हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने चुनिंदा भारतीय निर्यातों पर 25 फीसदी का शुल्क लगा दिया और बहुत जल्दी उन्होंने इसे बढ़ाकर 50 फीसदी करने की घोषणा कर दी क्योंकि भारत रूस से निरंतर कच्चे तेल का आयात कर रहा है। इस प्रकार का दंडात्मक शुल्क प्राय: शत्रु देशों पर लगाया जाता है। अगर इसे जल्दी वापस नहीं लिया गया तो यह भारत से अमेरिका को होने वाले पारंपरिक निर्यात मसलन वस्त्र, चमड़ा तथा रत्न एवं आभूषण आदि को काफी नुकसान पहुंचाने वाला साबित होगा।
भारत ने इसे लेकर जो राजनीतिक प्रतिक्रिया दी है वह अवज्ञा और चरम राष्ट्रवाद का मिलाजुला रूप रही है जिसमें किसानों, श्रमिकों, उद्यमियों, उद्योगपतियों, निर्यातकों और छोटे कारोबारियों के हितों का बचाव करने की बात कही गई है। नीति आयोग के पूर्व कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कांत ने इस शुल्क को ‘किसी पीढ़ी में एक ही बार आने वाला क्षण’ बताया। फिल्मी भाषा में कहें तो अग्निपथ जैसा निर्णायक मोड़। महिंद्रा समूह के चेयरमैन आनंद महिंद्रा ने इसे ‘वैश्विक मंथन’ करार दिया और कहा कि इस व्यापारिक उथलपुथल से हुए मंथन में अमृत जैसा कुछ निकल सकता है। क्या ऐसे अनुमान हकीकत के करीब हैं?
ऐसे हर सुझाव के साथ कारोबारी जगत के नेतृत्वकर्ता उन पुरानी ढांचागत कमियों को रेखांकित कर रहे हैं जो हर सरकार के कार्यकाल में नजर आई हैं और जिनका जिक्र हर संकट के समय किया गया है। भारत में मौजूद बेहतरीन पर्यटन संभावनाएं गंदगी, व्यक्तिगत स्वच्छता, बार-बार मचने वाली भगदड़, कमजोर पड़ती अधोसंरचना, ऐतिहासिक इमारतों की आपराधिक अनदेखी, लगातार अवैध निर्माण आदि से प्रभावित होती हैं जिनमें स्थानीय राजनेताओं के निजी हित शामिल होते हैं। ऐसे में पर्यटन पर निर्भर छोटे-मोटे कारोबारों को भारी भरकम कीमत चुकानी पड़ती है। पंचायत से लेकर केंद्र तक कमजोर शासन के चलते इनसे निजात पाना मुश्किल है। अगर महिंद्रा जैसे नेता सही में कुछ जमीनी बदलाव लाने में मदद कर सकें तो नतीजे एकदम अलग होंगे। परंतु सरकार तो खस्ता होती शहरी परिवहन व्यवस्था को ठीक करने के मसौदे को तैयार करने तक में उन्हें शामिल नहीं करती जबकि इससे रोज सफर करने वाले लाखों लोग प्रभावित होते हैं।
यहां तक कि 2008 के वित्तीय संकट के बाद भी कोई सुधार देखने को नहीं मिला था। केवल पश्चिम की नकल की गई जिससे मुद्रास्फीति और फंसे कर्ज बढ़ गए। सबसे अहम बात यह है कि क्या ट्रंप के अनियंत्रित टैरिफ ने भारत के लिए संकट पैदा कर दिया है? शायद उतना भी नहीं। रेटिंग एजेंसी मूडीज का कहना है कि भारतीय निर्यात पर नया अमेरिकी शुल्क निकट भविष्य में भारत के सकल घरेलू उत्पाद पर बमुश्किल 30 आधार अंकों का असर डालेगा। इससे छोटे निर्यातकों को दिक्कत होगी और कुछ रोजगार जाएंगे लेकिन इससे न तो निवेशक बहुत प्रभावित होंगे न बाजार और न ही सरकार पर इतना दबाव बनेगा कि वह ‘कुछ करने’ पर मजबूर हो जाए।
भारत के सुधारों का आधार धीमे और आधे अधूरे मन से किए गए उपायों की एक श्रृंखला है और इस दौरान यह सुनिश्चित किया जाता है कि अफसरशाही का नियंत्रण बना रहे और भ्रष्टाचार का चक्र अप्रभावित रहे। जवाबदेही अत्यंत कम है और इसलिए प्रतिस्पर्धी क्षमता पर इसक प्रभाव भी बहुत कम है। परंतु एक उल्लेखनीय बदलाव देखने को मिला है। मोदी सरकार राजस्व संग्रह के क्षेत्र में काफी आक्रामक रही है। सकल कर राजस्व और सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात 11.7 फीसदी हो गया जबकि इस दौरान सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 6.5 रही। इससे पहले 2007-08 में जब वृद्धि दर 9 फीसदी थी तब सकल कर राजस्व 11.9 फीसदी था।
सरकार का इरादा एकदम स्पष्ट रहा है। उसने अपनी प्राथमिकताओं को हासिल करने की दिशा में काम किया है: कर, उपकर और शुल्क लगाना और उन्हें वसूल करना। राजमार्गों से हासिल होने वाले टोल संग्रह की राशि वित्त वर्ष 26 में 80,000 करोड़ रुपये पहुंच जाएगी जो 2018-19 से 18 फीसदी की समेकित वृद्धि है। प्रतिभूति लेनदेन कर के भी वित्त वर्ष 23 के 25,085 करोड़ से बढ़कर वित्त वर्ष26 में 69,000 करोड़ रुपये हो जाने की उम्मीद है। यह 40 फीसदी की सालाना चक्रवृद्धि को दर्शाता है। ऐसी भारी आवक सामाजिक योजनाओं और सरकार के पूंजीगत व्यय के लिए गुंजाइश तैयार करती है। परंतु इससे उत्पादकता अथवा प्रतिस्पर्धा में सुधार नहीं हुआ।
देश के उद्यमी जगत के नेतृत्वकर्ताओं के पास विचारों की कमी नहीं है, लेकिन उनमें इन विचारों को क्रियान्वित करने की इच्छाशक्ति का अभाव नजर आया है। कारोबारी सुगमता को बेहतर बनाने की राजनीतिक आवश्यकता महसूस नहीं की जा रही है, न ही लॉजिस्टिक्स की लागत कम करने, फैक्ट्री कर्मियों को प्रशिक्षित करने और लालफीताशाही कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं। निश्चित तौर पर सरकार इन सभी क्षेत्रों के लिए आसानी से योजनाएं शुरू कर सकती है।
परंतु इसका एक निष्कर्ष जिसे नकारा नहीं जा सकता है वह यह है कि विनिर्माण जीडीपी के 14 फीसदी के स्तर पर ठहरा हुआ है, देश की निर्यात प्रतिस्पर्धा कमजोर है और कारेाबारी नियमित रूप से यह शिकायत करते हैं कि उन्हें कुशल श्रमिक नहीं मिल रहे हैं या उन्हें छोटी मोटी रिश्वत के लिए तंग किया जाता है। संसद में पूर्ण बहुमत में रहते हुए जब सरकार ने यह सब नहीं किया तो अब गठबंधन सरकार में ये सुधार कैसे किए जाएंगे वह भी तब जबकि आर्थिक दबाव भी 1991 की तुलना में बहुत कम है।