमें शानदार जीत मिली थी और तेदेपा को 20 जिला परिषदों में से सिर्फ 10 सीट मिलीं।
हालांकि त्रिकोणीय लड़ाई तेदेपा, कांग्रेस और टीआरएस के बीच थी। उसकी क्षमता को समझते हुए कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों के लिए टीआरएस के साथ जल्द ही समझौता कर लिया।
केसीआर की रैलियां काफी लोकप्रिय थीं। वर्ष 2004 का लोकसभा और विधानसभा चुनाव टीआरएस ने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लड़ने का फैसला किया। इन चुनावों में पार्टी को 26 विधानसभा सीट और पांच लोकसभा सीट मिलीं।
इसके बाद केसीआर, कांग्रेस से तेलंगाना को राज्य का दर्जा देने के लिए गुहार लगाते रहे। लेकिन कांग्रेस ने टालमटोल करना जारी रखा। आखिरकार केसीआर ने गठबंधन सरकार से खुद को अलग कर लिया और श्रम मंत्री के पद से भी इस्तीफा दे दिया। उन्होंने धमकी भी दी कि वह तेलंगाना के लोगों को धोखा देने के लिए कांग्रेस को बेनकाब करेंगे।
टीआरएस ने वर्ष 2014 और 2018 में राज्य के चुनावों में जीत हासिल की थी। अलग राज्य के तौर पर तेलंगाना के गठन का सबसे बड़ा मुद्दा ‘तेलंगाना’ के लोगों के लिए नौकरियों की कमी थी। ‘बाहरी लोगों’ ने अधिक वेतन वाली नौकरियां हथिया लीं जब चंद्रबाबू नायडू ने हैदराबाद को साइबराबाद में बदल दिया। इससे विभाजन और स्पष्ट हो गया। नायडू को भी अपनी उस रणनीति के कारण बड़ी चुनावी हार का सामना करना पड़ा। साक्ष्यों को देखा जाए तो वर्ष 2023 में केसीआर के साथ भी ऐसा ही हुआ।
विधानसभा चुनाव में बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा था। कोविड और खाड़ी प्रवासियों की वापसी के बाद, राज्य में विशेष रूप से युवाओं के बीच बेरोजगारी बढ़ी है। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) की वार्षिक रिपोर्ट (वर्ष 2022-23) में कहा गया है कि तेलंगाना में 15-29 आयु वर्ग के लिए बेरोजगारी दर लगभग 15 प्रतिशत है और यह 10.5 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है।
यहां के लिहाज से सबसे महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढांचा सिंचाई प्रणाली है जिसे तेलंगाना में कभी भी व्यवस्थित तरीके से विकसित नहीं किया गया। हालांकि कृष्णा और गोदावरी दोनों ही नदियां यहां बहती हैं। इसके विपरीत, तटीय आंध्र क्षेत्र ने आक्रामक रूप से लॉबीइंग करते हुए कई नहरें तैयार कीं जो नदी के पानी को पूर्वी और पश्चिमी गोदावरी जिलों में दूर तक ले जाती थीं।
केसीआर ने सिंचाई परियोजनाओं में निवेश पर ध्यान देकर इसे दुरुस्त करने की कोशिश की। लेकिन यह उनकी सरकार की सबसे बड़ी चूक बन गई। उत्तरी तेलंगाना में पानी पहुंचाने के लिए शुरू की गई 1 लाख करोड़ रुपये की कालेश्वरम लिफ्ट सिंचाई परियोजना के चलते मेदिगड्डा पिलर में दरारें बन आईं। कांग्रेस ने इस भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए हैदराबाद में कालेश्वरम नामक एटीएम का एक मॉडल लगाया।
भाजपा भी इसको लेकर उदासीन दिखी और केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय ने इस योजना पर कोई टिप्पणी नहीं की। लेकिन भाजपा का दबदबा यहां बना रहा। वर्ष 2019 में 17 लोकसभा सीट में से भाजपा को केवल 4 सीट मिलीं लेकिन इसने केसीआर की बेटी के. कविता को हराया।
शुरुआत में केसीआर ने भाजपा के साथ बेहतर ताल्लुकात बनाने की कोशिश की। लेकिन धीरे-धीरे रिश्तों में खटास आ गई, खासतौर पर तब जब उनके स्वास्थ्य मंत्री एटाला राजेंद्र भाजपा में शामिल हो गए। हालांकि राजेंद्र को इस बार अपनी मूल पार्टी से हारना पड़ा जो उनके गलत कदम की गवाही देता है।
इसी तरह, केसीआर भी कई तरह के भ्रम का शिकार हो गए। वर्ष 2022 में उन्होंने तेलंगाना राष्ट्र समिति का नाम बदलकर भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) कर दिया। उन्होंने महाराष्ट्र (नांदेड़) जैसे राज्य में पार्टी का अभियान शुरू किया। इसके अलावा, बीआरएस का ‘राष्ट्रीय’ कार्यालय बनाने के लिए दिल्ली में संपत्ति हासिल की और राजनीतिक स्वायत्तता का उपयोग भाजपा के साथ-साथ इंडिया गठबंधन के लिए भी मध्यस्थता करने की कोशिश की।
अगर वह इस बार तेलंगाना जीत जाते तब यह नीति कारगर भी हो जाती। हालांकि वह ऐसा नहीं कर सके और अब भाजपा यहां संभावनाएं तलाशना शुरू कर देगी। कविता के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय का मामला दिल्ली के आबकारी घोटाले के इर्द-गिर्द केंद्रित है।
केसीआर के सामने एक जटिल काम है, उन्हें न केवल तेलंगाना में बीआरएस को नए सिरे से पेश करना है बल्कि भारत के लिए भी नया कलेवर देना है। ओडिशा के नवीन पटनायक के पास भी ऐसा ही विकल्प था। हालांकि उन्होंने अपनी ऊर्जा ओडिशा तक ही सीमित रखने का विकल्प चुना, जहां वह अपनी पार्टी के विकास की दिशा तय करने के साथ ही अपने विपक्ष को भी तय कर सकते थे।
अब राष्ट्रीय स्तर के विपक्षी नेता केसीआर को बुलाना बंद कर देंगे। भाजपा जब चाहेगी शिकंजा कसेगी और खुली छूट देगी। यह सब राष्ट्रीय स्तर के निवेश हैं, जो प्रभावी नहीं भी हो सकते हैं।