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बैंकिंग साख: बॉन्ड डीलरों के लिए नया मैदान अच्छा या बुरा?

खास बात यह कि ये नियम बैंकों की अपनी सहायक कंपनियों, संयुक्त उद्यमों और संबद्ध कंपनियों में उनके निवेश पर लागू नहीं होगें।

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तमाल बंद्योपाध्याय   
Last Updated- October 18, 2023 | 10:03 PM IST

इन दिनों बॉन्ड डीलर (bond dealer) और सभी बैंकों के लेखा विभाग तथा टेक्नालॉजी डिवीजन व्यस्त हैं। कारण कि वे निवेश के वर्गीकरण, मूल्यांकन और परिचालन से जुड़े भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के ताजा मानदंडों को लागू करने की तैयारी में जुटे हैं।

अगले वित्त वर्ष यानी अप्रैल 2024 से इन मानदंडों को लागू किया जा रहा है। वैश्विक चलन के अनुरूप इन बदलावों के बारे में बैंकिंग नियामक ने 2022 में परिचर्चा पत्र जारी किया था।

बैंकों को अब नए नियमों के तहत अपने निवेश को तीन श्रेणियों में बांटना होगा। ये श्रेणियां हैं: परिपक्वता तक रखना (एचटीएम), बिक्री के लिए उपलब्ध (एएफएस) और लाभ-हानि के जरिये उचित मूल्य (एफवीटीपीएल)। वर्तमान कारोबार के लिए रखी (एचएफटी) की एक उपश्रेणी होगी।

खास बात यह कि ये नियम बैंकों की अपनी सहायक कंपनियों, संयुक्त उद्यमों और संबद्ध कंपनियों में उनके निवेश पर लागू नहीं होगें।
सितंबर के दूसरे हफ्ते में जारी अधिसूचना में इसका विस्तृत ब्योरा दिया गया है।

लेखा विभाग और सॉफ्टवेयर वालों के लिए यह एकबारगी की मशक्कत है क्योंकि नए लेखा मानदंडों को शामिल करने के लिए सिस्टम में परिवर्तन करना होगा। लेकिन ट्रेजरी वालों के लिए कारोबारी गतिविधियां खासी बदल जाएंगी। आइए, इन तीनों बड़े बदलावों को देखते हैं:

पहला: एचटीएम पर लगी सीमा हटाई जा रही है। बैंकों को अपनी नेट टाइम ऐंड डिमांड लायबिलिटीज, मोटे तौर पर कहें तो जमा का दूसरा रूप, का 4.5 फीसदी रिजर्व बैंक के पास रखना होता है और उनको इस पर कोई ब्याज भी नहीं मिलता। यह नकद आरक्षी अनुपात होता है।

इसके अलावा 18 प्रतिशत का सांविधिक तरलता अनुपात (एसएलआर) है। बैंकों को एसएलआर की जरूरत पूरी करने के लिए सरकार के बॉन्ड खरीदने होते हैं। इस समय बैंकिंग प्रणाली में औसत एसएलआर करीब 28 से 29 फीसदी हो सकता है।

सरकार और कॉरपोरेट बॉन्ड में किए गए निवेश को ऊपर बताई गई तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है। एचटीएम पर पहले सीमा 19.5 फीसदी थी लेकिन कोविड के समय इसे बढ़ाकर 23 फीसदी किया गया। इसे चरणबद्ध तरीके से कम किए जाने की योजना थी। लेकिन अब सीमा हटा ली गई है। इसलिए अब बैंक अपनी इच्छानुसार एचटीएम श्रेणी में कितने ही बॉन्ड रख सकते हैं।

अच्छा: इस श्रेणी के बॉन्डों को लेखा चलन के अनुसार मार्क्ड टू मार्केट (एमटीएम) में रखने की जरूरत नहीं है। एमटीएम का मतलब है कि अगर बॉन्ड की कीमतें खरीद मूल्य से नीचे चली जाती हैं तो बैंकों को इस नुकसान का अंतर अपनी आय से भरना पड़ता है।

प्रतिफल यानी यील्ड और बॉन्ड की कीमतें विपरीत दिशा में चलती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो बैंकों की ट्रेजरी अगर ट्रेडिंग नहीं करने का फैसला करती है और समूचे एसएलआर निवेश को एचटीएम श्रेणी में रखती है तो उसे बॉन्डों पर प्रतिफल बढ़ने की सूरत में एमटीएम नुकसान नहीं दर्ज करना पड़ेगा।

बुरा: पहले की व्यवस्था की तरह बैंक एचटीएम श्रेणी के बॉन्डों को साल में एक बार संभवतया अप्रैल में एएफएस श्रेणी में ले जा सकते हैं। आमतौर पर बैंक एचटीएम बास्केट के लिए बॉन्ड खरीदते हैं और अगर कीमतें बढ़ती हैं तो या उनका निवेश ‘इन दि मनी’ में रहता है तो वे उनको एएफएस बास्केट में डाल देते हैं। अभी तक बोर्ड की मंजूरी के बाद ही ऐसा किया जाता रहा है।

लेकिन अब आरबीआई चाहता है कि बोर्ड की मंजूरी के बाद बैंक उससे भी अनुमति लें। यह पूछा जा सकता है कि नियामक को क्यों इसमें दखल देना चाहिए? क्या यह बैंक का कारोबारी फैसला नहीं होता है?

इसके अलावा, उतार-चढ़ाव वाले बाजार में अगर नियामक ने मंजूरी देने में समय लगाया तो बैंक मुनाफा कमाने के मौके से चूक सकता है। आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि बॉन्ड प्रतिफल कई दिनों तक उसी स्तर पर टिका रहेगा। बाहरी मंजूरी की शर्त जोड़कर नियामक बॉन्डों को एचटीएम से एएफएस बास्केट में डालने को हतोत्साहित कर रहा है।

दूसरा: नए मानदंडों में कॉरपोरेट बॉन्डों को भी एचटीएम श्रेणी में शामिल किया गया है।

अच्छा: अभी भी विकसित हो रहे कॉरपोरेट बॉन्ड सेक्टर के लिए यह बहुत बड़ा प्रोत्साहन होगा। बैंकिंग और बाजार नियामक के लगातार प्रोत्साहन के बावजूद वाणिज्यिक बैंक एमटीएम नुकसान उठाने के डर से कॉरपोरेट बॉन्ड खरीदने को बहुत लालायित नहीं रहते। वे कंपनी के ऋण पत्र यानी बॉन्ड खरीदने के बजाय उसे कर्ज देना पसंद करते हैं।

दूसरे शब्दों में कहें तो ज्यादातर बैंक अपना कॉरपोरेट निवेश अपने ऋण खातों में रखना चाहते हैं कि न कि निवेश खाते में। लेकिन अब वे कॉरपोरेट बॉन्ड खरीदने को प्रोत्साहित होंगे जिससे बाजार व्यापक होगा।

बुरा: हालांकि बैंकों को एचटीएम श्रेणी में समूचा बॉन्ड निवेश, चाहे वह सॉवरिन हो या कॉरपोरेट, करने की इजाजत देने के भी जोखिम हैं। जरा जनवरी में अमेरिका के 16 वें सबसे बड़े बैंक-सिलिकन वैली- के ढहने को याद कीजिए जिसके पास करीब 200 अरब डॉलर की परिसंपत्तियां थीं। वह इसलिए डूब गया क्योंकि वह ब्याज दर जोखिम का प्रबंधन नहीं कर पाया। सांता क्लारा, कैलिफोर्निया मुख्यालय वाले 40 साल पुराने बैंक ने लंबी अवधि वाली प्रतिभूतियों में निवेश किया था।

ब्याज दरें बढ़ने से इन परिसंपत्तियों पर प्रतिफल बढ़ने लगा जिससे उनकी कीमत घटती चली गई। जब निवेश पर घाटा बढ़ने लगा तो बैंक के ग्राहक आधार के मुख्य स्तंभ तकनीकी स्टार्टअप, जो बैंक में जमा के रूप में अपनी रकम रखती थीं, का बैंक पर भरोसा डगमगाने लगा।

जब ऐसी स्टार्टअप में निवेश कमजोर पड़ने लगा तो उनको परिचालन खर्च के लिए राशि की जरूरत हुई और उन्होंने बैंक में जमा अपनी रकम निकालनी शुरू कर दी। बैंक के पास अपनी कुछ प्रतिभूतियों को बेचने और घाटा दर्ज करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। घाटे ने उसकी पूंजी खत्म कर दी और बैंक डूब गया।

निश्चित ही, आरबीआई सतर्कता के मामले में काफी सख्त है और यहां ऐसी संभावना नहीं है। फिर भी, एचटीएम श्रेणी के बॉन्डों को आय के रूप में, संपत्ति वर्गीकरण और प्रावधान मानदंडों से परखा जाएगा।

तीसरा: इस समय अगर कोई बैंक एचएफटी बास्केट के लिए बॉन्ड खरीदता है तो उसे उनको 90 दिन के भीतर बेचना होता है। नए नियमों में यह समय सीमा हटा ली गई है।

अच्छा: एचएफटी बॉन्डों को रखने की अवधि बढ़ाने से न बिक पाने वाले बॉन्डों में बेहतर तरलता आएगी। इससे कारोबार को बढ़ावा मिलेगा और तरलता में इजाफा होगा। यह जरूरी भी है, खासतौर पर जब भारत को जेपी मॉर्गन सरकारी बॉन्ड सूचकांक में शामिल किया गया है। इससे स्प्रेड ट्रेड और ओवरनाइट इंडेक्स्ड स्वैप बाजार को प्रोत्साहन मिलेगा।

बुरा: कुछ नहीं।

(लेखक जन स्मॉल फाइनेंस बैंक में वरिष्ठ सलाहकार हैं)

First Published : October 18, 2023 | 10:03 PM IST