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बजट में क्या हैं चुनौतियां, संभावनाएं और विकल्प

भारत निजी क्षेत्र की अगुआई में टिकाऊ वृद्धि की चाहत रखता है तो राजकोषीय घाटा कम करना होगा। बता रहे हैं अजय छिब्बर

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अजय छिब्बर
Last Updated- January 16, 2023 | 9:28 PM IST

वर्ष 2022 में अधिकांश जी20 देशों की तुलना में अपेक्षाकृत उच्च स्तर की आर्थिक वृद्धि और कम महंगाई के साथ, भारत ने तुलनात्मक रूप से बेहतर तरीके से वैश्विक झटकों का सामना किया है। हालांकि भारत में राजकोषीय और चालू खाता घाटा ऊंचे स्तर पर बना हुआ है, लेकिन पर्याप्त आरक्षित मुद्रा भंडार और बेहतर तरीके से तैयार विनिमय दर नीति के कारण वह देश के बाहर जाने वाली विदेशी मुद्रा का बेहतर प्रबंधन कर सका है। वित्त वर्ष 2022-23 में भारत में 6.5 प्रतिशत से ज्यादा की वृद्धि होनी चाहिए और अब 6 प्रतिशत से नीचे की मुद्रास्फीति कई लोगों को हैरान परेशान कर सकती है।

अमेरिका और यूरोप मंदी की ओर बढ़ रहे हैं क्योंकि इन जगहों पर बढ़ती महंगाई को नियंत्रित करने के लिए आवश्यक सख्त मौद्रिक नीतियां अपनाई गई हैं। दूसरी तरफ चीन अपनी खुद की बनाई कोविड नीतियों के कारण परेशान है। ऐसे में भारत 2022 में दुनिया के बड़े ऊर्जा आयातक देशों के बीच बेहतर दिखाई दिया। जी20 में, केवल सऊदी-अरब में ही सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में तेज वृद्धि दिखी जो तेल की ऊंची कीमतों की वजह से संभव हो सकी है।

दूसरे अधिकांश देशों की तुलना में, भारत ने वर्ष 2022 में बेहतर तरीके से प्रबंधन किया है लेकिन अब सवाल यह है कि आगे कैसा रहेगा? वर्ष 2023 में भी पिछले साल की कई अनिश्चितताएं और जोखिम जारी हैं। ईरान में चल रहा संघर्ष और चीन का आक्रामक रवैया भारत के लिए जोखिमपूर्ण हो सकता है। भारत की जीडीपी वृद्धि दर 6.5 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है, जिसे हासिल करना कई देशों के लिए मुश्किल होगा। लेकिन इस दर पर भी भारत को 4,100 डॉलर के स्तर को पार करने में 8-9 साल लगेंगे जो विश्व बैंक की ऊपरी-मध्य आमदनी श्रेणी है और जिस स्तर पर आज ईरान और इंडोनेशिया हैं। निश्चित तौर पर हमें बेहतर करने के प्रयास करने चाहिए।

वैश्विक अर्थव्यवस्था और व्यापार में मंदी आने के साथ ही कई विशेषज्ञों ने राजकोषीय स्थिति को मजबूत करने के दृष्टिकोण पर अमल करने की सलाह दी है। यह स्पष्ट नहीं है कि राजकोषीय मजबूती से भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अधिक जोखिम की स्थिति क्यों बनेगी? वास्तव में, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी इस ओर इशारा किया है कि इसके ठीक विपरीत स्थिति होने की अधिक संभावना है। राजकोष में मजबूती न आने से चालू खाते के घाटे का उच्च स्तर पर बना रहेगा और इसकी वजह से भारत की व्यापक आर्थिक स्थिरता और अधिक अनिश्चित हो जाएगी।

भारत का सार्वजनिक ऋण जीडीपी के 80 प्रतिशत से अधिक है और इसके अलावा बढ़ते ब्याज बिल (जीडीपी के 3 प्रतिशत से अधिक) को देखते हुए, मध्यम अवधि में राजकोषीय मजबूती न केवल व्यापक स्तर की स्थिरता के लिए आवश्यक है, बल्कि इसके बिना निजी निवेश में सुधार भी संभव नहीं है जो अर्थव्यवस्था में तेज वृद्धि की कुंजी है।

अतीत में झांककर देखें, तो वर्ष 2000-2010 की अवधि में एक बात अहम रही है और वह यह कि इस दशक के दौरान भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी तीन गुना हो गई। इस दौरान कॉरपोरेट निवेश पहली बार 15 प्रतिशत से अधिक हो गया जो कुल निजी निवेश का उच्च स्तर हौ और सकल घरेलू उत्पाद का 25-30 प्रतिशत रहा। वर्ष 2010 के बाद से, भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी दोगुनी भी नहीं हुई है क्योंकि निजी निवेश में गिरावट आई है। हमें 7-8 प्रतिशत की जीडीपी वृद्धि के लिए उन स्तरों पर निवेश फिर से बढ़ाने की आवश्यकता है।

अगर पहले की तरह ही सकल घरेलू उत्पाद की हिस्सेदारी में निजी निवेश को जीडीपी के 25-30 प्रतिशत के करीब तक बढ़ाना है तो राजकोषीय घाटा जीडीपी का लगभग 3 प्रतिशत औ्र चालू खाते का घाटा जीडीपी का 1-2 प्रतिशत रहना ज्यादा ठीक है। इससे कुछ भी अधिक होने का सीधा मतलब यह होगा कि यह वृहद अर्थव्यवस्था के नजिरये से अव्यावहारिक और अस्थिर होगा क्योंकि ऐसे में निजी क्षेत्र का निवेश सिकुड़ जाएगा और निजी पूंजीगत खर्च को नहीं बढ़ाया जा सकेगा।

क्या हम आने वाले वर्षों में ऐसा सुधार देख पाएंगे? वर्ष 2000-2010 के उच्च वृद्धि दर वाले दशक में क्षमता उपयोगिता दर औसतन 80 प्रतिशत के करीब थी लेकिन अब यह काफी कम है हालांकि कई प्रमुख क्षेत्रों में इसमें औसतन 70 प्रतिशत से अधिक का सुधार है और कुछ क्षेत्रों में यह 75-80 प्रतिशत के स्तर को छू रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि बैंकिंग क्षेत्र निजी ऋण में बहाली के लिए पूरी करह दुरुस्त हो गया है। हाल में ज्यादातर खुदरा ऋण की मांग बढ़ी है और इसमें ही सुधार दिखा है लेकिन कॉरपोरेट ऋण में भी सुधार देखा जा सकता है।

प्रतिस्पर्धात्मकता एक मुद्दा बनी हुई है क्योंकि व्यापार करने की लागत अधिक है और यही वह मसला है जहां सरकार को ध्यान केंद्रित करना चाहिए और उसे निवेश बढ़ाने के लिए केवल उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन सब्सिडी पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिए। ऊर्जा की कीमतें और लॉजिस्टिक्स की लागत बहुत अधिक है और कुछ राज्यों को छोड़कर श्रम कानूनों में सुधार काफी हद तक कागजों पर ही हैं। वैश्विक कंपनियां चीन से बाहर जाना चाहती हैं लेकिन यह जरूरी नहीं है कि वे भारत आएं। ऐसे में वे सबसे अधिक प्रतिस्पर्धी स्थानों पर जाने की कोशिश करेंगी। ऐपल का भारत आने का निर्णय सकारात्मक है लेकिन एक ही काफी नहीं है, हमें और भी कंपनियों की दरकार है।

गैर-कॉरपोरेट निवेश, मुख्य रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के बुनियादी ढांचे पर खर्च से ही आता है और इसी वजह से खराब समय के दौरान भी सार्वजनिक पूंजीगत खर्च को बनाए रखने और यहां तक कि उसे बढ़ाने की सरकार की कोशिशों का स्वागत किया जाना चाहिए। सार्वजनिक क्षेत्र के पूंजीगत खर्च के लिए अधिक आवंटन के अलावा, नियामकीय वातावरण को ठीक करने और निवेश परियोजनाओं में प्रक्रियात्मक देरी से वास्तविक निजी पूंजी को आकर्षित करने में मदद मिलेगी जो जलवायु-अनुकूल निवेश की रफ्तार बढ़ा सकती है और इस वक्त भारत को अपने जलवायु लक्ष्यों के तहत आगे बढ़ने की जरूरत भी है।

वर्ष 2024 में आम चुनाव होने जा रहे हैं और वित्त वर्ष 2023-24 का बजट ही राजकोषीय स्तर पर मजबूती लाने का एकमात्र विकल्प हो सकता है, लेकिन यह आसान नहीं होगा। उर्वरक सब्सिडी में बेतहाशा वृद्धि हुई है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत मुफ्त अनाज योजना में हाल के बदलाव से यह संकेत मिलते हैं कि चुनाव का लक्ष्य निश्चित रूप से सरकार के दिमाग में हैं। प्रधान मंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना को खत्म करने से अल्पावधि में पैसे की बचत होती है, लेकिन मुफ्त पीडीएस, मध्य अवधि में वित्तीय समस्याओं को बढ़ा देगी क्योंकि चुनाव के करीब न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ाने का दबाव भी बढ़ता है।

यदि मध्यम अवधि में सार्वजनिक पूंजीगत खर्च में कोई कटौती किए बिना राजकोषीय मजबूती को जीडीपी के 6-7 प्रतिशत से जीडीपी के 4.5 प्रतिशत तक लाना है तो उर्वरक और अन्य सब्सिडी को तर्कसंगत बनाया जाना चाहिए और पीएम किसान भुगतान में इसे शामिल किया जाना चाहिए। इसके साथ ही मुफ्त पीडीएस के बजाय नकद हस्तांतरण में बदलाव का एजेंडा होना चाहिए। कर और अन्य राजस्व में भी जीडीपी के 2-3 प्रतिशत तक की वृद्धि होनी चाहिए, विशेष रूप से तब, जब हमारी रक्षा जरूरतें बढ़ रही हैं क्योंकि चीन आक्रामक नजर आ रहा है। इसके लिए वस्तु एवं सेवा कर में और सुधार तथा त्वरित निजीकरण कार्यक्रम की आवश्यकता होगी।

मध्यम अवधि में, भारत की जी20 अध्यक्षता वाले वर्ष में चीन इसके लिए परेशानी खड़ी कर सकता है। चीन का स्थायी रूप से मुकाबला करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि आर्थिक रूप से उसकी बराबरी की जाए। अगर भारत को मध्यम अवधि में निजी क्षेत्र की अगुआई में 7-8 प्रतिशत की निरंतर वृद्धि करनी है तो राजकोषीय मजबूती की आवश्यकता होगी। बजट में वर्ष 2023 और उससे आगे के लिए दांव वास्तव में अधिक हैं।

(लेखक इक्रियर में वरिष्ठ विजिटिंग प्रोफेसर हैं)

First Published : January 16, 2023 | 9:28 PM IST