वित्त मंत्रालय में जल्द ही बजट निर्माण प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। इस समय राजकोषीय हालात पिछले तीन दशक में सर्वाधिक निराशाजनक स्तर पर हैं और अप्रत्याशित चुनौतियां सामने हैं। बीते दो वर्षों में गैर ऋण राजस्व की वृद्धि दर नॉमिनल जीडीपी (वास्तविक वृद्धि और मुद्रास्फीति) से कमजोर रही। इस वर्ष की नॉमिनल जीडीपी ज्यादा से ज्यादा गत वर्ष के 204 लाख करोड़ रुपये के स्तर पर रहेगी क्योंकि मुद्रास्फीति वास्तविक आंकड़ों में गिरावट को निष्प्रभावी कर देगी। सरकार का गैर कर्ज राजस्व शायद उस स्तर पर न रह पाए क्योंकि वर्ष की पहली छमाही में यह गत वर्ष की तुलना में बमुश्किल दो तिहाई स्तर पर रहा। यह गिरावट अप्रैल-सितंबर माह की नॉमिनल जीडीपी में आई गिरावट से भी अधिक है। वर्ष की दूसरी छमाही में प्रदर्शन बेहतर रहना चाहिए लेकिन जीडीपी के संबंध में गैर कर्ज राजस्व में लगातार तीसरे वर्ष कमी आना तय है। इस अंतर को उधारी की मदद से पाटा जाएगा। सरकार ने इसे 12 लाख करोड़ रुपये रखने का संकेत दिया है जबकि बजट में इसके लिए 8 लाख करोड़ रुपये का ही प्रावधान किया गया था। संभावना तो यही है कि यह निर्धारित स्तर पार कर जाएगी। तीन वर्ष पहले जहां केवल सरकारी व्यय के चौथाई हिस्से की वित्त व्यवस्था की जानी थी, वहीं इस वर्ष यह आंकड़ा 40 फीसदी का स्तर पार कर सकता है। यद्यपि रक्षा, सामाजिक सुरक्षा और बुनियादी ढांचा क्षेत्र में सरकारी व्यय में तत्काल इजाफा करने की मांग उठी है। ऐसे में व्यय में किसी तरह की कमी की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। इसकी भरपाई के लिए राजस्व में इजाफा करना होगा। ऐसे में कर वसूली के अलावा अर्थव्यवस्था में दोबारा सुधार के बाद ही राजस्व अर्जित हो सकता है। अधिक राजस्व कैसे जुटाया जा सकता है? सरकार दबाव में है क्योंकि कॉर्पोरेट कर दरों में गिरावट के अंतरराष्ट्रीय रुझान को देखते हुए सरकार ने भी कंपनियों के लिए कर दरों में कमी की है। परंतु निजी व्यक्तियों के लिए दरें अधिकतम 43 फीसदी तक पहुंच चुकी हैं। यह दर 5 करोड़ रुपये से अधिक आय वाले लोगों के लिए है। इन दोनों ही क्षेत्रों में ज्यादा कुछ करने की गुंजाइश नहीं है। हां, कर क्षेत्र की कुछ ऐसी कमियों को दूर किया जा सकता है जिनका फायदा कंपनियां उठाती हैं। पूंजीगत लाभ पर कर दर भी बढ़ाई जा सकती है। सरकार संपदा कर को दोबारा पेश कर सकती है जिसे अरुण जेटली ने राजस्व कम होने के कारण खत्म कर दिया था। यदि ऐसे उपाय किए गए तो शेयर बाजार पर बुरा असर पड़ेगा और परपीड़कों को आनंद मिल सकता है क्योंकि इससे अरबपतियों की तादाद कम होगी और बचे हुए अरबपतियों के पास धन भी कम होगी। ऐसे में संपत्ति की असमानता कम होगी। हालांकि इससे बहुत अधिक राजस्व आने की संभावना नहीं है क्योंकि वास्तविक अमीर तो पहले ही अपने कर को लेकर कुछ न कुछ उपाय कर चुके हैं। कॉर्पोरेट परिसंपत्तियों अथवा शुद्ध संपत्ति पर कर लगाना अधिक लाभदायक साबित हो सकता है। इसके अलावा मुनाफे पर भी कर लगाया जा सकता है। इससे अधिक राजस्व मिलने की संभावना है क्योंकि सबसे बड़ी कंपनियों को अधिक कर चुकाना होगा। परंतु इस वजह से शेयर बाजार पर और अधिक असर पड़ेगा क्योंकि बड़ी तादाद में ऐसी कंपनियां भी प्रभावित होंगी जो बमुश्किल मुनाफा कमाती हैं। ऐसा कर कंपनियों को वृद्धि पर बल देने के लिए प्रोत्साहित करेगा क्योंकि वे शेयर जारी करने के बजाय कर्ज संग्रह पर काम करेंगी। ऐसा इसलिए ताकि शुद्ध संपत्ति का आकार कम हो सके। नकदी की ऐसी बहाली के जोखिम भी हैं। कंपनियों को मुश्किल दिनों में परेशानी हो सकती है। अप्रत्यक्ष कर की बात करें तो वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) दरें औसतन राजस्व निरपेक्ष मानी जाने वाली कर दर की तुलना में काफी कम होती हैं। कर सिद्धांत मंदी के दिनों में ऐसे कर में इजाफा करने के प्रतिकूल सलाह देते हैं। यकीनन कई संकटग्रस्त कारोबार जीएसटी दरों में कमी की मांग कर रहे हैं। परंतु अत्यधिक राजकोषीय दबाव में काम कर रही सरकार यह कठिन कदम उठा सकती है। धीमे सुधार और ईंधन मुद्रास्फीति (जो पहले ही अधिक है) की कीमत पर राजस्व में इजाफा हो सकता है। यानी वित्त मंत्री के सामने जो भी विकल्प हैं उनकी कीमत चुकानी होगी। वित्त मंत्री को आशा करनी चाहिए कि यह विशाल समस्या अचानक हल हो जाए। या फिर उन्हें वित्त आयोग के अध्यक्ष एन के सिंह से उम्मीद रखनी चाहिये जिनकी रिपोर्ट लंबित है। यदि रिपोर्ट में राज्यों के लिए कम कर हिस्सेदारी की अनुशंसा होती है तो केंद्र को अधिक पैसा मिलेगा। उसका सहकारी संघवाद पर क्या असर होगा यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
