प्रतीकात्मक तस्वीर
‘सतर्कता’ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) के कर्मचारियों के लिए एक भयावह शब्द है। ऐसे भी उदाहरण हैं जहां उच्चाधिकारी इस भय का दुरुपयोग करते हैं। गत वर्ष राजस्थान में एक सरकारी बैंक के मुख्य प्रबंधक को सेवानिवृत्ति के एक दिन पहले नोटिस दिया गया। इसमें उन पर 2022 में एक रियल एस्टेट परियोजना की फाइनैंसिंग में धोखाधड़ी को लेकर आरोप लगाया गया था।
करीब दो साल तक चली विभागीय जांच के दौरान इस सरकारी बैंक के कई कर्मचारी सतर्कता जांच के दायरे में आए। ये कर्मचारी किसी न किसी तरह से ऋण मंजूरी या वितरण की प्रक्रिया से जुड़े हुए थे। मुख्य प्रबंधक को 35 साल के बेदाग कार्यकाल में पहली बार चार्जशीट मिली थी। सेवानिवृत्ति के पहले उनके पास इतना समय ही नहीं था कि वह लंबी विभागीय जांच का सामना करें और अपना बचाव करें। उन्होंने आरोप स्वीकार कर लिए। अगर वह स्वीकार नहीं करते तो उन्हें जांच पूरी होने तक सेवानिवृत्ति से जुड़े कई लाभों से वंचित होना पड़ता जिसमें पेंशन भी शामिल है। यह जांच कई साल चल सकती थी। अपने करियर के अंतिम दिन उन्हें छह वार्षिक वेतनवृद्धि रोककर दंडित किया गया। इसके साथ ही बेसिक वेतन पर महंगाई भत्ता भी कम किया गया।
ऐसी ही एक दूसरी घटना में एक सरकारी बैंक के मुख्य महाप्रबंधक का संबंध एक भारी भरकम ऋण से जोड़ा गया जो फंस गया था। इसके बाद एक सतर्कता जांच का प्रस्ताव रखा गया। जब वह कार्यकारी निदेशक के पद पर पदोन्नति के लिए एक साक्षात्कार में शामिल होने गए तो यह जांच रास्ते में आ गई।
बाद में वह आरोपों से बरी हो गए लेकिन उन्हें पदोन्नति के कई मौके गंवाने पड़े क्योंकि हर साक्षात्कार के समय उनके खिलाफ लंबित जांच सामने आ जाती। आखिरकार लंबी प्रतीक्षा के बाद वह कार्यकारी निदेशक बन गए लेकिन प्रबंध निदेशक नहीं बन सके क्योंकि उनके पास कम समय बचा था। भारत के सरकारी बैंकरों के लिए सतर्कता जांच सिर पर तलवार लटकने जैसा है। इसकी वजह से वे हमेशा भय और तनाव में रहते हैं। वे जनता के धन को संभालते हैं और ऐसे निर्णय लेते हैं जो कई बार गलत साबित हो सकते हैं और बैंक को नुकसान हो सकता है। बैंक को यह सवाल करना चाहिए कि यह वाणिज्यिक निर्णय के गलत होने का मामला है या इसमें गलत नीयत शामिल है? सतर्कता जांच जवाब तलाशने के लिए होती है लेकिन कई मामलों में ऐसी जांच अंतहीन चलती है जो संबंधित बैंकर पर बहुत भारी गुजरती है। ऐसे में कई बैंकर निर्णय नहीं लेने का निश्चय करते हैं ताकि सिर पर लटकती तलवार से बच सकें। विभागीय जांच बंद दरवाजों के पीछे होती हैं और साबित करने का बोझ जांचकर्ता पर नहीं होता। कुछ कमियों का उल्लेख और प्राथमिक दस्तावेजी प्रमाण बैंकरों को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त होते हैं।
जांच अधिकारी अक्सर आरोपित से वरिष्ठ होता है और वह जांच के नतीजे अनुशासनात्मक प्राधिकारी को सौंपता है। अनुशासनात्मक प्राधिकारी न्यायाधीश की भूमिका निभाता है और आरोप की गंभीरता के मुताबिक उसके पास निर्णय लेने के अधिकार होते हैं।
अगर किसी शाखा प्रबंधक द्वारा मंजूर खातों में फंसे कर्ज बढ़ते हैं तो उसकी सतर्कता जांच की जा सकती है। परंतु ऐसे फंसे कर्ज की कोई तय सीमा नहीं है। नियम कहते हैं कि तीन महीने में प्राथमिक जांच हो जानी चाहिए। परंतु प्राथमिक स्तर की तथाकथित सलाह लेने की कोई समय सीमा नहीं है। एक बार अनुशासनात्मक प्राधिकारी और मुख्य सतर्कता अधिकारी मामले को जांच लायक पाते हैं तो पहले चरण की सलाह मुख्य सतर्कता आयोग को भेज दी जाती है। मुख्य सतर्कता अधिकारी बैंक और सतर्कता आयोग तथा केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के बीच पुल का काम करता है। यह अधिकारी बैंक के प्रबंध निदेशक को रिपोर्ट करता है। आमतौर पर इसकी नियुक्ति बैंक के बाहर से की जाती है ताकि निष्पक्षता बनी रहे। पहले चरण की सलाह के बाद बैंक आरोपपत्र जारी कर विभागीय जांच की शुरुआत करता है। ऐसी जांच में लगने वाला समय तीन माह से अधिक नहीं होना चाहिए और पूरी प्रक्रिया 15 महीने में पूरी हो जानी चाहिए। हालांकि इस समय सीमा का हमेशा पालन नहीं होता। अगर कोई बैंकर अनुशासनात्मक प्राधिकारी के दंड से पीड़ित महसूस करे तो वह आदेश मिलने के 45 दिन के भीतर अपील कर सकता है। आमतौर पर अपीलीय प्राधिकारी अनुशासनात्मक प्राधिकारी से एक पद ऊपर होता है। अगर बैंकर इसके निर्णय से भी असंतुष्ट रहा तो वह अदालत जा सकता है। वह मामला समय पर निपटाने के लिए भी अदालत की शरण ले सकता है।
गत माह एएम कुलश्रेष्ठ बनाम यूनियन बैंक ऑफ इंडिया के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने जांच की कार्यवाही को खारिज करते हुए आदेश दिया कि प्रभावित अधिकारी को सभी सेवानिवृत्ति लाभ दिए जाएं। ऐसे तमाम आदेश हैं जहां विभागीय जांच प्रक्रियाएं दिशानिर्देश के अनुरूप नहीं पाई गईं। हालांकि आमतौर पर अदालत विभागीय प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं करती बशर्ते कि प्रक्रिया के उल्लंघन के ठोस सबूत न हों। अलग-अलग बैंकों में एक जैसी गलतियों के लिए प्रक्रियाओं और दंड की प्रकृति अलग होती है। एक मामले में एक महाप्रबंधक के विरुद्ध विभागीय जांच एक दिन में पूरी हो गई थी और आरोप खारिज हो गए थे। ऐसा इसलिए किया गया ताकि उनकी पदोन्नति बाधित न हो क्योंकि अगले हफ्ते उनकी पदोन्नति का साक्षात्कार था। ऐसे भी मामले रहे हैं जहां अधिकारियों के समूह के खिलाफ आरोप थे लेकिन उनमें से एक को बरी कर बाकियों पर जांच चलती रही। यह सब इस पर निर्भर करता है कि आपके कितने मजबूत संपर्क हैं। आंकड़ों के मुताबिक 2023 में मुख्य सतर्कता आयोग को 2,661 शिकायतें मिलीं जिनमें 554 शिकायतें तो साल 2022 की थीं। इनमें से 1995 शिकायतें निपटा दी गईं जबकि 706 लंबित रहीं। सतर्कता आयोग की 2023 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष2019 में 1,508 अधिकारियों को दंडित किया गया। वर्ष 2020 में यह आंकड़ा 2,652 और 2021 में 2,476 था। वर्ष2022 में 1,987 अधिकारियों को दंडित किया गया और 2023 में 1,509 अधिकारियों को दंडित किया गया।
यह डर सरकारी बैंकों के अधिकारियों को हमेशा निर्णय लेने से रोकता है। जितने कम निर्णय लिए जाएंगे मुश्किल में फंसने की उतनी ही कम संभावना होगी। दूसरी ओर सही निर्णय लेने पर कोई पुरस्कार नहीं मिलता। इस डर के अभाव में निजी बैंकों के कर्मचारी आक्रामक तरीके से कदम उठाते हैं और कारोबारी निर्णय लेते हैं। आश्चर्य नहीं कि सरकारी बैंक अपनी बाजार हिस्सेदारी उनके हाथों गंवा रहे हैं।
मुख्य सतर्कता आयोग ने सतर्कता के मामलों के समय पर निपटान पर जोर दिया है। गत माह उसने एक सर्कुलर जारी करके अधिकारियों से कहा कि वे जल्दबाजी के निर्णयों पर नजर डालें। उसने जोर देकर कहा कि वाणिज्यिक स्तर पर जोखिम लेना कारोबार का हिस्सा है और किसी सरकारी संगठन को हर नुकसान की जांच जरूरी नहीं है, फिर चाहे वित्तीय हो या कोई और। हाल में आई एक खबर के मुताबिक सरकारी बैंकों के भीतर एक कार्य समूह कर्मचारियों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए मानक परिचालन प्रक्रिया के दिशानिर्देश तैयार कर रहा है। अब उम्मीद करनी चाहिए कि एक बार इसके बन जाने के बाद सरकारी बैंकों के कर्मचारियों के सिर पर हमेशा तलवार नहीं लटकेगी।