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Editorial: कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मेकनिज्म….एक अवसर!

कार्बन सघन उद्योगों मसलन स्टील, सीमेंट और उर्वरक आदि में नवीकरणीय ऊर्जा की दिशा में हो रहे परिवर्तन में भी इसे महसूस किया जा सकता है।

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बीएस संपादकीय   
Last Updated- January 11, 2024 | 9:40 PM IST

वर्ष 2023 के मध्य में जब से यूरोपीय संघ ने कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मेकनिज्म (सीबीएएम) की घोषणा की, तब से भारतीय उद्योग जगत ने खुलकर इसके प्रति अपने पूर्वग्रह जताए। यह व्यवस्था आयात पर उत्सर्जन शुल्क लगाती है।

सलाहकार सेवा प्राइसवाटरहाउसकूपर्स (पीडब्ल्यूसी) द्वारा पर्यावरण, सामाजिक और कारोबारी संचालन यानी ईएसजी में कर पारदर्शिता को लेकर हुए एक हालिया सर्वेक्षण में 67 फीसदी प्रतिक्रियाओं में कहा गया कि सीबीएएम उनकी आपूर्ति श्रृंखलाओं को प्रभावित कर सकता है। ये आशंकाएं गलत नहीं हैं।

दिल्ली स्थित सेंटर फॉर एनर्जी, एन्वॉयरनमेंट ऐंड वाटर ने अनुमान लगाया है कि इससे कर लागत बढ़ने और प्रतिस्पर्धा पर असर पड़ने से यूरोपीय संघ को होने वाले 43 फीसदी भारतीय निर्यात प्रभावित होगा। यूरोपीय संघ हमारा दूसरा सबसे बड़ा विदेशी बाजार है।

उदाहरण के लिए इस्पात क्षेत्र में भारतीय मिलों का कार्बन उत्सर्जन प्रतिस्पर्धियों की तुलना में अधिक है। इसलिए कुछ अनुमानों के मुताबिक सीबीएएम व्यवस्था में इसकी कीमत 56 फीसदी तक बढ़ सकती है।

कार्बन बॉर्डर टैक्स जनवरी 2026 से लागू होगा। यह 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 55 फीसदी कमी करने के लक्ष्य का हिस्सा है। परंतु भारतीय निर्यातकों को पहले से ही जटिल अनुपालन चुनौतियों का अंदाजा हो गया है। ऐसा अक्टूबर 2023 में यूरोपीय संघ के साथ उत्सर्जन डेटा साझा करने के लिए सात कार्बन सघन क्षेत्रों की कंपनियों की अनिवार्य परीक्षण अवधि की शुरुआत के साथ ही हो गया। अधिकांश भारतीय कंपनियां सीबीएएम को एक संरक्षणवादी उपाय मानती हैं और इसकी वजह भी है।

भारत सरकार बहुपक्षीय मंचों पर इसके खिलाफ अपील करने पर विचार कर रही है। यह अपील ‘साझी किंतु विभेदित जवाबदेही’ के सिद्धांत के तहत की जा सकती है। टीकाकारों ने भी सुझाया है कि भारतीय कंपनियां अपने निर्यात बाजार में विविधता लाएं और उन देशों को निर्यात बढ़ाएं जहां उत्सर्जन के मानक इतने सख्त नहीं हैं। उदाहरण के लिए लैटिन अमेरिका और अफ्रीका को निर्यात बढ़ाया जा सकता है।

ये उचित और आवश्यक प्रतिक्रियाएं हैं लेकिन इनमें समय लग सकता है। परंतु वैश्विक जलवायु परिवर्तन प्रतिबद्धताओं और इस कवायद की जरूरत को देखते हुए भारतीय उत्पादकों के लिए बेहतर यही होगा कि वे अधिक सक्रियता दिखाते हुए सीबीएएम की चुनौती से पार पाने के तरीके तलाशने की कोशिश करें।

निश्चित तौर पर सीबीएएम के लक्ष्यों में से एक यह सुनिश्चित करना है कि यूरोपीय संघ ही नहीं बल्कि विश्व स्तर पर बदलाव आए। पीडब्ल्यूसी का अध्ययन दिखाता है कि अधिकांश कंपनियां इस बात को समझती हैं कि शुरुआती बदलाव में जोखिम कम करने के अवसर निहित हैं। सर्वे में शामिल आधी कंपनियों ने कहा कि उनकी विशुद्ध शून्य की प्रतिबद्धता है और वे सक्रिय ढंग से ऐसे तरीके तलाश कर रही हैं ताकि उन लक्ष्यों को हासिल किया जा सके। इनमें से करीब आधी कंपनियों ने 2030 तक विशुद्ध शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य तय किया है।

कार्बन सघन उद्योगों मसलन स्टील, सीमेंट और उर्वरक आदि में नवीकरणीय ऊर्जा की दिशा में हो रहे परिवर्तन में भी इसे महसूस किया जा सकता है। आंशिक तौर पर ऐसा राज्य के स्वामित्व वाली ग्रिड बिजली आपूर्ति की संरचनात्मक कमी को दूर करने के लिए तथा आंशिक तौर पर कम लागत वाले ईएसजी फंड तक पहुंच बनाने के लिए किया जाता है।

अन्य कंपनियां हरित हाइड्रोजन तकनीक का परीक्षण कर रही हैं। इस बदलाव का तात्कालिक परिणाम ऊंची लागत के रूप में सामने आ सकता है लेकिन दीर्घावधि में भारतीय उद्योग जगत के पास यह अवसर है कि वह अधिक मजबूत प्रतिस्पर्धी के रूप में सामने आए। देश का हालिया औद्योगिक इतिहास दिखाता है कि कंपनियों को ऐसी चुनौतियों से लाभ हुआ है।

उदाहरण के लिए सन 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश के संगठित कालीन बुनाई उद्योग ने जर्मनी द्वारा बाल श्रमिकों के तैयार किए गए तथा कैंसरकारक रंगों वाले कालीनों के आयात पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद तत्काल सबक ले लिया। आज इस इलाके में ये दोनों समस्याएं नहीं नजर आतीं।

भारत स्वयं उन कपड़ों के आयात पर रोक लगा चुका है जिनमें एजो डाई का इस्तेमाल किया जाता है। सीबीएएम भी ऐसा ही अवसर हो सकता है जिसके जरिये कम कार्बन उत्सर्जन के साथ बड़ी छलांग लगाई जा सकती है।

 

First Published : January 11, 2024 | 9:37 PM IST