सरकार के पास जो स्पेक्ट्रम मौजूद है उसका इस्तेमाल तकनीकी विकास से जुड़े प्रयोगों तथा वैश्विक अनुप्रयोग के लिए नहीं करने देना वैसा ही है जैसे किसी व्यक्ति को आसपास मौजूद हवा का प्रयोग न करने दिया जाए।
हमारे देश में ब्रॉडबैंड का समुचित विस्तार नहीं होने के कारण आम लोगों की जिंदगी से जुड़े बुनियादी ढांचेे का सही विकास और इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है, यह अपने आप में एक समस्या है। हमें शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, उत्पादकता, वाणिज्य, उद्योग, सरकारी सेवाओं और मनोरंजन के क्षेत्र में इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है। क्या सरकार इस बात से अवगत नहीं है? क्योंकि निश्चित रूप से सरकार इस बात में सक्षम है कि वह आम उपयोग के लिए स्पेक्ट्रम इस्तेमाल की राह निकाले। सरकार और अधिकारीगण भले ही अन्य कामों में व्यस्त हों लेकिन उन्हें इस क्षेत्र को प्राथमिकता देनी चाहिए।
असल समस्या है हमारे समग्र जटिल मनोविज्ञान से उठने वाली प्रतिस्पर्धी मांगों को संतुष्ट करना। हमारी एक चिंता यह भी है कि विभिन्न निगमों को सार्वजनिक संसाधनों के लिए धन चुकाना पड़ता है जबकि उन्हें मुनाफा कमाने की इजाजत नहीं होती। ऐसी विचारधारा केवल सरकार तक सीमित नहीं है बल्कि प्रेस और मीडिया, राजनीति, नागरिक प्रशासन और यहां तक कि न्यायपालिका में भी कई लोग ऐसी ही सोच रखते हैं। निर्णय लेने वालों की अन्यमनस्कता तथा खुद को भविष्य में आने वाले संकट से बचाने की सोच में इस दौरान हालात ऐसे बन जाते हैं कि हमारी संचार संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कोई नवाचारी प्रयोग नहीं हो पाता। कई बार ऐसे सवाल भी सामने आते हैं कि हमें 5जी अथवा तेज इंटरनेट की क्या जरूरत है या फिर हमारे पास पहले ही पर्याप्त ब्रॉडबैंड है वगैरह। हम निष्क्रिय बुनियादी सहयोग के अभ्यस्त हो गए हैं और हमें अपने दैनिक जीवन में कमियों को स्वीकार करने की आदत हो गई है। फिर चाहे कॉल ड्रॉप हो, धीमा इंटरनेट हो या बिजली-पानी की आपूर्ति में समस्या हो। हमने इन सभी चीजों को स्वीकार कर लिया है जबकि हकीकत में ये हमारी उत्पादकता और प्रभाव पर गहरा असर डालने वाली बातें हैं। इस बीच हम 4जी स्पेक्ट्रम की एक और नीलामी में लगे हैं जबकि 5 जी के क्षेत्र में हम शेष विश्व से कोसों दूर नजर आ रहे हैं। अगर हमारे नीति निर्माता और प्रशासक ग्रामीण ब्रॉडबैंड समेत हमारा संचार सुधारना चाहते हैं तो हमें शायद दुनिया के अन्य हिस्सों में इनके क्रियान्वयन से सबक लेना होगा। एक दिलचस्प उदाहरण अमेरिका के संघीय संचार आयोग (एफसीसी) का है। कम पहुंच वाले बाजारों में ब्रॉडबैंड सुविधा में सुधार करने के उद्देश्य से सन 2019 में एफसीसी ने ग्रामीण डिजिटल अवसर फंड (आरडीएफओ) पहल की शुरुआत की ताकि दूरसंचार सेवा प्रदाताओं द्वारा जुटाए गए सार्वभौमिक सेवा दायित्व फंड का इस्तेमाल ग्रामीण इलाकों में उच्च गति वाला नेटवर्क कायम करने में किया जा सके। इसने पूर्ववर्ती कनेक्ट अमेरिका फंड कार्यक्रम का स्थान लिया जो विफल रहा था। सन 2020 में एफसीसी ने ग्रामीण उपभोक्ताओं के लिए विपरीत नीलामी आयोजित की और दूरदराज इलाकों में धीमी गति से सेवा देने को इजाजत दी। पहले चरण के लिए 9.2 अरब डॉलर यानी 67,000 करोड़ रुपये की राशि मंजूर की गई जो अगले 10 वर्ष तक मासिक किस्त में दी जाएगी। परियोजना को समय पर पूरा करना होगा। भारत में ऐसे ही सार्वभौमिक सेवा दायित्व फंड में 55,000 करोड़ रुपये हैं।
कुल 400 से अधिक कंपनियों को नेटवर्क और सेवा प्रदान करने के लिए आरडीओएफ के अनुबंध मिले हैं। इनमें बिजली वितरण कंपनियां भी शामिल हैं। इनमें से कई ने फाइबर ऑप्टिक नेटवर्क तैयार करने की योजना बनाई है। लेकिन सबसे बड़ी विजेता और 1.3 अरब डॉलर की बोली हासिल करने वाली एलटीएम ब्रॉडबैंड की योजना उच्चगति के बेतार का इस्तेमाल करने की भी है।
एक अन्य विजेता स्पेसएक्स की योजना 100 एमीबीपीएस की गति मुहैया कराने के लिए पृथ्वी की निचली कक्षा में उपग्रह लॉन्च करने की है। कुछ विश्लेषकों और प्रतिभागियों ने गीगाबाइट वायरलेस नेटवर्क की व्यवहार्यता पर प्रश्न उठाते हुए आलोचना भी की। अभी यह सुनिश्चित होना बाकी है कि सेवा समय पर पूरी होगी और मुनाफा देगी या नहीं।
माहौल में अंतर के बावजूद एफसीसी का उदाहरण भारत के लिए उपयोगी है। एक तो यह कि इसकी मदद से ग्रामीण ब्रॉडबैंड विकास के लिए फंड जुटाया जा सकता है और हर छह महीने पर प्रदर्शन की निगरानी की जा सकती है। दूसरा, बिना किसी शोरगुल के 10 वर्ष का अनुबंध दिया जा सकता है और उलट नीलामी (जिसमें विक्रेता तय करता है कि वह किस कीमत पर माल बेचना चाहता है) की समय अवधि और मॉडल तय किया जा सकता है। तीसरा, तकनीक चयन की इजाजत दी जा सकती है। हमें ऐसे कदम की जरूरत है।
स्वीडन समेत उत्तर यूरोप या उत्तर अटलांटिक के देशों में दूरसंचार सेवा प्रदाताओं ने 2जी से लेकर 4जी तक बुनियादी ढांचा और स्पेक्ट्रम साझा किया और अब यह सहयोग 5जी के लिए बढ़ाया जा रहा। उनके नेटवर्क में हर तरह की तकनीक साथ मौजूद है।
भारत के लिए नीति निर्माताओं को समुचित नीतियां, कानून आदि विकसित करने होंगे जो हमारे संदर्भ, संस्कृति, संस्थान, व्यवहार और भौगोलिक तथा सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप हो। एक जरूरी बात यह है कि ग्रामीण और शहरी इलाकों के लिए साझा नेटवर्क वाली ब्रॉडबैंड की व्यवस्था हो। स्वीडन में दशक भर पहले साझा अधोसंरचना के प्रावधान जरूरी कर दिए गए थे। भारत में भी सरकार की ओर से पहल और प्रोत्साहन की आवश्यकता है। ऐसा इसलिए कि नीतियों, कानूनों और नियमों में भारी बदलाव करने होंगे। इसके लिए विभिन्न एजेंसियों और सरकारी विभागों, विधायी संस्थानों और अन्य अंशधारकों में तालमेल की आवश्यकता होगी। अंशधारकों में सेवा प्रदाता, विनिर्माता और उपयोगकर्ता शामिल होंगे।
स्वीडन का अनुभव बताता है कि साझेदारी से पर्यावरण प्रभाव तो कम होता ही है, साथ ही लागत और ऊर्जा की भी काफी बचत होती है। परंतु बिना सरकारी पहल और सुविधा के भारत जैसे देश में सकारात्मक नतीजे निकलना मुश्किल है।
देश में स्पेक्ट्रम नियमों में बदलाव की जरूरत है ताकि उन्हें एफसीसी मॉडल के साथ सुसंगत बनाया जा सके। इसके लिए उद्योग जगत तथा अन्य अंशधारकों के साथ चर्चा की जानी चाहिए। ऐसे में वाई-फाई का 5 गीगाहट्र्ज की शैली में विस्तार पहला कदम है। वाई-फाई के लिए 6 गीगाहट्र्ज, आंतरिक वाई-फाई और लाइसेंस धारी साझा पहुंच वाले सेवा प्रदाताओं के लिए 60 गीगाहट्र्ज और ऐसे बाह्य नियमन के वास्ते 70-80 गीगाहट्र्ज का लक्ष्य है। इसके पश्चात नेटवर्क साझेदारी की व्यवस्थित पहल आवश्यक है। इसमें अन्य पक्षों के साथ बीएसएनएल के जरिये सरकार भी भागीदार हो। इसके लिए सभी संबंधित सरकारी विभागों और अन्य अंशधारकों को साथ काम करना होगा।