प्रतीकात्मक तस्वीर
अमेरिका को फिर से महान बनाने के लिए डॉनल्ड ट्रंप जो कारोबारी कदम उठा रहे हैं उन्होंने वैश्विक व्यापार व्यवस्था को बुरी तरह झिंझोड़ दिया है। ट्रंप के निशाने पर मुख्यरूप से चीन है। कुछ देश अमेरिका के साथ समझौता करना चाहते हैं। भारत के वार्ताकारों को भी दीर्घकालिक रणनीति को ध्यान में रखकर काम करना चाहिए ताकि देश की औद्योगिक क्षमताओं को और अधिक गहरा बनाया जा सके, जो कई मायनों में चीन से पीछे हैं। जापान और चीन के औद्योगिक विकास का इतिहास हमें उपयोगी सबक देता है। वे अमेरिका के साथ कारोबारी सौदों के लिहाज से भारत की तुलना में बहुत मजबूत स्थिति में हैं। अमेरिका को उनके विनिर्माताओं की आवश्यकता है और वे अपने विशाल व्यापार अधिशेष को अमेरिकी राजकोष में निवेश करके अमेरिकी अर्थव्यवस्था को सहारा देते हैं।
जापान और चीन ने रणनीतिक रूप से मजबूत विनिर्माण उद्योगों का निर्माण किया। प्रतिस्पर्धी लाभ के सिद्धांत के आधार पर मुक्त व्यापार दीर्घावधि में हर किसी को लाभ प्रदान करता है। अगर हर देश केवल वही उत्पादन करता जो वह दूसरों से बेहतर कर सकता है और दूसरों से वही खरीदता जो दूसरे बेहतर उत्पादित कर पाते हैं, तो दुनिया भर में सभी लोग किफायती और उत्कृष्ट उत्पादों से लाभान्वित होते।
सैद्धांतिक नज़रिये के साथ दिक्कत यह है कि जिंस को छोड़ दिया जाए तो प्रतिस्पर्धी बढ़त स्थिर नहीं रहती। औद्योगीकरण एक प्रक्रिया है जहां उद्यमी उन क्षमताओं को सीखते हैं जो उनके पास पहले नहीं थीं। व्यापार प्रबंधन प्रतिस्पर्धी बढ़त को बनाए रखने का तरीका है। हर वह देश जिसने प्रभावी ढंग से औद्योगीकरण किया (इनमें 19वीं सदी का अमेरिका शामिल है), उसने अपने उद्योगों की रक्षा की और साथ ही औद्योगिक क्षमताओं में इजाफा किया। औद्योगिक दृष्टि से उन्नत देश बौद्धिक संपदा पर अपने एकाधिकार का बचाव करते हैं। दूसरी तरफ, वे ‘संरक्षणवादी’ सरकारी नीतियों का हौवा खड़ा करके विकासशील देशों में उद्यमों के क्षमता विकास को रोकते हैं।
कम मुक्त से अधिक मुक्त व्यापार की ओर बढ़ने में आयात शुल्क को चरणबद्ध तरीके से कम करना शामिल है। किसी भी विकासशील अर्थव्यवस्था में तैयार उत्पादों को असेंबल करने वालों की संख्या उत्पादकों से हमेशा अधिक रहती है। असेंबल करना विनिर्माण का सबसे सरल रूप है। असेंबल करने वाले अंतिम उत्पाद को सीधे जनता को बेचते हैं। उनके ब्रांड अधिक नजर आते हैं और उन्हें मशीनरी आदि का उत्पादन करने वालों की तुलना में अधिक लोकप्रिय समर्थन मिलता है।
जब किसी अर्थव्यवस्था में खपत बढ़ती है तो असेंबल करने वाले भी तेजी से बढ़ते हैं। वे उपभोक्ताओं को कम कीमत पर उत्पाद मुहैया कराने के लिए कलपुर्जों के रियायती आयात की मांग करते हैं। उधर कलपुर्जे बनाने वाले मशीनों के रियायती आयात की मांग करते हैं ताकि वे अपनी उत्पादन लागत कम कर सकें। यह कारोबारी नीति आयातकों और असेंबल करने वालों को घरेलू पूंजीगत वस्तु निर्माताओं पर तरजीह देती है और धीरे-धीरे देश की औद्योगिक क्षमताओं में कमी आने लगती है। औद्योगिक प्रतिस्पर्धा की दृष्टि से इसके दीर्घकालिक परिणाम बहुत बुरे साबित होते हैं। भारत ने 1990 के दशक में औद्योगिक नीतियों को समय के पहले त्याग दिया। इसके विपरीत चीन के पूंजीगत वस्तु क्षेत्र का आकार भारत की तुलना में कई गुना अधिक हो गया और चीन द्वारा उच्च तकनीक आधारित निर्माण का निर्यात हमसे 48 गुना अधिक है।
जापान ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद रणनीतिक रूप से अपने उद्योगों को तैयार किया। औद्योगिक और व्यापारिक नीतियों को अंतरराष्ट्रीय व्यापार और उद्योग मंत्रालय यानी एमआईटीआई के माध्यम से समन्वित किया गया। इसमें जापान के उद्योग निर्माताओं को साथ लिया गया। सन 1990 तक जापान विनिर्मित वस्तुओं के मामले में दुनिया की फैक्टरी बन चुका था। इनमें वाहन और इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद और मशीनरी सभी शामिल थे।
उस समय चीन पूरी तस्वीर में कहीं नहीं था परंतु 2010 तक वह दुनिया की सबसे बड़ी फैक्ट्री बन गया। इसके लिए उसने नियम आधारित विश्व व्यापार संगठन और बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार संबंधित पहलू वाली व्यापार व्यवस्था को रणनीतिक ढंग से अपनाया, जिसने 1995 में टैरिफ और व्यापार पर सामान्य समझौते का स्थान लिया था।
मुक्त व्यापार कभी भी सही मायनों में निरपेक्ष व्यापार नहीं रहा। सबसे ताकतवर देश नियम बनाते हैं और जब वे नियम उनके अनुरूप नहीं रहते तो उन्हें बदल देते हैं। विश्व व्यापार संगठन के बाद औद्योगिक नीतियों को रोक दिया गया क्योंकि वे घरेलू उद्योगों को बचाती हैं। ट्रिप्स ने अमेरिका और पश्चिमी कंपनियों की बौद्धिक संपदा का बचाव किया जिसके जरिये वे वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में मूल्य निर्माण को नियंत्रित करती हैं। सच तो यह है कि चीन के उद्योगों ने अमेरिकी उद्योगों के तर्ज पर उत्पादन करना सीख लिया।
भारत की बात करें तो देश इस समय एक चौराहे पर खड़ा है। क्या उसे पश्चिमी व्यापारिक दबाव के सामने झुक जाना चाहिए या फिर अपनी औद्योगिक शक्ति तैयार करनी चाहिए? भारत एक बड़ा बाजार हो सकता है, विदेशी और घरेलू निवेशकों को आकर्षित कर सकता है बशर्ते कि देश में आय बढ़े तथा अधिक संख्या में लोग रोजगारशुदा हों और उनके कौशल में भी सुधार हो।
विभिन्न अर्थव्यवस्थाएं नई क्षमताएं सीखने की प्रक्रिया के सहारे आगे बढ़ती हैं। किसी देश की घरेलू उद्यमिता को वह सब करना सीखना चाहिए जो वे पहले नहीं कर पाती थीं। इन उद्यमों में काम करने वालों को भी नए कौशल सीखने चाहिए। भारत को श्रम बाजार के बारे में अपने नजरिये में बुनियादी बदलाव की जरूरत है। श्रमिक केवल उत्पादन के संसाधन नहीं हैं कि जरूरत खत्म हो जाने पर उनको खारिज कर दिया जाए। वे किसी देश की वृद्धिशील परिसंपत्ति हो सकते हैं ठीक वैसे ही जैसे जापान के श्रमिक बने। यानी नए कौशल सीखते हुए और उद्यमिता को नवाचार के माध्यम से बढ़ाते हुए उच्चस्तरीय तकनीक के साथ प्रतिस्पर्धा करते हुए।