तकरीबन 175 देशों के प्रतिनिधियों के नैरोबी में एकत्रित होने और प्लास्टिक प्रदूषण (Plastic Pollution) से निपटने के लिए कानूनी रूप से प्रभावी पहली संधि करने पर सहमति होने के दो वर्ष बाद भी इस बात की बहुत कम उम्मीद है कि निकट भविष्य में दुनिया इस विषय पर किसी सहमति पर पहुंच सकेगी और प्लास्टिक से पर्यावरण को होने वाले नुकसान को लेकर कोई संधि हो सकेगी।
प्लास्टिक प्रदूषण (Plastic Pollution) को लेकर अंतरसरकारी वार्ता समिति की ओटावा में चौथी बैठक हाल ही में हुई। बहरहाल, आश्चर्य नहीं कि आधी रात के बाद तक बातचीत के बावजूद प्लास्टिक उत्पादन की सीमा तय करने को लेकर कोई साझा सहमति नहीं बन सकी।
अधिकांश देश जहां इस बात पर सहमत थे कि प्लास्टिक उत्पादन के लिए जीवाश्म ईंधन के आरंभिक खनन से लेकर प्लाटिस्क कचरे के अंतिम निपटान तक इसके संपूर्ण जीवनचक्र में प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने की आवश्यकता है लेकिन कुछ देशों ने कहा कि इसके उत्पादन पर कोई सीमा आरोपित करना संभव नहीं प्रतीत होता।
पेट्रोकेमिकल संपन्न देशों और कई औद्योगिक समूहों ने इस प्रस्ताव के खिलाफ लॉबीइंग की। इसके बजाय वे चाहते हैं कि संधि में प्लास्टिक के पुनर्चक्रण और कचरा प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित किया जाए।
यह बात सभी जानते हैं कि कचरा प्रबंधन और पुनर्चक्रण पर ध्यान केंद्रित करना भर प्लास्टिक संकट से निपटने के लिए पर्याप्त नहीं होगा। पूरी दुनिया में हर वर्ष 40 करोड़ टन प्लास्टिक कचरा उत्पादित होता है। दुनिया भर में अब तक उत्पन्न सात अरब टन प्लास्टिक कचरे में से 10 फीसदी से भी कम का पुनर्चक्रण हुआ है।
अधिकांश प्लास्टिक कचरा समुद्रों और कचरे के ढेरों में जाता है। प्लास्टिक सिंथेटिक पॉलिमर होता है जिसका जैविक अपघटन नहीं होता है। समस्या यहीं समाप्त नहीं होती है। इसकी उत्पादन प्रक्रिया भी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करती है। पॉलिमराइजेशन की प्रक्रिया और उत्सर्जन करती है।
अमेरिका की लॉरेंस बर्कली नैशनल लैबोरेटरी के अनुमानों के मुताबिक 2019 में प्लास्टिक निर्माण के कारण 2.24 गीगाटन ऐसा प्रदूषण हुआ जो धरती का तापमान बढ़ाने वाला है। यह 600 कोयला संचालित ताप बिजली घरों के उत्सर्जन के बराबर है। चार फीसदी वार्षिक वृद्धि के अनुमान के साथ देखें तो 2050 तक प्लास्टिक उत्पादन 5.13 गीगाटन हो जाएगा, भले ही तब तक हम सफलतापूर्वक पावर ग्रिड का अकार्बनीकरण कर चुके हों।
इस संदर्भ में वैश्विक समझौते पर नहीं पहुंच पाना दिखाता है कि कारोबारी और आर्थिक हित संभावित पर्यावरणीय लाभों पर भारी पड़ रहे हैं। दुनिया की सात शीर्ष प्लास्टिक उत्पादन कंपनियां जीवाश्म ईंधन कंपनियां ही हैं। बीते कुछ दशकों में प्लास्टिक को लेकर एक नई चिंता सामने आई है और वह है मानव स्वास्थ्य पर इसका दुष्प्रभाव।
सूक्ष्म और नैनो प्लास्टिक के अंश न केवल इंसानी खून में बल्कि गर्भनाल में भी पाए गए हैं। समुचित निपटान प्रणाली और कचरा संग्रहण तकनीक प्लास्टिक के जलवायु प्रभाव को रोकने या उन्हें मनुष्य के शरीर में पहुंचने से रोकने के लिए अपर्याप्त हैं। ऐसा कचरे के प्लास्टिक बन जाने के बहुत पहले हो जाता है। ऐसे में उत्पादन कम करके ही लंबी अवधि में इस समस्या से निपटा जा सकता है।
सन 2022 में भारत ने प्लास्टिक कचरा प्रबंधन (संशोधन) नियम 2021 लागू किया था जिसके तहत 19 श्रेणियों में एकल इस्तेमाल वाले प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाया गया था हालांकि वे देश में एकल इस्तेमाल वाले कुल प्लास्टिक का केवल 11 फीसदी है। परंतु अब भी उनका इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जा रहा है। तमाम स्थानों पर इनकी बिक्री चल रही है।
यह दुर्भाग्य की बात है कि प्लास्टिक की समस्या को लेकर निजी या सार्वजनिक रूप से पर्याप्त फंडिंग नहीं आ रही है। इसके चलते बेहतर लागत वाले विकल्प सामने नहीं आ रहे हैं। फोटो-ऑक्सिडेशन या प्लास्टिक खाने वाले माइक्रोब्स मसलन नेट्रिजिएंस बैक्टीरिया का उत्पादन भी नहीं बढ़ाया जा सका है। फिलहाल बुसान की राह अनिश्चित है जहां वार्ता समिति की पांचवें दौर की बातचीत इस वर्ष के अंत में होनी है।