नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र की एक समस्या यह है कि इससे होने वाले विद्युत उत्पादन में तयशुदा अंतराल अवश्यंभावी है। इस संबंध में बता रहे हैं अजय शाह और अक्षय जेटली
हर कारोबार में उत्पादन, परिवहन, भंडारण और खुदरा कारोबार की एक खाद्य श्रृंखला होती है। कुछ लोग टमाटर उगाते हैं। कुछ लोग ठंडा रखने की व्यवस्था वाले ट्रकों की मदद से टमाटर को एक से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं।
कुछ लोग कोल्ड स्टोरेज यानी शीत गृहों में इन टमाटरों का भंडारण करते हैं या फिर उसे प्यूरी या पेस्ट में बदलते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो टमाटर, प्यूरी या पेस्ट को अंतिम उपभोक्ता को बेचते हैं।
ऐसे कारोबार भी हैं जो टमाटर का उत्पादन बढ़ाने से संबंधित हैं, ठंडा करने वाले या सामान्य ट्रकों के भी कारोबार हैं, टमाटर की प्यूरी और पेस्ट का कारोबार है और खुदरा क्षेत्र का भी।
यह भी संभव है कि टमाटर की प्यूरी बनाने वाला व्यक्ति और मशीनें खरीद ले और टमाटर का पेस्ट बनाना शुरू कर दे। सभी आठ उद्योगों में अलग-अलग क्षमताएं हो सकती हैं। आठों उद्योगों में आठ अलग-अलग मुनाफा मार्जिन हैं।
अगर कोई सरकार किसी एक कंपनी या एक ही केंद्र से कारोबार के तमाम पहलुओं पर काम कराना चाहती है तो यह समझदारी नहीं होगी। ये आठों उद्योग अलग-अलग कीमतों, मुनाफे के अलग-अलग स्रोतों पर निर्भर हैं। यदि कोई केंद्रीय नियोजक इनमें से कुछ उद्योगों के एकीकरण का दबाव बनाता है या उसे प्रोत्साहन देता है तो इससे आर्थिक क्षमता की किफायत कमजोर पड़ती है।
यह भावना बिजली के क्षेत्र में काम करती है। पारंपरिक तौर हमारा यही विचार रहा है कि तीन तरह के कारोबार होते हैं: उत्पादन, पारेषण और वितरण। कीमतें भी तीन तरह की होती हैं: थोक मूल्य जो उत्पादक को प्राप्त होता है, पारेषण की कीमत और अंत में खुदरा कीमत। अब एक चौथा उद्योग उभर आया है और वह है: ऊर्जा भंडारण का कारोबार।
भारत में जीवाश्म ईंधन से बिजली उत्पादन कम हो रहा है। वित्तीय व्यवस्था भी आमतौर पर जीवाश्म ईंधन आधारित संयंत्रों को रकम नहीं देंगी। उत्पादन क्षमता के मिश्रण में नवीकरणीय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ रही है। इसमें दिक्कत यह है कि नवीकरणीय ऊर्जा का उत्पादन रुक-रुक कर होता है।
शाम को सूरज नहीं चमकता और हवा भी कमजोर हो सकती है। ऐसे में ग्रिड को संतुलित करने की जरूरत है। उत्पादन को मांग के अनुरूप करने में मुश्किल आ सकती है।
कई पारंपरिक विचारकों के अनुसार इस समस्या का हल यह है कि एक ऐसी उत्पादन इकाई कायम की जाए जो भंडारण और उत्पादन को एक साथ कर दे। यह इकाई पारंपरिक बिजली उत्पादक जैसी नजर आएगी। उस स्थिति में यह मौजूदा व्यवस्था की दृष्टि से भी बेहतर रहेगी।
यह हो सकता है लेकिन ऐसा करना महंगा है। बेहतर है कि हम अपने मस्तिष्क को पारंपरिक बुद्धिमता, स्थिर और व्यवस्थित दीर्घकालिक पीपीए से अलग करें जो उत्पादन कंपनी को अपनी कारोबारी प्रवृत्तियों को रोकने और सीमित तथा विनियमित प्रतिफल पाने के लायक बनाती हैं।
सबके मूल में कीमतों की भूमिका है। भारत को बिजली के क्षेत्र में जिस अंतर्दृष्टि को अपनाने की आवश्यकता है वह यह विचार है कि आपूर्ति और मांग के बीच के अंतर को दूर करने के लिए कीमतों में उतार-चढ़ाव आता है।
शाम को अधिक मांग के समय जब सूरज ढल रहा होता है, ऊंची मांग कीमतों में इजाफा करेगी। इससे बिजली उपयोगकर्ता कम खरीद के लिए प्रोत्साहित होंगे। ऐसे मोबाइल ऐप इस्तेमाल करना सहज है जो दिखाते हैं कि हर खरीदार के लिए बिजली की कीमत कितनी है।
इसे खरीदारों को उस समय एसी बंद करने का प्रोत्साहन मिलेगा जब कीमतें अधिक होंगी। स्मार्ट घरों में कीमतें उपयोगकर्ता द्वारा तय सीमा के ऊपर जाने पर एसी स्वयं बंद हो जाएंगे या फिर वहां तापमान और कीमत पर आधारित कोई नियमन होगा जिसका चयन उपयोगकर्ता करेंगे। शाम में अधिक कीमतें कंपनियों को इस बात के लिए प्रोत्साहन देंगी कि वे उस समय उत्पादन करें जब बिजली सस्ती हो।
उत्पादन की बात करें तो रोज एक या दो घंटे अच्छा मुनाफा कमाने की संभावनाएं भंडारण और पवन ऊर्जा में निवेश को प्रेरित करेंगी। टमाटर की कीमतों में उतार-चढ़ाव से मुनाफा कमाने वाले व्यवहार को प्रेरणा मिलती है और टमाटर के भंडारण के लिए शीत गृह बनाए जाते हैं। इसी तरह बिजली कीमतों में उतार-चढ़ाव भी उन लोगों के मुनाफा कमाने वाले आचरण को प्रेरित करेगी जो ऊर्जा भंडारण कंपनियां बनाएंगे।
ऊर्जा क्षेत्र की तकनीक में निरंतर बदलाव आ रहा है और उत्पादन तथा भंडारण को लेकर नित नए विचार आ रहे हैं। किसी को नहीं पता है कि भविष्य कैसा होगा? अब वक्त आ गया है कि लोग अनिश्चितता का आकलन करें और भविष्य को ध्यान में रखते हुए निर्णय लें।
अत्यधिक विनियमित और नियोजित व्यवस्था में जहां अधिकारी जोखिम नहीं लगते और दूसरों को भी ऐसा नहीं करने देते, वहां निर्णय लेना काफी मुश्किल होता है।
इसके विपरीत कारोबारी जोखिम लेना जानते हैं। वे उपभोक्ताओं की पसंद और तकनीकी उन्नति पर ही जीते-मरते हैं। हर निजी कंपनी जानती है हर निवेश के साथ जोखिम जुड़ा होता है और नाकाम होना, किसी कंपनी या फैक्टरी का बंद होना आम है। इसका दूसरा पहलू भी है कि सफल परियोजनाओं में स्वीकार्य लाभ होना चाहिए।
नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश की धीमी गति और जीवाश्म ईंधन निवेश में धीमेपन के साथ मजबूत आर्थिक विकास की स्थिति में बिजली की व्यवस्था में बड़ी दिक्कतें आएंगी। बिजली संबंधी नीति बनाने वालों को अब आने वाले वर्षों के परिदृश्य को लेकर तैयार रहना होगा।
पहली बात तो यह कि हमें एक कारगर मूल्य व्यवस्था बनानी होगी ताकि हम पारंपरिक अफसरशाही ढांचे वाली बिजली व्यवस्था के बजाय नवाचारी और जोखिम उठाने वाली व्यवस्था को अपना सकें। कोई भी मांग पक्ष की पहल, भंडारण और नवीकरणीय ऊर्जा के बारे में नहीं जानता है जो भविष्य में भारतीय ऊर्जा क्षेत्र की व्यवस्था होगी। इस मूल्य व्यवस्था को पता होगा कि किफायती उत्तर कैसे तलाश किया जाए।
जोखिम लेने और अनिश्चितता को ध्यान में रखने की सुविधा के लिए विनियमित दरों के मानक पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। 20वीं सदी में कई देशों की बिजली व्यवस्था कम जोखिम के साथ-साथ बिगड़ गई थी। इस क्षेत्र की कंपनियां दरअसल विनियमित प्रतिफल दरों वाली कंपनियां थीं।
काम की गति धीमी थी और प्रतिफल भी। इक्कीसवीं सदी पहले से अलग है। यह अत्यधिक जोखिम वाला विश्व है जहां कई परियोजनाएं नाकाम होंगी और ऐसे में पारंपरिक कम नियमित प्रतिफल दर को अपनाना अनुचित होगा।
(शाह एक्सकेडीआर फोरम के शोधकर्ता और जेटली ट्राईलीगल के पार्टनर एवं ट्रस्टब्रिज के संस्थापक हैं)