जर्जर, पुरानी और अब गिरीं-तब गिरीं जैसी इमारतों की जगह आलीशान बिल्डिंग, टपकती छत वाले कमरों के बदले चमचमाते फ्लैट, इधर-उधर गली कूचों में दुबकी दुकानों की जगह बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल।
इसके अलावा दुनिया के बड़े बिजनेस हब में शुमार होने का सपना और इस सपने को साकार करने वाली डेवलपर कंपनी में हिस्सेदारी। योजना बेशक बेहद ललचाने वाली है लेकिन इसके बावजूद इस सपने को हकीकत में तब्दील होने की गुंजाइश बनती नहीं दिख रही है।
कानूनी बाधाओं, कारोबारियों की आपसी उठापटक और बिल्डरों पर भरोसे की कमी के चलते इस ड्रीम प्रोजेक्ट के खटाई में पड़ने के संकेत साफ दिखाई देने लगे हैं। जी हां, पिछले 2-3 सालों से दक्षिण मुंबई के कारोबारी गढ यानी कि बहुचर्चित सी-वार्ड इलाके के रीडेवलपमेंट यानी पुनर्विकास योजना की बात कर रहे हैं। हाल ही में सरकार ने कुछ कानूनी प्रावधानों में बदलाव करके एक नई बहस को छेड दिया है।
दक्षिण मुंबई के पुराने, खस्ता हाल लेकिन महंगे सी-वार्ड इलाके के कुछ कारोबारियों और कई गैर सरकारी संस्थाओं ने मिलकर रीमेकिंग ऑफ मुंबई फेडरेशन (आरओएमएफ) नामक संस्था बनाई थी। संस्था ने सी-वार्ड के विकास की एक योजना बनाई, जिसमें वहां के निवासियों और कारोबारियों को शामिल करने की बात कही गई।
योजना के तहत मोटे तौर पर अनुमान लगाया गया कि इस क्षेत्र के कायापलट में लगभग 25-30 हजार करोड़ रुपये की आवश्यकता पड़ेगी। इसके तहत यहां रहने वाले किरायेदारों को मुफ्त में उनके फ्लैट के बराबर का फ्लैट दिया जाना है और मकान मालिकों को योजना से हुए मुनाफे में 10 फीसदी की हिस्सेदारी मिलनी है। इसी के साथ सरकार को भी इससे फायदा यह होगा कि उसे इस क्षेत्र के विकास से लगभग 1500 करोड़ रुपये और 5000 निर्मित फ्लैट मिलेंगे जिन्हें सरकार गरीबों को मुफ्त में या छूट के साथ दे सकती है। योजना कागज पर तो आकर्षक है लेकिन अमल में लाना उतना ही पेचीदा है।
सबसे बड़ी और पहली पेचीदगी सरकारी कानून में ही है। इसके तहत सीआरजेड-दो, डीसी रुल के नियम 33(9) और 33(7) जैसे कानून इस इलाके के कायापलट में बड़ी रुकावट हैं। सीआरजेड-दो के तहत समुद्र तट से 500 मीटर तक कोई नया निर्माण नहीं किया जा सकता है। इस इलाके के लगभग 30 फीसदी हिस्से में सीआरजेड कानून लागू होता है।
लिहाजा सीआरजेड कानून के रहते यहां किसी भी तरह का काम नहीं किया जा सकता है, बाकी बचे 70 फीसदी के जिस इलाके में सीआरजेड कानून लागू नहीं होता है वहां रीडेवलपमेंट का रास्ता तो साफ हुआ है लेकिन अलग अलग पक्षों द्वारा उठाए गए मामलों ने इस रीडेवलपमेंट के खिलाफ कई सारे सवाल जरूर खड़े कर दिए हैं।
सीआरजेड-दो के तहत सी वार्ड की 685 इमारतें आती हैं जिनमें लगभग 40,000 लोग रहते हैं, जबकि डी वार्ड की 425 इमारतें इस कानून के दायरें में आती हैं, जिनमें लगभग 22,000 लोग रहते हैं। पूरे सी वार्ड की कुल जनसंख्या लगभग एक लाख के आसपास है यहां 5 से 6 लाख लोग कारोबार करते हैं। 212 एकड़ क्षेत्रफल में फैले इस इलाके में कुल 2202 इमारतें हैं। इनमें से 1777 पुरानी और जर्जर इमारतें हैं।
बड़े भवन निर्माताओं के अनुसार विकास में दूसरा रोड़ा हाल ही में महाराष्ट्र सरकार द्वारा संशोधित डीसीआर 33(9) का प्रावधान है। इसकेतहत न्यूनतम एक एकड़ क्षेत्र केक्लस्टर में 70 फीसदी प्रॉपर्टी मालिक और 70 फीसदी किराएदार जब तक इस विकास के लिए तैयार नहीं होते तब तक इसका विकास नहीं किया जा सकता। यहां पर रहने वाले लोगों में ज्यादातर किरायेदार हैं, जो 50-60 सालों से किराये पर रह रहे हैं। इसलिए यहां पर किसी भी विकास कार्य के लिए किरायेदारों की सहमति जरूरी है।
मकान मालिक और किरायेदारों के बीच विवाद यहां पर अपने-अपने हक को लेकर काफी पुराना है। सरकारी योजना के तहत यहां रहने वाले किरायेदारों को मकान मालिक निकाल नहीं सकते हैं, लेकिन यदि ये फ्लैट बेचते हैं तो उसकी 30 फीसदी कीमत मकान मालिक को देनी होगी। रीमेकिंग मुंबई की योजना के अंतर्गत, नए फ्लैटों में जितने एरिया में किरायेदार रहते हैं उनको उतना एरिया दिया जाएगा और पूरे प्रोजेक्ट में यहां के जमीन मालिकों को 10 फीसदी की हिस्सेदारी मिलेगी।
सरकारी कानून के बाद यहां लाखों करोड़ों रुपये का कारोबार करने वाले कारोबारियों में कई तरह के सवाल खड़े हैं। उनका कहना है कि पहला तो कोई स्पष्ट नीति समझ में नहीं आ रही है और दूसरी बात यह कि यह इलाका कोई छोटा सा गांव नहीं है जिसे एक साथ विकसित कर दिया जाए, निर्माण की बात करने वालों को पहले कोई एक इमारत बनानी होगी जिसको देखकर अंदाजा लगाया जा सके कि काम किस स्तर का होगा।
दूसरी बात यह है कि हमारे कारोबार का क्या होगा? स्थानीय लोग भी अधिकतर कारोबारियों के सुर में सुर मिला रहे हैं। तंग गलियों और जर्जर इमारतों के बावजूद यहां हर दिन अरबों रुपये का कारोबार किया जाता है। इस क्षेत्र में मुंबई का नाम देने वाली मुंबा देवी का मंदिर और कारोबारी गलियारों की पहचान बताने वाली कालबा देवी का मंदिर है।
यहां एशिया का सबसे बड़ा कपड़ा बाजार और देश की सबसे बड़ी सोने-चांदी की मंडी झवेरी बाजार भी है। इसके अलावा यहां दुनिया में भारतीय हीरे की चमक बताने वाला ओपेरा हाउस के अलावा दागीना बाजार, मेटल मार्केट, स्टेशनरी मार्केट, बैग, कॉर्ड, छाता, स्टील बर्तन, फूल और गिफ्ट के थोक एवं खुदरा व्यवसाय जैसे बड़े बाजार यहां की पहचान हैं। सी वार्ड लगभग पूरे देश में जनसंख्या एवं कारोबार के लिहाज से सबसे ज्यादा घनत्व वाला इलाका है।
33 (9) का दांव
इस नियम के तहत पहले विकास केलिए चुनी इमारतों के भूखंड का क्षेत्र कम से कम 400 एकड़ होना जरूरी था जिसे घटा कर अब एक एकड़ कर दिया गया है। यानी एक एकड़ के भूखंड में अब विकास कार्य किया जा सकता है।
विकास के किरायेदार के साथ मकान मालिक की 70 फीसदी सहमति अनिवार्य होगी। इसके तहत बनने वाले इमारतों में किरायेदारों को कम से कम 300 वर्ग फुट का फ्लैट देना पड़ेगा। विकास के लिए 4 एफएसआई दी जाएगी और कुल क्षेत्र का 50 फीसदी हिस्सा नागरिक सुविधाओं के लिए छोड़ना होगा।
सीआरजेड का पेंच
वर्ष 1991 में सीआरजेड कानून केंद्र सरकार द्वारा अमल में लाया गया। इस कानून को तीन भागों में वर्गीकृत किया गया – सीआरजेड-एक, सीआरजेड-दो और सीआरजेड-तीन।
सीआरजेड – एक : इसके तहत समुद्री स्थल से मैदानी इलाके तक 200 मीटर तक का किसी भी तरह के निर्माण कार्य पर कानूनी बंदिशें हैं।
सीआरजेड – दो : यह सुमद्र तट से 500 मीटर की दूरी तक लागू होता है। यानी सीआरजेड – एक के आगे 300 मीटर तक। इस क्षेत्र में कोई नया निर्माण कार्य नहीं किया जा सकता है।
खुद बनाएंगे आशियाना
सी और डी वार्ड में अहम किरदार की भूमिका निभाने वाले व्यापारी वर्ग ने भी अब इस इलाके के होने वाले विकास पर अपने पत्ते खोल दिये हैं। पिछले दो साल तक साफ तौर पर कुछ न कहने वाले व्यापारियों ने डीसीआर 33(9) में बदलाव के बाद पहली बार अपनी राय स्पष्ट की है।
कारोबारियों के अनुसार इस इलाके के विकास का कार्य किसी एक संस्था को न देकर बिल्डिंग में रहने वाले किरायेदारों और मकान मालिकों को दिया जाना चाहिए। इस इलाके की 34 कारोबारी संस्थाओं ने मिलकर प्रोटेक्शन ऑफ रेसीडेंट्स एंड टे्रडर्स ऑफ सी वार्ड नामक फोरम के बैनर तले विकास की चल रही गरमा-गरम बहस में अपना एकमत पारित किया।
सरकार द्वारा कायापलट के लिए पहले से निश्चित 25 एकड़ जमीन की जगह एक एकड़ जमीन पर भी विकास करने की इजाजत दिये जाने की सराहना की। फोरम के कार्यकारी अध्यक्ष रामचन्द्र विनायकिया ने कहा कि यह पूरा इलाका मुंबई की कारोबारी पहचान है इसको किसी एक संस्था के हाथ में दिये जाने का हम विरोध करते हैं।
सरकार ने हाल ही में नियमों में बदलाव करके विकास करने की सीमा घटा करके एक एकड़ कर दी है जो कि हमारे समझ से सही है। फोरम की मांग है कि सरकार विकास करने के लिए बिल्डिंग के किरायेदार और मकान मालिक को इजाजत दे। जिससे सभी अपने कारोबारी हितों का ध्यान रखते हुए इलाके का भी विकास तेजी से कर सके।
नए सरकारी प्रावधान के अनुसार जर्जर इमारतों के काम की जिम्मेदारी म्हाडा को मकान मालिकों की सहमति से दी जा सकती है और म्हाडा यह काम लेकर किसी को भी दे सकता है। इस पर हिन्दुस्तान चेंबर ऑफ कामर्स के अध्यक्ष शंकर केजरीवाल कहते हैं कि हम विकास का विरोध नहीं करते हैं पर किसी एक संस्था के पास काम जाने के बाद विकास का मामला लटक सकता है। व्यापारियों के फोरम ने सरकार के इस बात का भी विरोध किया है। केजरीवाल कहते हैं कि अगर म्हाडा को काम की जिम्मेदारी दी जाती है तो उस काम को म्हाडा ही करें, न कि किसी दूसरी संस्था को दे।
भारत मर्चेंट ऑफ चेम्बर के उपाध्यक्ष राजीव सिंघल कहते हैं कि इस इलाके में हम लोग व्यापार करते हैं, सरकार को करोड़ों रुपये का टैक्स देते हैं, हमारी बिल्डिंग में जो किरायेदार रहता है उसको क्या तकलीफ है हमें पता है इसलिए हम चाहते हैं कि विकास ईमानदारी के साथ और जल्दी हो जो कि कोई एक संस्था इतना बड़ा काम नहीं कर सकती है जिसके चलते कारोबारी खुद यहां का विकास करेंगे, उसके लिए किसी संस्था की जरूरत नहीं है।
कम किराए के मोह में मौत का खेल
देश में सबसे ज्यादा कारोबार करने वाले गिरगांव, कालबा देवी और भूलेश्वर जैसे इलाकों में आज भी लोग 30 रुपये प्रतिमाह किराया देते हैं, सुनने में थोड़ा अटपटा जरूर लग रहा है पर सच्चाई यही है। जबकि इस इलाके में वर्तमान में यहां लगभग 20 हजार वर्गफु ट के हिसाब से भी किराये पर फ्लैट या दुकान मिलना मुश्किल है।
इस इलाके में बनने वाली नई बिल्डिंग में प्रतिमाह रखरखाव के लिए ही लगभग एक-दो हजार रुपये प्रतिमाह देने पड़ सकते हैं। पैसों के इसी खेल की वजह से ज्यादातर किरायेदार इस जर्जर इमारतों में रह कर मौत के खतरे से खेल रहे हैं। दरअसल इस इलाके में दशकों से रह रहे लोगों में ज्यादातर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है।
अनंतवाडडी की बिल्डिंग नंबर-7 में रहने वाली विधवा वर्षा पटेल कहती हैं कि पति के न रहने के बाद बच्चे और अपने इलाज के लिए भी पैसा नहीं है तो इमारत के पुनर्निर्माण के बारे में कैसे सोच सकते हैं। हमें पता है कि हमारी बिल्डिंग की स्थिति अच्छी नहीं है लेकिन हम इसको खाली करके नहीं जा सकते हैं, क्योंकि विकास की हो रही बातों का न तो हमें कुछ ठीक से पता है और न ही हमें इसके बारे में आज तक किसी ने बताया है। हमको तो लगता है कि हमारे इस आशियाने को छीनने की साजिश जमीन मालिक और भवन निर्माता मिलकर कर रहे हैं।
वर्षा पटेल इस बिल्डिंग में कारोबार करने वाले व्यापारियों को खाना बना कर देती हैं और इसी तरह उनके घर का खर्च चलता है। वर्षा पटेल जैसे यहां हजारों लोग हैं जिनके पास आज कमाने-खाने का कोई और जरिया नहीं है। ये लोग यहां काम कर रहे कारोबारियों के यहां सेल्समैन, ड्राइवर जैसे काम करके अपना गुजर-बसर करते हैं।
मुंबई को बसाने वाले पारसी समुदाय केसबसे ज्यादा लोग इसी इलाके में मिलते हैं जिनकी हालत आज बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है। यहां यह सवाल उठता है कि इतना सस्ता किराया कैसे संभव है। दरअसल सी एवं डी वार्ड में इमारतों के निर्माण का चलन वर्ष 1940 के पहले से शुरू हो गया था।
इसके पश्चात दूर-दराज इलाकों से लोग आकर यहां धंधा करने लगे और यहां पर उस समय के बाजार भाव में पगड़ी पध्दति के तहत किराये पर घर ले लिये जो आज भी उसी दर से किराया देते हैं। दरअसल, जमींदार और किरायेदार के बीच किए गए समझौते को ही पगड़ी पध्दति कहते हैं। उल्लेखनीय है कि मुंबई में पगड़ी पध्दति के जरिए ही घरों के लेनदेन का सौदा अब तक अमल में लाया जाता है। पगड़ी पध्दति का तात्पर्य किरायेदार द्वारा जमींदार को अपने मकान की सुरक्षा के एवज में दी गई धनराशि होती है।
साथ ही शुरू हुई राजनीति
महाराष्ट्र सरकार डीसीआर 33(9)नियम में संशोधन करके एक ओर जहां वाहवाही बटोरना चाहती है वही विपक्षी पार्टियां चुनाव के ऐन मौके पर किये गये इस बदलाव को बिल्डरों के लिए किया गया फैसला कह रही हैं। सी वार्ड के डेवलपमेंट के मुद्दे पर सभी राजनीतिक पार्टियों के नेता कुछ दिन पहले तक एक सुर में बोल रहे थे कि डीसीआर 33(9) नियम को मंत्रिमंडल की मंजूरी दी जानी चाहिए।
क्लस्टर डेवलपमेंट के लिए बनाए गए कानून 33(9) की मंजूरी के लिए काफी पहले से मांग उठ रही थी। इस इलाके के कांग्रेसी सांसद मिलिंद देवडा कहते हैं कि मैं इसी इलाके में रहता हूं मुझे पता है कि यहां रहने वाले लोग कितनी बुरी हालत में रहते हैं इसीलिए राज्य सरकार से बात करके हमने कैबिनेट की इसको मंजूरी दिलाई है।
दूसरी तरफ इस इलाके केभाजपा विधायक राजपुरोहित कहते हैं कि सरकार ने इस इलाके के लिए जो योजना को मंजूरी दी है उसमें सिर्फ भवन निर्माताओं के हितों को ध्यान में रखा गया है। सरकार ने इसको मंजूरी तो दे दी लेकिन कानून में जो बदलाव किये गए हैं वह बिल्डर लॉबी के दबाव में आकर लिए गए हैं।
पैसा जुटाने में आएंगी बहुत मुश्किलें
कानूनी दांव पेंच के साथ रीमेकिंग ऑफ मुंबई फेडरेशन (आरओएमएफ) के सामने फंड की भी समस्या खड़ी हो सकती है।
संस्था के चेयरमैन ललित गांधी यह तो मानते हैं कि एक साल पहले इस योजना को लेकर घरेलू और विदेशी निवेशक जितने उत्साहित थे, मंदी के चलते आज उनके उस उत्साह में कमी देखने को मिल रही है, लेकिन वह मानते हैं कि इस इलाके के विकास में फंड की कमी नहीं आएगी क्योंकि आरओएमएफ की विकास योजना डिबेंचर पर आधारित है।
ललित गांधी कहते हैं कि इस इलाके में पहले से काम कर रही संस्थाओं, कारोबारियों, किरायेदारों और मकान मालिकों को मिलाकर हमने आरओएमएफ बनाया और इलाके के विकास के लिए काम करना शुरू कर दिया। मामला रियल इस्टेट से जुड़ा होने की वजह से पेचीदा हो रहा है क्योंकि लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ रहा है।
इमारतें पुरानी होने की वजह से गिरती है जिससे हर साल भारी मात्रा में जान माल का नुकसान होता है। इस इलाके के कायापलट को लेकर उठ रहे सवाल को अगर छोड़ भी दिया जाए तो क्या आप के पास इतना पैसा है कि आप विकास कर सकते है, इस पर गांधी कहते हैं कि यहां पूरा प्रोजेक्ट 35 से 40 हजार करोड़ रुपये का था लेकिन मंदी के चलते अब यह प्रोजेक्ट 25 से 30 हजार करोड़ रुपये तक ही सीमित हो गया है।
ये बात सही है कि एक साल पहले विदेशी निवेशक हमारे प्रोजेक्ट में जितनी दिलचस्पी ले रहे थे आज वे उतना उत्साहित नहीं है लेकिन हमारी योजना डिबेंचर पर आधारित है। प्रोजेक्ट में किसी को नकद राशि न देकर हिस्सेदारी दी जा रही है जैसे मकान मालिको को 10 फीसदी इसके अलावा जो कंपनी जितनी मात्रा में माल की आपूर्ति करेगी उसको उसी अनुपात में हिस्सेदारी दी जाएगी, हमने बैंकों और संबधित कंपनियों से बात कर ली है। इसलिए इस योजना को लेकर पैसे की मुश्किल नहीं आएगी।
