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चुनावी ‘रेवड़ी’ की बहस को नया कलेवर देने की जरूरत

हमें विभिन्न पैमानों पर विश्व रैंकिंग के संदर्भ में अपनी पीठ थपथपाने के बजाय मानव पूंजी और उत्पादकता को राजनीति और चुनावी वादों का केंद्र बनाने पर जोर देने की दरकार है।

Last Updated- December 01, 2023 | 9:11 AM IST
The 'revdi' debate needs re-framing

देश में मुफ्त सेवाओं के रूप में रेवड़ियां बांटने और लोगों के कल्याण के लिए योजनाओं की पेशकश करने के बीच क्या अंतर है? अगर राजनीतिक क्षेत्र के मौजूदा आरोप-प्रत्यारोप को देखा जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि एक राजनीतिक दल की रेवड़ी दूसरे राजनीतिक दल के लिए कल्याणकारी कार्य है और अधिकांश कल्याणकारी योजनाएं, बाजार-पूंजीवाद को अपनाने वाले अभिजात्य वर्ग के लिए ‘रियायतें’ या ‘लोकलुभावन’ कदम है।

इस खींचतान में क्या उस सामान्य नागरिक की आवाज गुम नहीं है जिसके नाम पर यह विमर्श काफी तेज से बढ़ रहा है? गोरखपुर की गीता और हैदराबाद के हामिद की यह मांग है कि उनका परिवार और समुदाय, उत्पादन प्रक्रिया में उपयोगी माने जाने वाले व्यक्तिगत गुणों यानी ‘मानव पूंजी’ का अपना दायरा बढ़ाते हुए विभिन्न अवसरों में प्रतिभागी बनने के लिए अपनी क्षमता में सुधार करते हुए पैसे कमा पाएं और साथ ही यह सुनिश्चित करें कि उनकी आने वाली पीढ़ियां भी बेहतर कर पाएं।

वे बेहतर शिक्षा, बेहतर कौशल प्रशिक्षण के साथ ही बेहतर नौकरी पाने के लिए पर्याप्त जानकारी के साथ ही कमाई का स्थिर जरिया चाहते हैं। निश्चित तौर पर यह एक नियमित आमदनी हासिल करने की सक्षमता से ही संभव है और जिसमें स्वास्थ्य से जुड़ी परेशानियों को रोकने या इनका सामना शारीरिक और आर्थिक रूप से करने की क्षमता भी जुड़ी है।

इससे भी अधिक बुनियादी रूप से यह जरूरी है कि उन्हें इस बात की चिंता करने की जरूरत न हो कि उनके परिवार को भूखा रहना पड़ सकता है या फ्लाईओवर के नीचे सोना भी पड़ सकता है। हालांकि, अगर मतदाताओं को तत्काल संतुष्ट करने के लिए रेवड़ियां दी जाएं तो कौन ना कहेगा? कारोबारी जुमले में हम इसे ‘कंपनी के लिए बड़ी लागत वाला और ग्राहक के लिए कम मूल्य’ वाला कदम कहेंगे।

‘आकांक्षाओं से भरे भारतीय’ जैसे शब्दों का जिक्र कारोबार जगत के दिग्गज लोग या राजनीतिक नेताओं के भाषणों में अपरिहार्य रूप से और गर्व के साथ किया जाता है और यह हर मायने में बेहतर जीवन जीने की महत्त्वाकांक्षा के इर्द-गिर्द ही केंद्रित है।

यही कारण है कि उपभोक्तावाद की आकांक्षाओं वाले भारत के उपभोग का केंद्र जीवन की व्यावहारिक गुणवत्ता में सुधार करने वाली चीजों के आसपास ही केंद्रित है, चाहे वह दोपहिया वाहन और मोबाइल जैसे उत्पादकता वाले साधन हों या फिर टीवी या यूट्यूब पर सस्ता मनोरंजन या फिर वाहन और शिक्षा जैसी सार्वजनिक सुविधाओं के लिए भुगतान करना हो।

आम लोगों के लिए की जा रही घोषणाएं ‘रेवड़ी या कल्याणकारी’ कदम है इसका निर्णय इस बात पर आधारित होना चाहिए कि जिन वादों या योजनाओं की पेशकश की जा रही है उसके बलबूते बेहतर मानव पूंजी का निर्माण होता है या नहीं जिसका भान इसके लाभार्थियों को भी है या नहीं।

मुफ्त टेलीविजन सेट, मानव पूंजी का निर्माण नहीं करते हैं और दूरदराज के गांवों में भी टीवी की पहुंच और इन इलाकों के लोग भी दुनिया की हलचल से वाकिफ हैं। रैयतु बंधु जैसी योजनाएं अमीर किसानों की मानव पूंजी को नहीं बढ़ाती हैं क्योंकि वैसे भी उनके अधिकांश बच्चे विदेश में पढ़ रहे हैं या सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में काम कर रहे हैं।

लेकिन जब सीमांत किसानों या बंटाई पर खेत लेने वाले किसानों को उचित मात्रा में सब्सिडी या मुफ्त बिजली की पेशकश की जाती है (पैदावार में सुधार के लिए) तब इससे उत्पादकता बढ़ सकती है जैसा कि भारत राष्ट्र समिति ने भी दावा किया है।

इससे आमदनी में सुधार होने के साथ ही इससे अगली पीढ़ी के लिए कुछ बेहतर करने की प्रेरणा भी मिल सकती है। अगर डिजिटल भुगतान लेनदेन मुफ्त रहता है और सकल घरेलू उत्पादकता पर इसके प्रभाव को सराहा जा सकता है तो इसकी सराहना क्यों नहीं हो सकती है?

यह सर्वविदित है कि छोटी जोत वाले खेतों को अक्सर घाटे में रहना पड़ता है लेकिन फिर भी उन्हें भारतीय परिवारों के भरण पोषण के लिए वहन करने योग्य लागत पर खेती की प्रक्रिया बरकरार रखनी होती है।

उच्च स्तर की मानव क्षमता के लिए भोजन पहली शर्त है। यही कारण है कि महामारी के दौरान अम्मा कैंटीन, मध्याह्न भोजन योजना और मुफ्त भोजन वाली योजना को आम नागरिकों ने खूब सराहा।

जो शिक्षा ज्ञान, कौशल या स्मार्ट तरीके से काम करने की सामूहिक क्षमता को नहीं बढ़ाती वह व्यर्थ ही होती है। आमतौर पर हम कुछ समूहों में हम यह लोगों को अक्सर कहते हुए सुनते हैं कि अमुक व्यक्ति ने 12वीं या स्नातक की पढ़ाई कर ली है लेकिन उसे कोई नौकरी पर नहीं रखेगा। दरअसल तथ्य यह है कि उसके पास नौकरी में भर्ती होने योग्य आवश्यक कौशल या ज्ञान नहीं है।

चुनावों में 12वीं कक्षा तक सभी के लिए एक निश्चित मानक और अच्छी गुणवत्ता वाली स्थानीय भाषा की शैक्षणिक सामग्री तैयार करने का वादा किया जाता है जो सभी स्कूलों के लिए मुफ्त हो या फिर मानव पूंजी तैयार करने के मकसद से झुग्गियों में रहने वाले बच्चों को मुफ्त सुविधाएं देने के लिए कंप्यूटर लैब तैयार करने के वादे को लोकलुभावन वादों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है और न ही किसी एक शैक्षणिक उपग्रह की योजना को इस दायरे में रखा जा सकता है।

कम आमदनी पाने वाले अधिकांश भारतीय इस विडंबना को भी समझते हैं और वे निजी स्कूलों के लिए भुगतान करने के साथ ही ट्यूशन पर जोर देते हैं जिसका खर्च वहन करना मुश्किल हो जाता है और दुख की बात यह है कि इससे कौशल क्षमता बनने के बजाय बस उम्मीदें ही बढ़ती हैं।

लड़कियां, विशेष रूप से युवा महिलाओं पर निवेश करना मानव पूंजी निर्माण के लिहाज से बेहतर कदम है। घुटन, दबाव और बंधन वाले सामाजिक मानदंडों से ऊपर उठकर स्वतंत्रता पाने की उनकी निजी आकांक्षा भी इसके लिए आवश्यक क्षमता हासिल करने की दृढ़शक्ति को बढ़ाती है ताकि वे इससे बाहर निकल सकें।

सभी महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा की सुविधा देना, मानव पूंजी के निर्माण के लिए एक दीर्घकालिक कदम है। वहीं छात्राओं के लिए सभी सार्वजनिक परिवहन के साधनों में मुफ्त यात्रा (विशेष रूप से हमारे डिजिटल बुनियादी ढांचे को देखते हुए इसे लक्षित करना आसान है) की सुविधा देना या सीनियर स्कूलों की लड़कियों के लिए साइकल देना इस प्रक्रिया को और बेहतर बनाती है।

इससे स्कूलों की दूरी के चलते लड़कियों की पढ़ाई जारी नहीं रखने का परिवारों का बहाना भी खत्म हो जाता है। व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की पढ़ाई करने वाली लड़कियों के लिए एजुकेशन वाउचर जैसी सुविधाएं और भी बेहतर होती हैं क्योंकि इसके माध्यम से संस्थान को सीधे भुगतान करने की सेवाएं दी जाती हैं।

पिछले दशक में भारत ने बड़ी मजबूती से विश्व मंच पर अपनी जगह बनाई है। अब हम जनसंख्या और इंटरनेट उपयोगकर्ताओं से लेकर यूनिकॉर्न स्टार्टअप, डिजिटल भुगतान लेनदेन, लक्जरी कारों के खरीदार जैसे विभिन्न पैमाने पर पहले, दूसरे या तीसरे स्थान पर अपनी जगह बनाने में कामयाब हुए हैं और अब भारत धीरे-धीरे पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है। हालांकि, विश्व मानव पूंजी सूचकांक में भारत की कम रैंकिंग काफी कुछ बयां करती है।

हमारे लक्ष्य और हमारी दृष्टि को अब विश्व रैंकिंग की बाहरी प्रतिस्पर्धा से हटाकर आंतरिक स्तर पर केंद्रित करने की दरकार है ताकि मानव पूंजी और मानव उत्पादकता को हमारी राजनीति के केंद्र में लाया जाए और इसे चुनावी वादों का भी हिस्सा बनाया जाए। प्रत्येक भारतीय की क्षमता में एक छोटी सी बढ़त, सामूहिक तौर पर देखने पर हमारे मानव पूंजी का पुल एक नई ऊंचाई की ओर बढ़ता नजर आएगा और इससे अर्थव्यवस्था का दायरा और भी व्यापक होगा।

(लेखिका ग्राहक आधारित कारोबारी नीति के क्षेत्र की कारोबार सलाहकार हैं और भारत की उपभोक्ता अर्थव्यवस्था की शोधकर्ता हैं)

First Published - December 1, 2023 | 9:11 AM IST

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