डॉनल्ड ट्रंप की कितनी भी बुराई कर ली जाए मगर इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि वह कुछ न कुछ करते रहते हैं। टैरिफ, आप्रवासन, यूक्रेन युद्ध, फिलस्तीन का संघर्ष, सरकारी नौकरियों में कटौती – तूफानी रफ्तार के साथ वह कदम उठा रहे हैं और कार्यकारी आदेश जारी कर रहे हैं। अमेरिकी शेयर बाजार लुढ़क रहे हैं। यूरोप में अमेरिका के सहयोगी हताश हैं। दुनिया भर के नेता ट्रंप के शुल्कों यानी टैरिफ के असर से निपटने की तैयारी में लगे हैं।
आलोचकों को लगता है कि ट्रंप उन विचारों के पीछे पूरी दुनिया में अफरातफरी मचा रहे हैं, जिन पर खुद उन्होंने ठोस तरीके से नहीं सोचा है। ट्रंप के पहले कार्यकाल में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे जॉन बोल्टन अब उनके सबसे कटु आलोचक हैं। वह कहते हैं कि राष्ट्रपति के पास न कोई दर्शन है और न कोई नीति। वह अपनी छवि चमकाने के लिए यह सब कर रहे हैं।
ट्रंप के आलोचक उन्हें कम आंक रहे हैं, बिल्कुल वैसे ही जैसे 2020 के चुनाव में जो बाइडन से हारने के बाद आंका था। आलोचकों ने कल्पना भी नहीं की थी कि बाइडन प्रशासन के इशारे पर उनके खिलाफ काम कर रही कानूनी मशीनरी से जूझकर ट्रंप दोबारा राष्ट्रपति बन जाएंगे। और अब ट्रंप का अपने चुनावी वादे पूरे करना उनके गले नहीं उतर रहा है। असल में समझदार नेताओं से ऐसा करने की उम्मीद भी नहीं होती क्योंकि वे तो केवल वोट पाने के लिए चुनावी वादे करते हैं।
ट्रंप गंभीर हैं और इसे समझने के लिए सितंबर 2022 में प्रकाशित पीटर नावारो की किताब ‘टेकिंग बैक ट्रंप्स अमेरिका’ पढ़नी चाहिए। नावारो ट्रंप के पहले कार्यकाल में व्यापार नीति सलाहकार थे और इस बार भी वही जिम्मेदारी उनके पास है। उन्हें ट्रंप का भरोसेमंद सहयोगी माना जाता है और उनके करीबियों में गिना जाता है।
नावारो ने बड़ी मुश्किलों के साथ ट्रंप का भरोसा जीता है। उन्होंने 2020 के चुनाव नतीजे पलटने के मामले में ट्रंप की कथित भागीदारी पर अमेरिकी संसद की सेलेक्ट कमेटी के सामने गवाही देने से इनकार किया था। उन्हें संसद की अवमानना के लिए चार महीने की कैद हुई थी।
नावारो कोई ऐसी-वैसी शख्सियत नहीं हैं। उन्होंने हार्वर्ड से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की डिग्री पाई है और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के इरविन बिजनेस स्कूल में प्रोफेसर रह चुके हैं। वह व्हाइट हाउस के भीतर की चालों और साजिशों के बारे में बहुत रोचक और बिंदास तरीके से लिखते हैं। अगर आप नावारो को पढ़ लेंगे तो जो कुछ अब दिख रहा है एकदम समझ आ जाएगा। उनके लिखे का सार इस तरह है:
ट्रंप 2016 में राष्ट्रपति का चुनाव जीते थे और बकौल नावारो वह लोकलुभावन आर्थिक राष्ट्रवाद के वादे पर जीते थे। उनके वादे थे: शुल्क की मदद से आयात बाहर रखकर अमेरिकी विनिर्माण को पटरी पर लौटाना, अवैध आप्रवासियों पर कार्रवाई, चीन के साथ कड़ाई और न खत्म होने वाली जंगों से अमेरिकी सैनिकों को घर वापस बुलाना।
ट्रंप राजनीति और वॉशिंगटन में नए थे और उन्होंने सत्ता प्रतिष्ठान के लोगों को अपनी टीम में अहम जिम्मेदारी देकर गलती की। वे लोग खांटी वैश्विकवादी और यथास्थितिवादी थे, जो ट्रंप की नीतियों के लिए खास काम के नहीं थे। सत्ता प्रतिष्ठान में छिपे भेदियों ने उन्हें गुमराह करने और एजेंडा विफल करने की हरमुमकिन कोशिश की। नावारो तत्कालीन अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि रॉबर्ट लाइटहाइजर के हवाले से कहते हैं कि ट्रंप के प्रशासन में केवल दो तरह के लोग थे: पहले, जिन्हें लगता था कि दुनिया को राष्ट्रपति ट्रंप से बचाना है और दूसरे, जिन्हें लगता था कि ट्रंप ही दुनिया को बचाएंगे। मगर ज्यादातर वक्त तक पहले वाले ही हावी रहे।
नावारो कहते हैं यह मामला खराब कर्मियों और खराब प्रक्रिया की वजह से खराब नीति और खराब राजनीति का था। इनमें से कई बुरे कर्मियों को बाद में निकाल दिया गया मगर ट्रंप को उनकी हरकतें देर से समझ आईं। 2020 के चुनाव आए तो जिन्होंने ट्रंप को वोट दिया था वे नतीजों से नाखुश दिखे। आर्थिक राष्ट्रवाद के मोर्चे पर नाकामी के कारण ट्रंप 2020 में बाइडन से मामूली अंतर से हार गए।
बाइडन प्रशासन मतदाताओं में व्यापक असंतोष की जड़ खास तौर पर काम विदेश में भेजने और आप्रवासन बढ़ने के कारण घटे रोजगार का समाधान करने में नाकाम रहा। 2024 के राष्ट्रपति चुनाव में मतदाताओं ने ट्रंप के लोकप्रिय आर्थिक राष्ट्रवाद को हाथोहाथ लिया और उन्हें 2016 से भी तगड़ी जीत दिलाई।
ट्रंप ने पहले कार्यकाल की नाकामियों से सबक लेते हुए तय किया है कि इस बार उनका प्रशासन वफादारों से भरा रहेगा, जो उनके अभियान को आगे ले जाएं। वह अच्छी तरह जानते हैं कि कुछ अरसा बाद वॉशिंगटन का प्रतिष्ठान एकजुट होकर उन पर हमला करेगा। यही वजह है कि ट्रंप जल्दबाजी में हैं।
नावारो उस आर्थिक त्रिकोण की तीन भुजाओं का भी जिक्र करते हैं, जो ट्रंप का मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) का सपना पूरा करेगा।
पहली है अमेरिकी विनिर्माण को मजबूत बनाना। ऐसा ऊंचे शुल्क लगाकर और अमेरिकी माल खरीदने तथा अमेरिकियों को नौकरी पर रखने जैसी नीतियों से हासिल होगा।
दूसरी भुजा है अवैध प्रवासियों पर कार्रवाई। अमेरिकी मतदाताओं की नाराजगी की बड़ी वजह यह भी है कि कम वेतन में काम करने को तैयार विदेशी नागरिक अमेरिकी कर्मचारियों की नौकरी छीन रहे हैं।
तीसरा कदम है अमेरिका के अंतहीन युद्धों का समापन। नावारो कहते हैं, ‘ये निरर्थक युद्ध हैं, जिनमें अमेरिकी अर्थव्यवस्था के खरबों डॉलर लग गए। यह रकम सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ के लिए खर्च की गई, जबकि उसका इस्तेमाल बुनियादी ढांचे को आधुनिक बनाने, स्कूल सुधारने और कर कम करने में हो सकता था।’
एक बात समझ लीजिए: ट्रंप लगभग रोज ही अपने एजेंडा का जिक्र करते हैं तौ उनका मकसद चिढ़ाना, मोलभाव करना नहीं होता। पिछले सात हफ्तों में जो कुछ हुआ है, वह योजना के मुताबिक है। ट्रंप विश्व व्यवस्था को नया रूप देने पर अड़े हुए हैं। उन्हें पता है कि उनकी योजनाएं हर किसी को परेशान कर डालेंगी। वह स्वीकार करते हैं कि अमेरिका को भी कुछ समय तक दिक्कतें होंगी। आशावादियों को लगता है कि इसका मतलब महंगाई में 1 फीसदी इजाफा है। ट्रंप ने अमेरिका में मंदी की संभावना खारिज नहीं की हैं, जिससे बाजारों में हड़कंप रहा है। मगर ट्रंप को यकीन है कि उनकी नीतियों से जो भी उथलपुथल होगी, उसमें से अमेरिका विजेता बनकर निकलेगा।
हालिया इतिहास बताता है कि अमेरिका को वैश्विक उथलपुथल से डरने की जरूरत नहीं। पिछले दो दशक में हमने वैश्विक वित्तीय संकट, यूरो संकट, कोविड संकट, यूक्रेन विवाद और पश्चिम एशिया का घटनाक्रम देखा। दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद में अमेरिका की हिस्सेदारी 2008 में 23 फीसदी थी, जो 2023 में बढ़कर 26 फीसदी हो गई। ट्रंप के पास यह मानने की वजह है कि अमेरिका विश्व व्यवस्था को अपने फायदे के लिए बदलने लायक आर्थिक और राजनीतिक रसूख रखता है।