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धारावी के चमड़ा उद्योग को सता रहा पहचान खोने का डर

एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती धारावी इस समय अपने पुनर्विकास परियोजना के कारण सुर्खियों में हैं

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सुशील मिश्र   
Last Updated- February 09, 2025 | 9:58 PM IST

अगर आप किसी नामी ब्रांड का बैग या पर्स लेकर चल रहे हैं या उसकी जैकेट पहने हैं तो बहुत मुमकिन है कि वह धारावी से बनकर आया हो। जो धारावी एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती होने का दाग ढोती है, चमड़े का यह शानदार सामान उसी की तंग और बदहाल गलियों की पहचान है। कई परिवार तो यहां पीढ़ियों से चमड़े और पॉटरी की इकाइयां चला रहे हैं। लेकिन धारावी के पुनर्विकास की बात सुर्खियों में आने के बाद उन्हें कारोबार बिखरने का डर सता रहा है। इसकी शुरुआत हो भी चुकी है क्योंकि यहां से कारखाने भिवंडी, गोवंडी, कुर्ला और मदनपुरा जैसे इलाकों में जाने लगे हैं।

देश-विदेश में धूम

मुंबई के बीचोबीच बसी धारावी में चमड़े और पॉटरी ही नहीं दवाओं, जूतों और कपड़ों ते भी कई कारखाने हैं। बेशक यहां का उद्योग असंगठित है मगर हजारों लोगों को रोजगार देता है और यहां बने चमड़े के उत्पाद दुनिया भर के बाजारों को निर्यात किए जाते हैं। धारावी लेदर एसोसिएशन कहती है कि यहां चमड़े का सामान बनाने वाले ही 15,000 से ज्यादा कारखाने हैं और उनमें सालाना 100 करोड़ डॉलर से ज्यादा का माल बनता है। इसमें से करीब 65 करोड़ डॉलर का सामान विदेश चला जाता है। यहां तमाम ब्रांड की नकल तो बनती ही है, उद्यमी बताते हैं कि कई महंगे विदेशी ब्रांड भी ठेके पर अपने उत्पाद यहीं तैयार कराते हैं और लगभग सभी बड़े ब्रांडों के लिए चमड़े के जूते, जैकेट, बैग, वॉलेट वगैरह यहां तैयार होते हैं।

कारोबारी लिहाज से इतने फलते-फूलते इलाके का पुनर्विकास होना अच्छी बात है मगर उद्यमी और कारीगर कारोबार बिखरने और पहचान चले जाने के डर से जूझ रहे हैं। धारावी लेदर एसोसिएशन की सदस्य और केपी इंडस्ट्रीज की निदेशक पद्मजा राजगुरु कहती हैं कि पुनर्विकास से इलाका आधुनिक हो जाएगा मगर इस दौरान कई परिवारों और कारीगरों का विस्थापन हो सकता है, जिससे उद्योग का ताना-बाना बिखर जाएगा। ऊंचे किराये और बढ़े खर्च के कारण छोटे कारोबारियों और कारीगरों के लिए कहीं और काम जमाना मुश्किल होगा। साथ ही धारावी के चमड़ा उद्योग की पहचान रही हाथ की कारीगरी भी गुम हो जाएगी।

छोटे उद्यमियों को खटका

कारीगरों में यहां बिहार के लोगों का बोलबाला है। बिहार फाउंडेशन के संस्थापक सदस्य अहसान हुसैन कहते हैं कि गंदगी में रहना कोई नहीं चाहता, लेकिन पीढ़ियों से यहां काम कर रहे लोगों ने अपनी मेहनत के बदल पर धारावी को कुटीर उद्योगों का गढ़ बनाया है। पिछले कुछ साल से उद्योग यहां से बिहार जैसे राज्यों की तरफ खिसकने लगा है मगर छोटे कारोबारी दो ठिकाने नहीं बना सकते। ये छोटे कारोबारी ही आज चमड़ा उद्योग की रीढ़ हैं, जिन्हें पुनर्विकास बिखेर सकता है।

धारावी के पुनर्विकास का ठेका जिस कंपनी को मिला, उसमें अदाणी समूह की 80 फीसदी हिस्सेदारी है। कंपनी का नाम बदलकर नवभारत मेगा डेवलपर्स कर दिया गया है। मोहम्मद आबिद शेख बताते हैं कि पुनर्विकास के लिए सर्वेक्षण करने आए कंपनी के लोग यह नहीं बताते कि कारखाने के लिए जगह कहां दी जाएगी, इसलिए शुबहा होता है। बॉम्बे बेल्ट के नाम से कारखाना चला रहे मोहम्मद सैदुल्ला के लिए धारावी से दूर जाने का मतलब काम खत्म हो जाना है। वह कहते हैं कि बडी पूंजी वाले तो काम दोबारा खड़ा कर लेंगे मगर छोटी पूंजी वाले खत्म हो जाएंगे। धारावी के ज्यादातर चमड़ा कारखानों में नीचे के तल पर लोग रहते हैं और ऊपर दो-तीन मंजिलों में माल बनता है। इस तरह कुल मिलाकर 1,000 वर्ग फुट से ज्यादा जगह होती है मगर पुनर्विकास के बाद कितनी जगह मिलेगी यह किसी को नहीं पता।

किंतु कुछ युवा उद्यमियों के पास दिलचस्प समाधान हैं। इंजीनियरिंग करने के बाद चमड़े का अपना पुश्तैनी कारखाना संभाल रहे फैज कहते हैं, ‘धारावी में अब तैयार चमड़े और आर्टिफिशल चमड़े का माल ही बनता है और दोनों तरह का चमड़ा, कोलकाता, कानपुर तथा विदेश से आता है। रेडीमेड चमड़ा कपड़े जैसा होता है और इससे प्रदूषण नहीं फैलता। इसीलिए इसका काम रिहायशी इलाकों में भी किया जा सकता है। इसलिए धारावी के उद्योग धंधों को यहीं जगह दी जा सकती है। यहां कई इलाकों में ऊंची इमारतें बन सकती हैं, जहां तीन-चार मंजिल के व्यावसायिक ठिकाने बनाकर धारावी का उद्योग बचाया जा सकता है।’

इधर लतीफ अहमद जैसे कई कारोबारी उत्साहित भी हैं। वह कहते हैं कि 30-35 साल से पुनर्विकास की बात हो रही है और सर्वेक्षण भी होता रहा है मगर इस बार लगता है कि धारावी चमक जाएगी। कारोबारियों में पसरे डर की बात छेड़ने पर वह कहते हैं कि हर राजनीतिक पार्टी अपने-अपने हिसाब से कुछ न कुछ कह रही है, सरकार भी जानकारी दे रही है मगर लिखित में कुछ नहीं है, जिसके कारण डर लगता है।

बदल रहा चमड़ा कारोबार

धारावी में चमड़े के कारोबार की शक्ल बदल चुकी है। प्रदूषण के नियम सख्त होने से कच्चे चमड़े का काम नहीं के बराबर बचा है। भारतीय फुटवियर कम्पोनेंट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष संजय गुप्ता कहते हैं कि दुनिया भर में पर्यावरण के अनुकूल और क्रूरता से मुक्त सामान की मांग बढ़ी है, जिसका असर धारावी पर भी पड़ा है। महाराष्ट्र में कुछ जानवरों के वध पर रोक लगने से भी कच्चा माल नहीं मिलता। इससे उत्पादन लागत बढ़ गई है और मुनाफा भी घटा है।

चमड़े के माल के उत्पादन और निर्यात में महाराष्ट्र आठवें स्थान पर है। इस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए सरकार लेदर पार्क तैयार कर रही है। रायगड़ जिले के रतवाड़ में 151 एकड़ क्षेत्र में मेगा लेदर फुटवियर एवं एक्सेसरीज क्लस्टर पार्क बनाया जा रहा है। मुंबई के देवनार में भी लेदर पार्क बनना है, जिसकी 17 मंजिलों में से एक मंजिल पर लेदर मॉल भी होगा। इस पर लगभग 183 करोड़ रुपये खर्च होने हैं और धारावी के करीब 150 कारखाने यहां बस सकते हैं।

सरकार का सबको घर का दावा

कारोबारी आशंका जता रहे हैं मगर प्रशासन सर्वेक्षण पूरा करने में जुटा है। धारावी पुनर्विकास परियोजना/ झुग्गी पुनर्वास प्राधिकरण के मुख्य कार्यपालक अधिकारी (सीईओ) एस वी आर श्रीनिवास ने कहा, ‘धारावी के लोग सर्वे में पूरा साथ दे रहे हैं। लोगों को हम यकीन दिला रहे हैं कि पुनर्विकास में कोई भी बेघर नहीं होगा और हर झुग्गी मालिक को अपना घर मिलेगा।’

धारावी पुनर्विकास परियोजना के निविदा दस्तावेज के मुताबिक धारावी में 350 वर्ग फुट का मकान उन्हें ही मिलेगा, जिनके भूतल पर मकान 1 जनवरी 2000 या उससे पहले से हैं। 1 जनवरी, 2000 से 1 जनवरी 2011 के बीच जिन लोगों ने जमीन पर मकान बनवाए, उन्हें 2.5 लाख रुपये देने होंगे और प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत धारावी के बाहर 300 वर्ग फुट के मकान मिल जाएंगे। ऊपरी मंजिल पर मकान बनवाने वालों और 1 जनवरी, 2022 के बाद मकान बनवाने वालों को धारावी में मकान नहीं मिलेगा। उन्हें धारावी के बाहर 300 वर्ग फुट का मकान किराये पर दिया जाएगा।

दस्तावेज यह भी कहता है कि 1 जनवरी, 2000 या उससे पहले भूतल पर बने प्रदूषण मुक्त एवं पात्र वाणिज्यिक तथा औद्योगिक ढांचों को धारावी में 225 वर्ग फुट तक जगह मुफ्त दी जाएगी और उससे ज्यादा जगह चाहिए तो टेलीस्कोपिक रिडक्शन विधि से निर्माण का खर्च उनसे लिया जाएगा। चमड़े का सामान, परिधान, खाद्य प्रसंस्करण और आर्टिफिशल गहनों की इकाइयां धारावी के भीतर नए सिरे से बसाई जाएंगी।

बिहार की मेहनत और हुनर से चमकता कारोबार

धारावी झुग्गी में चमड़ा उद्योग की शुरुआत 1920 के दशक में हुई, जब तमिलनाडु से आए लोगों ने यहां चमड़े के कारखाने लगाए। बाद में देश के दूसरे हिस्सों से आए प्रवासी भी इस व्यापार में दाखिल हो गए। मगर आज यहां हर गली और कारखाने में आपको बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की छाप दिख जाएगी। तैयार चमड़े का माल बनाने वाले 90 फीसदी कारीगर इन दो प्रदेशों से ही हैं और पीढ़ियों से जूते, बेल्ट, पर्स, जैकेट आदि बना रहे हैं।

धारावी में चमड़ा उद्योग की बुनियाद असल में ब्रिटिश सेना और प्रशासन को जूते, पट्टियां और चमड़े का दूसरा सामान मुहैया कराने के लिए डाली गई थी। उस दौरान यह मलिन बस्ती कहलाती थी मगर चमड़े के सामान की मांग बढ़ने के कारण यहां के चमड़ उद्योग का कारोबार दिन दूना रात चौगुना बढ़ता रहा। यह देखकर देश के तकरीबन हर हिस्से से लोग चमड़ा उद्योग में काम करने मुंबई चले आए। समय के साथ यहां परिवार द्वारा चलाई जा रहीं छोटी चमड़ा इकाइयों का बोलबाला हो गया।

यहां कच्चा चमड़ा भी इस्तेमाल होता था और तैयार चमड़ा भी मगर सरकारी योजनाओं और प्रदूषण के सख्त मानकों के कारण कच्चे चमड़े का काम बहुत कम हो गया है। कच्चे चमड़े के कारोबार में आज भी दक्षिण भारतीय लोगों का दबदबा है और तैयार चमड़े के उत्पादों का कारोबार उत्तर भारतीयों के कब्जे में है। यहां नामी कंपनियों के उत्पाद तो तैयार होते ही हैं ब्रांडों की नकल भी खूब बनाई जाती है। यहां हर कंपनी का डुप्लीकेट सामान मिल जाता है और असली ब्रांड के उत्पाद से करीब 80 फीसदी तक सस्ता होता है।

चुनौती बना सस्ता नकली चमड़ा

बाजार में आज फॉ लेदर या नकली चमड़े का ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है, जो कुदरती चमड़े से बहुत सस्ता होता है। इसे पेट्रोलियम से निकलने वाली पॉलियूरेथेन (पीयू) या पॉलिविनाइल क्लोराइड (पीवीसी) से बनाया जाता है। इसे बनाने में जहरीले पदार्थों का इस्तेमाल होने के कारण पर्यावरण को बहुत नुकसान होता है। यह जानवरों के चमड़े के मुकाबले बहुत जल्दी खराब भी हो जाता है। प्राकृतिक चमड़ा खुद ही खत्म हो जाता है और फॉ लेदर से ज्यादा आसानी से रीसाइकल हो सकता है। बेहतरीन असली चमड़ दशकों तक चल सकता है।

केपी इंडस्ट्रीज की पद्मजा राजगुरु कहते हैं कि दोनों बिकते हैं। तय ग्राहक को करना होता है कि पर्यावरण की चिंता करनी है या बजट की। लेकिन नकली चमड़ा आज पर्यावरण के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन गया है क्योंकि मुंबई में इसकी रीसाइक्लिंग के लिए कोई कारखाना ही नहीं है। इसका ज्यादातर आयात चीन से होता है और तोहफों के लिए इससे बने सामान का खूब इस्तेमाल होता है क्योंकि असली चमड़े के उत्पादों से ये करीब 80 फीसदी सस्ते पड़ते हैं।

 

 

First Published : February 9, 2025 | 9:58 PM IST