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जनसंख्या नियंत्रण मसौदे की खामियों की ओर इशारा करता भदोही

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 12, 2022 | 2:36 AM IST

विश्व जनसंख्या दिवस पर 11 जुलाई को उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग ने देश के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य में दो बच्चों के परिवारों को बढ़ावा देने के लिए उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण एवं कल्याण) विधेयक, 2021 का मसौदा जारी किया। इसमें कई तरह से प्रोत्साहन देने और कई लाभों से वंचित होने का जिक्र है। दो बच्चों के नियमों का उल्लंघन करने वालों को स्थानीय निकाय चुनाव लडऩे, सरकारी नौकरियों में आवेदन करने या कोई सरकारी सब्सिडी लेने से रोक दिया जाएगा। वहीं गरीबी रेखा से नीचे वाला जोड़ा जो स्वेच्छा से अपने दूसरे बच्चे के बाद नसबंदी कराएगा उसे कुछ नकदी लाभ भी होगा।

19 जुलाई, 2021 तक विधेयक के इस मसौदे पर टिप्पणी/संशोधन के सुझाव दिए जा सकते हैं। हालांकि इस मसौदे की आलोचना विपक्षी दल पहले ही जमकर कर चुके हैं और उनके मुताबिक इसे राजनीतिक एजेंडे के तहत लाया गया है। ग्रामीण उत्तर प्रदेश में काम करने वाले जनसांख्यिकीविद् और एजेंसियों के मुताबिक राज्य में प्रति हजार आबादी पर 2.7 प्रजनन वृद्धि दर को कम करने की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता। विधेयक के मसौदे में 2026 तक प्रजनन दर घटाकर 2.1 और 2030 तक इसे 1.9 करने का प्रस्ताव है। हालांकि जनसांख्यिकीविद् और गैर सरकारी संगठन राज्य में ज्यादा बच्चों वाले परिवारों के खिलाफ  दंडात्मक उपायों को लागू करने के साथ-साथ जमीनी स्तर पर ग्रामीण चिकित्सा बुनियादी ढांचे की कमी और प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं तक महिलाओं की पहुंच न होने का भी जिक्र करते हैं। 

बिज़नेस स्टैंडर्ड ने इसका अंदाजा लगाने के लिए राज्य के कम विकसित भदोही जिले के कुछ इलाकों का दौरा किया। इस क्षेत्र में खाद्य एवं आर्थिक सुरक्षा पर काम करने वाले कानपुर के एक गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) श्रमिक भारती की पुष्पलता मौर्य बताती हैं, ‘यहां परिवार इस डर की वजह से ज्यादा बच्चों का विकल्प चुनते हैं कि शायद वे सब जिंदा न रह पाएं।’ नमूना पंजीकरण प्रणाली (एसआरएस) सर्वेक्षण 2018 के अनुसार, उत्तर प्रदेश में प्रत्येक 1,000 जन्म पर शिशु मृत्यु दर (ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 44) 41 है जबकि राष्ट्रीय आंकड़ा 32 है।

मौर्य भदोही की आठ बस्तियों के समूह वाले गांवों जमुनीपुर अठगांव को देखती हैं। उनका कहना है, ‘इसकी एक बस्ती बीजापुर में एक भी शौचालय नहीं है। ग्रामीण लोगों को कुएं से दूषित पानी निकालकर पीना पड़ता है जिसे पीने से पहले कीड़े भी निकालने पड़ते हैं।’ संस्थागत प्रसव और टीके से जुड़ी जरूरतों का काम स्थानीय आशा (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्यकर्मी) कार्यकर्ता और आंगनबाड़ी कर्मी ही कर लेती हैं लेकिन महामारी की वजह से पूरा ध्यान ही दूसरी तरफ  केंद्र्रित हो गया है। 

आशा कार्यकर्ता अनीता देवी कहती हैं, ‘यहां बच्चे अक्सर बीमार पड़ जाते हैं। हम यहां की महिलाओं को छोटा परिवार होने के फायदे के बारे में बताते हैं लेकिन यहां जीवन की अनिश्चितता को देखते हुए वे हमारी बात नहीं सुनती हैं।’ औसतन यहां की ज्यादातर महिलाएं सीमांत किसान या खेतिहर मजदूर हैं जिनके कम से कम चार बच्चे हैं। पिछले महीने ही जुड़वा बच्चों को जन्म देने वाली स्थानीय मैना देवी कहती हैं, ‘इतने सारे लोगों को खिलाना मुश्किल है लेकिन हम ऐसा इस वजह से करते हैं क्योंकि इनमें से कुछ लंबे समय तक नहीं जीवित रहेंगे।’ अब उनके कुल चार बच्चे हैं। मौर्य कहती हैं, ‘जब तक बीजापुर जैसे गांवों में स्वास्थ्य और स्वच्छता की स्थिति बेहतर नहीं होगी तब तक लोगों में यह आत्मविश्वास नहीं आएगा कि उनके बच्चे जिंदा भी रह सकते हैं और अधिकारियों के लिए दो बच्चे का नियम लागू करना मुश्किल होगा।’ भदोही जिले में बीजापुर से खमरिया ज्यादा दूर नहीं है और यहां शर्मीली स्वभाव की नजमा बेगम का दूसरा बच्चा होने वाला है। उनका पहला बच्चा अभी एक साल का भी नहीं है। नजमा अकेली नहीं हैं। एसआरएस 2018 के अनुसार, उत्तर प्रदेश में पहले बच्चे के जन्म के 10-12 महीने के भीतर दूसरे बच्चे के जन्म की दर 1.4 फीसदी है जबकि अखिल भारतीय आंकड़ा 1.6 है। दो बच्चों के बीच ज्यादा अंतर न होना, जानकारी न मिलने और गर्भनिरोधक तक पहुंच की कमी की ओर इशारा करता है और नजमा बेगम की इस बात से भी इसकी पुष्टि होती है जब वह कहती हैं, ‘मैं अपने घर से बाहर अकेले नहीं जाती हूं। अगर मैं गर्भनिरोधक का इस्तेमाल भी करना चाहूं तो मैं यह नहीं जानती कि यह कहां से मिलेगा और इसका इस्तेमाल कैसे करना है।’ पॉप्युलेशन फाउंडेशन ऑफ  इंडिया (पीएफ आई) और प्रतिज्ञा अभियान देश में महिलाओं की प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं तक बेहतर पहुंच की वकालत कर रहे हैं जिससे स्वत: ही महिलाएं कम बच्चे पैदा करना चाहेंगी। पीएफ आई प्रजनन दरों को रोकने के लिए महिला साक्षरता को भी बढ़ाने की वकालत कर रहा है।

एसआरएस 2018 के डेटा से पता चलता है कि महिलाओं की साक्षरता दर बढऩे से उनकी कुल प्रजनन दर या एक महिला से पैदा होने वाले कुल बच्चों की संख्या (टीएफआर) कम हो जाती है। उदाहरण के लिए, केरल और हिमाचल प्रदेश में महिलाओं की साक्षरता दर क्रमश: 99.5 और 98.8 प्रतिशत है जबकि टीएफ आर की दर 1.7 और 1.6 है। इसके विपरीत, बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में महिला साक्षरता दर क्रमश: 76.5, 77.4 और 79.7 प्रतिशत और 3.2, 2.5 और 2.7 टीएफ आर है।

19 जुलाई को इस पर जारी बहस का विकल्प खत्म हो जाएगा और कई लोगों को इस बात की चिंता है कि राजस्थान, ओडिशा और हरियाणा सहित 12 भारतीय राज्यों के प्रदर्शन को देखते हुए उत्तर प्रदेश का मसौदा विधेयक ज्यादा कुछ हासिल नहीं कर सकता क्योंकि इन जगहों पर सरकारी नौकरियों, सब्सिडी, योजनाओं आदि लाभ को छोड़कर समान नियम हैं। पीएफआई की कार्यकारी निदेशक पूनम मुत्तरेजा कहती हैं, ‘राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दो बच्चों की नीतियां प्रजनन दर को कम करने में कारगर साबित नहीं हुई हैं। इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि जनसंख्या नियंत्रण के उपायों से बेटियों के बजाय बेटे को चुनने और असुरक्षित गर्भपात में बढ़ोतरी जैसे नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं।’ केरल और तमिलनाडु ने बिना किसी बाध्यकारी तरीकों के प्रजनन दर में कमी की है और यह महिलाओं को सशक्त बनाकर, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं देकर मुमकिन हुआ है। मुत्तरेजा कहती हैं, ‘उत्तर प्रदेश को उनसे सीखना होगा।’

First Published : July 19, 2021 | 11:40 PM IST