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देश के लिए अनिश्चितता भरा फिलवक्त

Last Updated- December 14, 2022 | 8:28 PM IST

अमेरिकी बेसबॉल दिग्गज योगी बेरा के परिहास काफी दिलचस्प होते थे। उनमें से एक यह भी है कि भविष्य के बारे में भविष्यवाणी करना मुश्किल होता है। 12 फरवरी, 2002 को अमेरिका के तत्कालीन रक्षा मंत्री डॉनल्ड रम्सफेल्ड ने इराक का जिक्र करते हुए कहा था, ‘कुछ जानी-पहचानी बातें होती हैं। हमें यह भी पता है कि कुछ ज्ञात अज्ञात भी होते हैं। लेकिन कुछ बातें अनजान अज्ञात होती हैं।’ लेख के साथ दी गई सारिणी भारत के समक्ष विद्यमान हालात का एक नमूना पेश करती हैं। सारिणी के तीसरे कॉलम का शीर्षक ‘अनजाने अज्ञात’ होने के बावजूद कुछ अनुमान लगाए गए हैं।

सारिणी में दर्ज तमाम अनिश्चितताओं को देखते हुए भारत की शीर्ष प्राथमिकता कोविड-19 महामारी और गिरती हुई अर्थव्यवस्था से निपटने की है। लगता है कि जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को कोविड का टीका लगाने में वर्ष 2021 के अंत तक का समय लग जाएगा। अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर साफ है कि सरकारी बॉन्ड सीधे खरीदने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) का नोट छापने से जुड़ा नैतिक जोखिम मोल लेना बढ़ी हुई बेरोजगारी और महामारी की वजह से करोड़ों कम-कुशल लोगों की जिंदगी बदहाल होने की तुलना में कम है।
क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी (आरसेप) में बने रहने की स्थिति में भारत के व्यापार असंतुलन को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया था। वर्ष 2015 से भारत ने इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों, कपड़ों और फर्नीचर पर समय-समय पर आयात शुल्क बढ़ाए हैं। यह संरक्षणवादी रवैया भारत के लिए काफी भारी पड़ेगा। वर्ष 2019-20 में भारत के उत्पाद निर्यात का 47 फीसदी हिस्सा एशियाई देशों को किया गया। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के समूह आसियान, चीन और जापान के अलावा ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड (ये सभी आरसेप का हिस्सा हैं) भारत के अहम साझेदार होंगे। भारत अगर घरेलू विनिर्माण को प्रोत्साहन देकर कम-कुशल कामगारों के लिए रोजगार अवसर बढ़ाता तो अपने लिए अपवाद की स्थिति भी पैदा कर सकता था।
निश्चित रूप से भारतीय अर्थव्यवस्था की रिकवरी की रफ्तार इस पर निर्भर करेगी कि आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) के बड़े देश महामारी से उपजे तनावों से कितनी जल्द उबर पाते हैं? इस अंतराल में आय अपर्याप्त बने रहने की स्थिति में सामाजिक सौहार्द बिगडऩे एवं हिंसा के हालात बनने की आशंका को कम करके आंका जा रहा है। सांप्रदायिक भावनाओं को उछालकर या पाकिस्तान एवं चीन से उत्पन्न खतरों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर हालात से ध्यान भटकाने की कोई भी रणनीति उल्टे नतीजे देने वाली ही होगी।
वर्ष 2021 के अंत तक चीन आर्थिक रूप से शायद और अधिक मजबूत बनकर उभरेगा। ऐसा कोविड-19 के बारे में बाकी दुनिया को आगाह करने में बरती गई देरी के चलते पैदा हुए प्रतिकूल हालात के बावजूद होगा। हालांकि चीन को इसकी कीमत पश्चिमी तकनीक तक पहुंच की राह में अड़चनों के तौर पर चुकानी पड़ सकती है। हॉन्ग कॉन्ग एवं तिब्बत पर चीन का व्यवहार और उइगर मुसलमानों के साथ उसके तौर-तरीकों को पश्चिमी मीडिया अधिक मुखरता से दिखा सकता है जिससे चीन लद्दाख में अपने आक्रामक रवैये में कमी लाने को मजबूर हो सकता है। वित्तीय क्षेत्र में आई 2008 की मंदी ने दिखाया था कि विकसित देशों खासकर अमेरिका एवं ब्रिटेन का कुलीन वर्ग वित्तीय सेवाओं की जबरदस्त वृद्धि से किस हद तक अभिभूत था। पश्चिमी देश इस मिथक में यकीन करते रहे कि रोजगार का समुचित स्तर केवल उत्साही सेवा क्षेत्र के दम पर ही कायम रखा जा सकता है। आरबीआई ने हाल ही में सिफारिश की है कि निजी औद्योगिक घरानों को भी भारत में बैंक खोलने की अनुमति दी जाए। भारतीय बैंकों की सकल गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (जीएनपीए) का करीब 75 फीसदी हिस्सा बड़ी घरेलू कंपनियों पर ही बकाया है। इस तथ्य से पता चलता है कि आरबीआई का यह सुझाव जाहिर तौर पर सुविचारित नहीं है। इसके उलट चीन ने विनिर्माण क्षेत्र में असाधारण प्रदर्शन किया है। उसके अधिकांश अपतटीय वित्तीय संस्थानों पर सरकार का सीधा नियंत्रण है। अनगिनत बार यह कहा जा चुका है कि भारत में औपचारिक रोजगार का दायरा बढ़ाने का एकमात्र तरीका छोटे, मझोले एवं बड़े स्तर पर विनिर्माण गतिविधियों को प्रोत्साहन देना ही है और इसके लिए सरकार को फौरन कदम उठाने की जरूरत है। अगर भारत सरकार इस सिद्धांत को नजरअंदाज करती है तो वार्षिक जीडीपी वृद्धि 4 फीसदी या उससे भी नीचे आ सकती है। हम अभागे भारतीय योगी बेरा की एक और टिप्पणी को याद करें तो यही कहेंगे कि ऐसा होने पर हमें एक बार फिर पूर्वानुभव (देजा वू) का अहसास होगा।
(लेखक भारत के पूर्व राजदूत एवं विश्व बैंक के वित्त पेशेवर हैं)

First Published - December 7, 2020 | 11:29 PM IST

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