Categories: लेख

पीएलआई की क्या है उपयोगिता?

Published by
बीएस संवाददाता
Last Updated- December 11, 2022 | 11:55 PM IST

उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना ने घरेलू विनिर्माण में निवेश को लेकर नए सिरे से उत्साह उत्पन्न किया है। योजना के तहत पांच वर्ष की अवधि मेंं करीब दो लाख करोड़ रुपये यानी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के एक फीसदी के बराबर राशि व्यय करनी होगी। मौजूदा औद्योगिक नीति में हवा का रुख देश की ओर बना हुआ है। वर्ष 2017 से ही हमने हजारों क्षेत्रों में शुल्क (टैरिफ) बढ़ाया है। इसमें हमारे आयात का 60 फीसदी हिस्सा शामिल हो चुका है। हमारा सामान्य औसत सीमा शुल्क जो 17 फीसदी है वह उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों में सर्वाधिक है। पीएलआई की शुरुआत इसलिए की गई ताकि घरेलू आपूर्ति शृंखला को गहराई मिले और समय के साथ देश का उद्योग जगत प्रतिस्पर्धी हो। क्या यह कारगर होगा?
पीएलआई योजना के तहत 13 क्षेत्रों में उन कंपनियों को बिक्री में 4-6 फीसदी की सब्सिडी प्रदान की जाती है जो ‘वांछित’ अंतिम उत्पाद, घटक वस्तुएं तैयार करती हैं। विभिन्न मंत्रालयों ने उन वस्तुओं की सूची पेश की जिन्हें स्वदेशी रूप से बनाना था। कंपनियों ने भी प्रस्ताव रखा कि वे एक खास न्यूनतम निवेश के साथ अमुक वस्तुओं का देश में निर्माण करेंगी। तैयार वस्तुओं पर उच्च टैरिफ के साथ ही यह योजना भी संचालित है। इसके कुछ उदारहण इस प्रकार हैं:  बीते तीन वर्षों में मोबाइल फोन पर 20 फीसदी आयात शुल्क लगता रहा है। इसके चलते देश में बिकने वाले फोनों को देश में बनाने को प्रोत्साहन मिला। सन 2014 की दो की तुलना में आज देश में 270 मोबाइल फोन फैक्टरी हैं। लेकिन भारत में बने मोबाइल फोनों में सीमित स्थानीय मूल्यवद्र्धन होता है। यह करीब 10 फीसदी है। पीएलआई का लक्ष्य है सब्सिडी देकर स्थानीय आपूर्ति शृंखला को मजबूत बनाना। तैयार वातानुकूलकों पर इस समय 25 फीसदी कर लगता है जबकि कंप्रेसर, कंट्रोल यूनिट तथा अन्य घटक बनाने के लिए पीएलआई योजना पूरा संरक्षण प्रदान करती है। इसी प्रकार पीएलआई औषधि बनाने के लिए जरूरी सक्रिय औषधि घटकों के स्थानीय उत्पादन को प्रोत्साहन देता है।
ये कदम शुल्क तथा आयात प्रतिस्थापन को व्यापार उदारीकरण और निर्यात प्रोत्साहन पर वरीयता देते हैं। पीएलआई के मामले में भारत इकलौता देश नहीं है। जैसा कि द इकनॉमिस्ट ने इस वर्ष के आरंभ में संकेत किया था चीन और भारत समेत दुनिया के कई देशों की सरकारों ने आयात प्रतिस्थापन आधारित औद्योगीकरण के पुराने विचार को त्याग दिया है। विभिन्न पीएलआई योजनाएं घरेलू विनिर्माण में तेजी, स्वदेशीकरण और स्थानीयकरण जैसे जुमलों से भरी हैं। इंदिरा गांधी के राजनीतिक चरम के दौर में 20 वर्षों तक हमने ऐसी ही नीतियां अपनाईं। वे तब कारगर नहीं रहीं तो क्या अब रहेंगी?
पीएलआई को कारगर बनाना
स्थानीय उत्पादन से प्रतिस्पर्धा बढऩी चाहिए। इसका संबंध तकनीकी क्षमता विकसित करने से भी है। इसके लिए सीखना जरूरी है- कैसे विनिर्माण किफायती हो और कैसे किसी उत्पाद से जुड़ी तकनीक विकसित की जाए। इसके लिए शोध एवं विकास पर खर्च करना होगा ताकि इन 13 गहन तकनीक वाले क्षेत्रों में दीर्घकालिक प्रतिस्पर्धा निर्मित हो सके। औद्योगिक नीति और विनिर्माण उपकरण: तीस वर्ष बाद भी अशोक देसाई की टेक्रॉलजी एब्जॉप्र्शन इन इंडियन इंडस्ट्री  इस क्षेत्र की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक है। इस पुस्तक का एक अध्याय भारत और दक्षिण कोरिया के विनिर्माण उपकरण उद्योग की तुलना करता है। फ्रांस की कंपनी पोकलेन ने सन 1973 में एलऐंडटी तथा 1974 में हुंडई को हाइड्रोलिक खनन की तकनीक लाइसेंस पर दी। सन 1983 में कोरियाई कंपनी ने एलऐंडटी के 70 की तुलना में ऐसी 630 मशीन बना लीं। कोरियाई कंपनी की मशीनें वैश्विक कीमत की 125 फीसदी की दर से बिकीं जबकि एलऐंडटी की मशीनों की कीमत वैश्विक कीमतों का तीन गुना थीं। इसलिए कि एलऐंडटी के पास कोरियाई कंपनी की तुलना में दोगुने इंजीनियर काम पर थे। सन 1970 के दशक में भारत सरकार की नीति स्वदेशीकरण की थी। एलऐंडटी की मशीनों में 70-80 प्रतिशत चीजें घरेलू लगती हैं जबकि कोरियाई मशीनों में यह 40 से 60 प्रतिशत ही है। स्वदेशीकरण पर जोर ने प्रतिस्पर्धा कमजोर की है।
देश के विनिर्माण उद्योग में ब्रिटिश कंपनी जेसीबी का बोलबाला है। भारत में उसके पांच कारखाने हैं जिनमें दुनिया कस उसका सबसे बड़ा कारखाना भी शामिल है। भारत अब उसका सबसे बड़ा बाजार है और समूह का आधा कारोबारऔर ज्यादातर मुनाफा यहीं से है। कंपनी यहां जमकर निवेश भी कर रही है, उसका सबसे बड़ा डिजाइन सेंटर यहीं है। अब जेसीबी भारत से ही 100 देशों को निर्यात करती है और इस वर्ष कंपनी का निर्यात 300 फीसदी बढ़ा है। निर्यात की सफलता प्रतिस्पर्धा की पुष्टि करती है। भारत में विनिर्माण का भविष्य जेसीबी जैसा होना चाहिए।
सन 1970 के दशक में स्वदेशीकरण पर दिये गये ध्यान ने भारतीय उद्योग जगत को उपयोगी और बेतुकी दोनों तरह की बातें सिखाईं। इसके तहत किसी स्थानीय सामग्री का इस्तेमाल करना है या आयातित वस्तुओं का यह निर्णय पूरी तरह वाणिज्यिक आधार पर होना चाहिए। शोध और विकास जरूरी है लेकिन इसका ध्यान नवाचार पर होना चाहिए।
अब हमें क्या करना चाहिए? मेरा मानना है कि बिना पीएलआई के हम बेहतर स्थिति में रहते और दो लाख करोड़ रुपये की करदाताओं की राशि का इस्तेमाल देश को प्रतिस्पर्धी बनाने का बुनियादी ढांचा विकसित करने में किया जाता, बजाय कि चुनिंदा कंपनियों को लाभ पहुंचाने के। परंतु पीएलआई योजना शुरू हो चुकी है तो हमें प्रयास करना होगा कि हम इसका बेहतर से बेहतर उपयोग कर सकें।
तीन बातें। कुछ कंपनियों की दलील है कि सब्सिडी को दो वर्ष के लिए बढ़ाया जाए। उनकी अनदेखी की जाए। कंपनियां पीएलआई योजना के  लिए खुले दिमाग से बोली लगाती हैं इसलिए स्वीकृत अनुबंध पर टिके रहें। सुनिश्चित करें कि सभी शर्तों का पालन किया जाए। पीएलआई योजना की मांग कर रहे अन्य उद्योगों की भी अनदेखी करें। यानी अफसरशाही के विवेकाधिकार की संभावना समाप्त करें।
दूसरा, उपलब्धियों को पारदर्शी बनाएं और परिणाम सार्वजनिक करें। सबको यह जानने दें कि किस कंपनी को कितने आकार का अनुबंध मिला है और अनुबंध की शर्तों के पालन के लिए क्या किया जा रहा है।
तीसरी बात, किसी कंपनी को योजना अवधि के बारे में कोई संशय नहीं होना चाहिए। यह पांच वर्ष के लिए है और इसे आगे नहीं बढ़ाया जाएगा। इसके साथ ही तैयार उत्पाद और घटकों का शुल्क चरणबद्ध ढंग से कम किया जाना चाहिए। मसलन 2025 तक ये सभी उत्पाद बिना संरक्षण के प्रतिस्पर्धा करने लायक हो जाने चाहिए। आशा है कि पीएलआई की मदद से गहन और अधिक प्रतिस्पर्धी आपूर्ति शृंखला विकसित होगी। परंतु दुनिया में सर्वश्रेष्ठ के साथ प्रतिस्पर्धा ही इसका इकलौता मानक  होना चाहिए।
(लेखक फोर्ब्‍स मार्शल के सह-चेयरमैन, सीआईआई के पूर्व अध्यक्ष और सेंटर फॉर टेक्नोलॉजी इनोवेशन ऐंड इकनॉमिक रिसर्च के चेयरमैन हैं)

First Published : October 28, 2021 | 10:45 PM IST