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‘और’ भी ‘या’ बन जाता है यहां आकर…

Last Updated- December 05, 2022 | 5:12 PM IST

एक पुराना अंग्रेजी जुमला है – ‘मैं संसदीय मसौदाकार हूं। मैं देश का कानून बनाता हूं और आधे से ज्यादा मुकदमों की जड़ में मैं ही हूं।’


मंशा अच्छी हो, तो भी कानून के किसी खास शब्द की व्याख्या कई अर्थों में की जा सकती है। इस तरह की व्याख्याएं लोगों के लिए परेशानी का सबब बन सकती हैं और कई दफा तो कोर्ट भी इन मामलों में काफी ऊहोपोह की-सी स्थिति में पड़ जाते हैं।


हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के सामने ऐसा ही एक मामला आया। इलेक्ट्रिसिटी एक्ट के एक उपखंड की व्याख्या में सुप्रीम कोर्ट को काफी मशक्कत करनी पड़ी। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने अपनी व्याख्या में कहा कि उस खास उपखंड में ‘और’ शब्द का इस्तेमाल ‘या’ के अर्थ में किया गया है। कोर्ट ने यह भी कहा कि कुछ मामलों में ‘या’ का इस्तेमाल ‘और’ के अर्थ में भी किया जाता है।


जजों ने ऐसे मामलों में दिए गए ब्रिटिश फैसलों और संस्कृत के मीमांसा सिध्दांत की व्याख्याओं का हवाला देते हुए इलेक्ट्रिसिटी एक्ट और विवाचन व निपटारा कानून के प्रावधानों में सौहार्द लाने की कोशिश की। यह विवाद दरअसल गुजरात ऊर्जा विकास निगम और एस्सार पावर लिमिटेड के बीच का था। पहले तो मामला हाई कोर्ट गया और फिर इसके बाद अपील के जरिये सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा।


इसमें एस्सार पावर का आरोप था वह अपनी पूरी उत्पादन क्षमता का इस्तेमाल नहीं कर पा रही है और इसी वजह से गुजरात ऊर्जा विकास निगम को उतनी ऊर्जा की सप्लाई नहीं कर पा रही, जितना वादा किया गया था। दरअसल, कंपनी द्वारा गुजरात ऊर्जा विकास निगम और एस्सार ग्रुप ऑफ कंपनीज को एक खास अनुपात में ऊर्जा सप्लाई किए जाने की बात थी। पर एस्सार पावर इस अनुपात को कायम नहीं रख सकी और उसने एस्सार ग्रुप ऑफ कंपनीज को ज्यादा ऊर्जा सप्लाई करनी शुरू कर दी।


यह बात गुजरात ऊर्जा विकास निगम को रास नहीं आई और निगम ने इलेक्ट्रिसिटी एक्ट के तहत गठित राज्य विद्युत नियामक आयोग का दरवाजा खटखटाया। निगम के इस रुख को चुनौती देने के लिए एस्सार पावर नें हाई कोर्ट में दस्तक दी और कोर्ट से गुजारिश की कि इस मामले की सुनवाई के लिए विवाचन और निपटारा कानून के तहत एक मध्यस्थ (आर्बिट्रेटर) का नामांकन किया जाए। हाई कोर्ट ने एक सेवानिवृत मुख्य न्यायाधीश को आर्बिट्रेटर के तौर पर नियुक्त भी कर दिया।


इसके बाद निगम ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट ने होई कोर्ट द्वारा दी गई व्यवस्था को खारिज करते हुए कहा कि इस विवाद के हल के लिए सही मंच नियामक आयोग है। हालांकि इलेक्ट्रिसिटी एक्ट की धारा 174 के मुताबिक, यह कानून देश के किसी भी दूसरे कानून के मुकाबले ज्यादा तवज्जो पाने का हकदार होगा। हालांकि इसी एक्ट की धारा 175 कहती है कि इस एक्ट के प्रावधान ‘सहयोगात्मक होंगे और दूसरे कानूनों का अनादर नहीं करेंगे।’


लिहाजा सुप्रीम कोर्ट के सामने पहला सवाल यह था कि इस मामले में किस कानून का सहारा लिया जाए, इलेक्ट्रिसिटी एक्ट का या फिर विवाचन एवं निपटारा कानून का। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी व्याख्या में कहा कि इस मामले में इलेक्ट्रिसिटी एक्ट को वरीयता दी जाएगी। कोर्ट का तर्क यह था कि इलेक्ट्रिसिटी एक्ट खास कानून है जबकि विवाचन और निपटारा कानून सामान्य कानून है।


जब यह बात तय हो गई कि इस मामले में इलेक्ट्रिसिटी एक्ट को प्राथमिकता दी जाएगी, तो अगला सवाल यह आया कि इस मामले को देखने का अधिकार नियामक आयोग (जिसका गठन इलेक्ट्रिसिटी एक्ट के तहत हुआ है) को दिया जाए या फिर मामले को आर्बिट्रेटर के पास रेफर कर दिया जाए।


इलेक्ट्रिसिटी एक्ट की धारा 86 (1) (एफ) कहती है कि ऊर्जा हासिल करने वाली और उसकी सप्लाई करने वाली कंपनी के आपसी विवाद की सुनवाई और उस पर फैसले का अधिकार कमिशन के पास है और कमिशन किसी भी विवाद को आर्बिट्रेटर के पास भेज सकता है। यहां ‘और’ शब्द पर गौर करें तो यह अर्थ निकलता है कि कमिशन खुद मामले की सुनवाई करने के बाद इस पर फैसला देगा, साथ ही इस मामले को आर्बिट्रेटर के पास भेज देगा। पर दोनों चीजें एक साथ संभव नहीं हैं।


लिहाजा सुप्रीम कोर्ट ने इसकी व्याख्या की – ‘यहां पर ‘और’ शब्द का मतलब ‘या’ से है।’ इसी व्याख्या के क्रम में सुप्रीम कोर्ट ने कई और उदाहरण पेश कर बताया कि कई बार ‘या’ शब्द का इस्तेमाल भी ‘और’ के तौर पर होता है। इस पूरे प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने ब्रिटिश व्याख्याओं और संस्कृत के मीमांसा सिध्दांतों का भी हवाला दिया। कोर्ट ने कहा कि भारतीय व्यवस्था में भी इन तरह की समस्याओं से निजात के तरीके हैं। इनमें से एक ‘सामंजस्य सिध्दांत’ है।


पाणिणी और पतंजलि के दर्शनों के हवाले से कोर्ट ने एक कहानी सुनाई। कहानी यह थी कि दो लोग अलग-अलगी बग्गियों से यात्रा कर रहे थे। इनमें से एक की बग्गी के घोड़े चुरा लिए गए और एक की बग्गी गांव की आग में जल गई। फिर दोनों ने मिलकर एक तरकीब अपनाई। इसके तहत एक ने अपनी बग्गी दी और दूसरे ने अपने घोड़े दिए। फिर दोनों मंजिल की ओर चल दिए। इसे ही सांमजस्य सिध्दांत की संज्ञा दी गई।


कोर्ट ने इस बात पर हैरत जताई कि अक्सर कानूनी विवादों की सुनवाई के दौरान बड़े-बड़े वकीलों और जजों के नामों की दुहाई दी जाती है, पर आज तक उसके सामने (सुप्रीम कोर्ट के सामने) भारत में प्राचीन काल में प्रचलित दिशा-निर्देशों का हवाला नहीं दिया गया।


हालांकि अब भी उलझा हुआ सवाल है कि इस तरह के दिशानिर्देश न्यायपालिका के विचारों और कानूनी पेशे को बदलने में किस हद तक मददगार साबित होंगे? हालांकि व्यावहारिक बात करें तो यह है कि उक्त मामले में सुप्रीम कोर्ट ने नियामक आयोग के हाथ में ज्यादा ताकत सौंपी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नियामक आयोग के पास इस बात का विशेषाधिकार है कि वह या तो मामले का फैसला या सुनवाई खुद करे या फिर इसे आर्बिट्रेटर को सुपुर्द कर दे।

First Published - March 27, 2008 | 11:29 PM IST

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