खाद्यान्न संकट और जिंसों के तीखे तेवरों से जूझ रही दुनिया को यूक्रेन संकट ने नया झटका दे दिया। पहले से ही महंगी चल रही कृषि जिंसों के दाम रूस-यूक्रेन जंग की वजह से और भी बढ़ गए। इसमें कोई शक नहीं कि पिछले एक-डेढ़ महीने में खाद्य तेल के भाव नीचे आए हैं मगर जलवायु परिवर्तन के कारण अगले साल भी हर ओर खाद्यान्न संकट गहराने की आशंका जताई जा रही है। ऐसे में पूरी दुनिया की नजर भारत पर टिक गई है।
कोरोना महामारी की आमद यानी 2020 से पहले गेहूं और चावल जैसी जिंस की वैश्विक आपूर्ति में भारत का ज्यादा दखल नहीं था। भारत से चावल और गेहूं का निर्यात बहुत कम था या सही कहें तो नहीं के बराबर था। चावल में मोटे तौर पर बासमती का निर्यात किया जाता था। चीनी और कपास का निर्यात भी कुछ खास नहीं था क्योंकि अन्य बड़े उत्पादक देशों की तुलना में हमारी कीमतें ज्यादा होती थीं। यही वजह है कि चीनी और कपास के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने 2019 और 2020 में कई घोषणाएं भी कीं। इस कारण भारत को विश्व व्यापार संगठन में अन्य बड़े उत्पादक देशों का विरोध भी सहना पड़ा।
पिछले दो साल में वैश्विक स्तर पर खाद्य जिंसों के दाम बढ़ने के कई कारण हैं। प्रतिकूल जलवायु की वजह से बड़े उत्पादक देशों के उत्पादन में भारी गिरावट, पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में उछाल के कारण उर्वरक कीमतों में रिकॉर्ड तेजी, ढुलाई के खर्च में बढ़ोतरी, कोरोना लॉकडाउन के हटने के बाद मांग में अचानक तेजी और आपूर्ति में अड़चन (कार्गो जहाज और कामगारों की कमी के कारण) प्रमुख कारण हैं। इस बीच भारत में रिकॉर्ड उत्पादन और पर्याप्त आपूर्ति की वजह से चावल और गेहूं जैसी जिंसों के भाव अन्य देशों के मुकाबले काफी कम थे। इसलिए इन जिंसों के निर्यात में पिछले दिनों जबरदस्त बढ़ोतरी दर्ज की गई।
फिलहाल भारत में खरीफ फसलों की बोआई चल रही है। धान, मक्का, गन्ना, कपास, सोयाबीन, मूंगफली और दलहनी फसलों में तुअर, उड़द और मूंग आदि मुख्य खरीफ फसल हैं। लेकिन वैश्विक आपूर्ति के लिहाज से सबसे ज्यादा ध्यान धान पर है क्योंकि कुल वैश्विक निर्यात में भारत की हिस्सेदारी पिछले वित्त वर्ष में 40 फीसदी रही। इसके बाद चीनी और कपास आते हैं। बाकी फसलों का निर्यात भारत से नहीं के बराबर होता है, इसलिए वैश्विक आपूर्ति में उनके उत्पादन से कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर भारत इन जिंस की खपत और आयात के मामले में दुनिया के अगुआ देशों में शुमार है, इसलिए यहां के उत्पादन से वैश्विक कीमतें जरूर प्रभावित होती हैं। दलहन और तिलहन के भाव पर पिछले कुछ सालों में कई बार इसका असर दिख चुका है। वित्त वर्ष 2017-18 और 2018-19 में ऐसा ही हुआ था, जब भारत में भारी उत्पादन के कारण देसी और वैश्विक स्तर पर दलहन के भाव औंधे मुंह गिर गए थे। इसलिए भारत में खरीफ फसलों की बोआई बहुत अहम है।
धान
कृषि मंत्रालय के नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक देश में धान की बोआई पिछले वर्ष की इसी अवधि के मुकाबले 12.67 फीसदी कम रही है। पिछले साल 5 अगस्त तक कुल 314.1 लाख हेक्टेयर रकबे में धान बो दिया गया था मगर इस साल 5 अगस्त तक केवल 274.3 लाख हेक्टेयर रकबे में ही धान बोआई हुई है। बोआई में गिरावट की मुख्य वजह देश के पूर्वी राज्यों मसलन बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश में मॉनसूनी बारिश का कम रहना है। बिहार के जमुई जिले के किसान विमलदेव प्रसाद सिंह कहते हैं, ‘हमारे यहां सिर्फ 10 फीसदी रकबे में धान की बोआई हुई है, आने वाले दिनों में इसकी भरपाई की गुजांइश बेहद कम है क्योंकि बारिश ही नहीं हो रही है। अगर कुछ समय बाद बारिश हुई तो लोगों के पास धान की रोपाई के लिए बिचड़े ही नहीं होंगे।’
हालांकि कुछ जानकार अब भी मान रहे हैं कि आने वाले दिनों में बोआई में सुधार हो सकता है क्योंकि अगस्त और सितंबर में सामान्य मॉनसूनी बारिश का अनुमान लगाया गया है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो धान के उत्पादन में कमी आ सकती है, जो खाद्य सुरक्षा के लिहाज से चिंता का सबब है। चिंता बढ़ इसलिए जाती है क्योंकि मार्च की शुरुआत से ही तापमान में अचानक बढ़ोतरी के कारण पिछले रबी सीजन में गेहूं का उत्पादन भी प्रभावित हुआ था। साथ ही किसानों को सरकारी खरीद के बजाय निजी क्षेत्र में बिक्री सही लगी क्योंकि वहां उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से अच्छी कीमत मिल रही थी। यही कारण है कि रबी विपणन वर्ष 2022-23 के दौरान गेहूं की सरकारी खरीद में तकरीबन 60 फीसदी की कमी आई। इसलिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 और प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत गेहूं के आवंटन में 117 लाख टन की कमी कर उसके बदले चावल का आवंटन किया जा रहा है ।
पूर्व कृषि सचिव सिराज हुसैन कहते हैं, ‘कम बारिश की वजह से उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में धान के उत्पादन में बड़ी कमी आ सकती है, लेकिन बिहार और पश्चिम बंगाल से केंद्रीय पूल के लिए ज्यादा खरीद नहीं होती। फिलहाल चावल का जितना बफर स्टॉक होना चाहिए, उससे तीन गुना ज्यादा है। गेहूं का स्टॉक वाकई कम है और सरकार ने इसका आवंटन भी घटाया है ताकि गेहूं को खुले बाजार में बेचने की गुंजाइश आगे भी बनी रहे। गेहूं का भाव पिछले साल के मुकाबले 20 फीसदी भी बढ़ा तो इसके आयात लगने वाला 40 फीसदी शुल्क घटाकर 10 फीसदी या 5 फीसदी किया जा सकता है अथवा खत्म भी किया जा सकता है।’
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1 जुलाई को देश में 477 लाख टन चावल (मिलों के पास पड़े तकरीबन 231.51 लाख टन बिना कुटे धान यानी तकरीबन 160 लाख टन चावल मिलाकर) का स्टॉक था, जो मानक बफर स्टॉक यानी 135.40 लाख टन से बहुत ज्यादा है। 31 जुलाई तक 589.78 लाख टन चावल की खरीद की गई और इस वित्त वर्ष की शुरुआत में पिछले साल का 323 लाख टन चावल बचा हुआ था। सरकार की लोक कल्याणकारी योजनाओं के लिए 2022-23 में कुल 582 लाख टन चावल (गेहूं के बदले आने वाले117 लाख टन अतिरिक्त चावल को मिलाकर) आवंटित किया जाना है।
नैशनल कमोडिटी मैनेजमेंट सर्विसेज लिमिटेड (एनसीएमएल) के चेयरमैन सिराज चौधरी के मुताबिक चावल की बोआई पर चिंता की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि सरकार के पास अब भी इसका पर्याप्त स्टॉक है। धान की बोआई पर चिंता भी गेहूं के स्टॉक में कमी के कारण ही बढ़ी है और चावल की कीमतों में तेजी की भी यही वजह है।
वैश्विक आपूर्ति के नजरिये से भी भारत में धान की बोआई मायने रखती है क्योंकि बोआई कम रही तो उत्पादन में कमी की आशंका बढ़ जाएगी। ऐसे में घरेलू आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार गेहूं और चीनी की तर्ज पर चावल का निर्यात भी रोक सकती है। इससे वैश्विक आपूर्ति में काफी कमी आएगी, जिसका फायदा उठाकर वियतनाम, थाईलैंड, पाकिस्तान जैसे देश चावल की कीमतें बढ़ा सकते हैं। इससे गरीब अफ्रीकी देशों का आयात बिल काफी बढ़ जाएगा, जो चावल के लिए भारत पर निर्भर रहते हैं।
कपास
मौजूदा सीजन (अक्टूबर-सितंबर) के दौरान कपास के उत्पादन में रिकॉर्ड कमी दर्ज की गई। इसकी वजह बीते साल ठीक फसल की तुड़ाई शुरू होने के समय (अक्टूबर) अत्यधिक बारिश होना रहा। उत्पादन में कमी के कारण इस वर्ष की शुरुआत (मार्च -अप्रैल) में कपास की घरेलू कीमतें बढ़कर 12,000 रुपये प्रति क्विंटल के पार चली गईं। उसके बाद इनमें कमी आई है मगर अब भी देसी बाजार में कपास 9,000 रुपये प्रति क्विंटल चल रहा है। मीडियम स्टेपल कपास पर एमएसपी 6,080 रुपये प्रति क्विंटल है। किसानों को इस सीजन में कपास के लिए बेहतर कीमत मिली, जिससे उत्साहित होकर इस बार किसान ज्यादा रकबे में बोआई कर रहे हैं। 5 अगस्त तक के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक देश भर में कपास की बोआई पिछले साल 5 अगस्त के मुकाबले 6 फीसदी से ज्यादा है। अगर बोआई में और इजाफा होता है तो आने वाले दिनों में घरेलू तथा वैश्विक बाजारों में कीमतें और घट सकती हैं।
सोयाबीन
सोयाबीन की बोआई में भी अच्छी खबर आ रही है। 5 अगस्त तक के बोआई आंकड़ों के मुताबिक पिछले वर्ष की समान अवधि के मुकाबले सोयाबीन के रकबे में 2 फीसदी से ज्यादा की बढ़त आई है। अगर बोआई और बढ़ती है तो आने वाले दिनों खासकर सितंबर के अंत तथा अक्टूबर में मंडियों में नई फसल की आवक शुरू होने से कीमतें और गिर जाएंगी। फिलहाल सोयाबीन का भाव 6,000 रुपये प्रति क्विंटल से ज्यादा है, जबकि इसका एमएसपी 4,300 रुपये प्रति क्विंटल ही है।
सोयाबीन की पैदावार अच्छी रहती है तो वैश्विक स्तर पर खाद्य तेल खासकर पाम ऑयल की कीमतों में नरमी आएगी क्योंकि भारत अपनी कुल जरूरत का तकरीबन 60 फीसदी खाद्य तेल आयात करता है। देश में खाद्य तेल के भाव अब भी काफी ऊंचे हैं और चंद महीने पहले तो भाव आसमान छू रहे थे। इसकी वजह आयात पर भारत की निर्भरता है और वैश्विक स्तर पर कीमतें बढ़ीं तो यहां के बाजार पर आंच जरूर आएगी। मगर दूसरी बड़ी खरीफ तिलहनी फसल मूंगफली के रकबे में 5 अगस्त तक 7.43 फीसदी की कमी आई है।
दलहन
जहां तक दलहनी फसलों का प्रश्न है इनकी कुल बोआई भी 2.5 फीसदी पीछे चल रही है, लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण दलहनी फसल अरहर या तुअर की बोआई दूसरी दलहनी फसलों की तुलना में ज्यादा पीछे है। 5 अगस्त तक के आंकड़ों के मुताबिक देश में अरहर के रकबे में पिछले साल 5 अगस्त तक के मुकाबले 10 फीसदी से ज्यादा की कमी आई है। उड़द की बोआई भी 6 फीसदी कम है, लेकिन मूंग की बोआई में 2.5 फीसदी का इजाफा हुआ है। अरहर की बोआई में ज्यादा कमी आई तो म्यांमार, तंजानिया, मोजांबिक और मलावी जैसे चुनिंदा आपूर्तिकर्ता देशों में इसकी कीमतें बढेंगी।
आयात पर पिछले एक साल में लगातार ढील देने से ज्यादातर दलहनी फसलों (मसूर को छोड़कर) की कीमतें पिछले कुछ महीनों से 6,600 रुपये प्रति क्विंटल के एमएसपी से नीचे या उसके आसपास चल रही हैं। दूसरी ओर कपास, सोयाबीन जैसी नकदी फसलों की कीमतें एमएसपी से ऊपर ही चल रही हैं। सीजन के दौरान एक समय तो एमएसपी से बहुत अधिक छलांग मार गई थीं। इस वजह से इस बोआई सीजन में किसानों का झुकाव कपास और सोयाबीन की तरफ बढ़ा है। बोआई के आंकड़े भी इसकी पुष्टि करते हैं। अगर दलहन के रकबे में और कमी आई तो वैश्विक स्तर पर कीमतें तेजी से बढ़ेंगी। इससे एक बार फिर 2017 और 2018 जैसी स्थिति पैदा हो सकती है, जब देश में दलहनों की कीमत आसमान छू रही थीं।