मीडिया में ऐसे आलेखों और खबरों की भरमार है जिनमें डॉनल्ड ट्रंप के कार्यकाल के 100 दिनों का विश्लेषण किया गया है। सोशल मीडिया पर असाधारण स्तर पर अस्थिरता और बाजार संबंधी पोस्ट शेयर की जा रही हैं। ट्रंप ने पहले 100 दिनों में जितने आदेशों पर हस्ताक्षर किए हैं उतने किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने नहीं किए हैं। अगर थोड़ा ठहर कर ट्रंप के इस दूसरे कार्यकाल के 100 दिनों के बारे में सोचा जाए तो कुछ व्यापक रुझान नजर आते हैं।
इस दौरान सबसे बड़ी थीम रही व्यापार और टैरिफ को लेकर नए किस्म के विचार। 1930 के दशक से ही अमेरिका में सबसे अधिक टैरिफ हैं। अगर हम यह मान भी लें कि अंतत: दुनिया के अन्य देशों पर 10 फीसदी का सामान्य टैरिफ और चीन पर करीब 60 फीसदी का टैरिफ लागू होगा तथा कुछ क्षेत्रों में विशेष टैरिफ होंगे और रियायतें दी जाएंगी, तो भी कुल व्यापार के बरअक्स संग्रहीत शुल्क करीब 15 फीसदी होगा जो ट्रंप के पहले के दौर में 2.5 फीसदी था। यह व्यापार को बुनियादी रूप से बदल देगा और आपूर्ति श्रृंखलाओं का भी स्वरूप बदल देगा।
जहां तक पहले 100 दिनों में बाजार की स्थिति की बात है, सोने का प्रदर्शन असाधारण रहा है। वह अब तक के उच्चतम स्तर पर पहुंच चुका है और उसकी कीमतें 20 फीसदी से अधिक बढ़ी हैं। यूरोपीय बाजारों के शेयर दूसरे सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाले रहे। जर्मनी के बाजारों ने डॉलर के संदर्भ में 15 फीसदी से अधिक की वृद्धि हासिल की। हॉन्ग कॉन्ग में हैंग सेंग और व्यापक यूरो स्टॉक्स 600 का नंबर इसके बाद है, दोनों में 10 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई। सबसे बुरा प्रदर्शन तेल का रहा जो 20 फीसदी तक टूट गया। मैग्निफिशेंट 7 सूचकांक 15 फीसदी नीचे तथा नैस्डैक 10 फीसदी नीचे है।
अमेरिकी डॉलर का प्रदर्शन भी कमजोर रहा है। सन 1969 से यानी जब से रोजाना के आंकड़े उपलब्ध हैं तब से अब तक के ये डॉलर के सबसे खराब 100 दिन रहे हैं। अर्थव्यवस्था की बात करें तो उपभोक्ताओं और कारोबार दोनों का आत्मविश्वास चकनाचूर हुआ है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लगभग हर अग्रिम संकेतक की स्थिति तेजी से खराब हो रही है। रोजगार और ऑर्डर के आंकड़े फिलहाल मजबूत हैं लेकिन 2025 में अमेरिका में मंदी आने की आशंका 60 फीसदी तक हो गई है। दैनिक राजकोषीय व्यय में कोई खास सुधार नहीं नजर आ रहा है। व्यय में 160 अरब डॉलर की कटौती की बात भी बढ़ाचढ़ा कर की गई प्रतीत होती है। अधिकांश निष्पक्ष टीकाकारों का मानना है कि वास्तविक बचत 60-70 अरब डॉलर के करीब है।
लिबरेशन डे को लेकर मची उथलपुथल और बाजार की अस्थिरता को देखते हुए कोई भी यह सोच सकता था कि निवेशकों ने अमेरिका से उम्मीद छोड़ दी है। कुछ टिप्पणियों का स्वर तो ऐसा था मानो अमेरिका अब निवेश करने लायक ही नहीं रहा। परंतु तथ्य इससे अलग हैं। चकित करने वाली बात यह है कि लिबरेशन डे के बाद शुरुआती गिरावट के पश्चात अधिकांश बाजारों ने वापसी कर ली है। 10 वर्ष की अमेरिकी ट्रेजरी की यील्ड अब दोबारा उसी स्तर पर आ गई है जहां वह 2 अप्रैल के पहले थी। बल्कि देखा जाए तो अमेरिकी बॉन्ड यील्ड के लिए ये दूसरे सबसे बेहतर 100 दिन साबित हुए हैं। नैस्डैक भी दो अप्रैल के अपने स्तर से ऊपर निकल गया है और एसऐंडपी 500 भी ज्यादा पीछे नहीं है। इकलौती परिसंपत्ति जो लिबरेशन डे के बाद गिरावट पर है, वह है डॉलर।
बाजार के संदेश मंदड़ियों की टिप्पणियों से अलग हैं। अमेरिकी शेयर और बॉन्ड दोनों लिबरेशन डे के पहले के स्तर से ऊपर हैं। मुझे यह बात चकित करती है। कुछ दीर्घकालिक रुझान एकदम स्पष्ट हैं और यह समझना मुश्किल है कि बाजार इतने बेपरवाह क्यों हैं?
एक रुझान पोर्टफोलियो के पुनर्संतुलन का है और मार्जिन का धन अमेरिका से दूर जा रहा है। बीते 15 साल में अमेरिका ने हर बाजार को पीछे छोड़ दिया और इसलिए दुनिया भर की पूंजी वहां पहुंची। बीते दशक में एसऐंडपी 500 ने 15 फीसदी का चक्रवृद्धि रिटर्न दिया जबकि इसकी तुलना में अन्य वैश्विक शेयरों ने महज 7 फीसदी का। वैश्विक शेयर सूचकांकों में अमेरिका का भार 70 फीसदी तक हो गया। कुछ अनुमानों के मुताबिक करीब 20 लाख करोड़ डॉलर की पूंजी अमेरिकी वित्तीय बाजारों में लगी। अब वह पूंजी वापस जा रही है। मार्जिन पर लगी पूंजी अमेरिका से बाहर चली जाएगी। यह विचार पहले ही वैश्विक आवंटकों में नजर आ रहा है। उन्हें पता है कि उन्होंने अमेरिकी परिसंपत्तियों में काफी धन लगा दिया है। कमजोर डॉलर, ट्रंप की नीतियों और अमेरिका के कमजोर प्रदर्शन के शुरुआती संकेत आदि नए सिरे से पोर्टफोलियो संतुलन की वजह हैं।
दूसरा, यह स्वाभाविक है कि ट्रंप टैरिफ का अंतत: चाहे जो भी हो, वे अमेरिका के मुनाफा कमाने की क्षमता पर असर डालेंगे। आउटसोर्सिंग अमेरिकी कंपनियों के नेतृत्व में ही हुई है। उन्हें पूंजी गहन विनिर्माण को चीन और सेवाओं को भारत आउटसोर्स करने में महारत रही है। इसकी इकलौती वजह है कम लागत। विकल्प दिए जाने पर यह हमेशा बेहतर होता है कि आपके कर्मचारी और विनिर्माता आपके करीब हों। काम को दूर आउटसोर्स करने की अपनी जटिलताएं हैं। ऐसा केवल तभी किया जाता है जब लागत में 15-20 फीसदी की कमी आए। अगर टैरिफ की इस जंग की वजह विनिर्माण को अमेरिका वापस लाना है तो यह कारोबारी मार्जिन पर असर डालेगा क्योंकि अमेरिका में विनिर्माण महंगा है। हर कंपनी ऊंची लागत का बोझ नहीं सह सकती। अमेरिकी कंपनियों के मार्जिन उच्चतम स्तर के करीब हैं। इक्विटी पर रिटर्न करीब 16 फीसदी है। आने वाले वर्षों में दोनों में कमी आएगी। मुझे नहीं लगता है कि यह आय के अनुमानों में नजर आएगा।
तीसरा, अमेरिका में मुद्रास्फीतिजनित मंदी का माहौल बनने का खतरा है। तब मुद्रास्फीति मौजूदा स्तर से अधिक होगी और वृद्धि कम। यह शेयरों के लिए सही स्थिति नहीं होती। कम से कम, अमेरिका में मंदी की आशंका काफी बढ़ गई है। सामान्य मंदी में आय में 15-20 फीसदी की कमी होती है और बाजार पर भी असर होता है। यह आज के अधिकांश बाजार कारोबारियों के अनुमानों में दूर-दूर तक शामिल नहीं है। लिबरेशन डे के बाद की तेजी को देखते हुए बाजार आगामी मंदी के लिए तैयार नहीं दिखते। वे अधिक से अधिक अल्पकालिक मंदी की अपेक्षा कर सकते हैं या फेडरल रिजर्व से उम्मीद कर सकते हैं कि वह उनका बचाव करेगा।
चौथा, भारत को कभी भी वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में शामिल होने का ऐसा अवसर नहीं मिलेगा। ट्रंप टैरिफ के कारण कंपनियों को चीन से दूरी बनानी होगी। हकीकत यह है कि भूराजनीतिक तनाव को हटा दें तो ऐपल जैसा बहुराष्ट्रीय निकाय कभी अपनी आपूर्ति श्रृंखला को चीन से परे नहीं ले जाना चाहेगा। वहां लागत कम है, पैमाना बड़ा है और उसके पास इतनी क्षमता है जो शायद किसी और देश में नहीं। हम 25 साल पहले अवसर गंवा चुके हैं। उस समय चीन के विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने के बाद नई आपूर्ति श्रृंखलाएं स्थापित हुई थीं। हमें एक और अवसर मिल रहा है। हम इस बार उसे नहीं गंवा सकते।
मैं वाकई इस बात को लेकर चकित हूं कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में बाजार कितनी आसानी से नीतिगत झटकों से उबर गए। ऐसी धारणा रही है कि अमेरिका के वित्तीय बाजारों के उम्दा प्रदर्शन की क्षमता को कोई भी स्थिति तोड़ नहीं सकती लेकिन अब इस मान्यता की परीक्षा की घड़ी है।
(लेखक अमांसा कैपिटल से जुड़े हैं)