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भारत की जीडीपी डेटा की अनंत कहानी: आंकड़ों के पीछे के असली तथ्य

जीडीपी की नई श्रृंखला जारी होने के एक दशक बाद इसकी विश्वसनीयता को लेकर अब भी सवाल उठाए जा रहे हैं। बता रही हैं राजेश्वरी सेनगुप्ता

Last Updated- September 30, 2025 | 11:07 PM IST
GDP

ज्यादातर देशों में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़े नियमित अंतराल पर जारी होते रहते हैं। मगर भारत में एक खास बात यह है कि उनके जारी होते ही बहस छिड़ जाती है। जीडीपी की नई श्रृंखला जारी होने के एक दशक बाद इसकी विश्वसनीयता को लेकर अब भी सवाल उठाए जा रहे हैं। इसकी वजह से विश्लेषक और नीति निर्धारक दोनों देश की अर्थव्यवस्था की वास्तविक तस्वीर पर सीधे तौर पर कुछ कहने से हिचकिचाने लगते हैं।

जीडीपी के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार देश की अर्थव्यवस्था वित्त वर्ष 2025-26 की अप्रैल-जून तिमाही में 7.8 फीसदी की मजबूत दर से आगे बढ़ी है। यह वृद्धि दर अन्य दूसरे आंकड़ों पर आधारित अर्थशास्त्रियों द्वारा व्यक्त अनुमानों की तुलना में कहीं अधिक रही है। जीडीपी के आंकड़ों को शक की नजरों से देखा जा रहा है और बहस भी छिड़ गई है जिसे लेकर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

जीडीपी सीरीज के साथ कई मुद्दे जुड़े हैं। पहली समस्या नॉमिनल जीडीपी से जुड़ी जुड़ी है।संगठित विनिर्माण और सेवाओं के लिए, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय (एमसीए) के साथ कंपनियों द्वारा की गई वित्तीय फाइलिंग पर बहुत अधिक निर्भर करता है। वह नियमित रूप से फाइल करने वाली कंपनियों से डेटा एकत्र करता है। इनके अलावा, इन्हीं आंकड़ों के आधार पर उन कंपनियों की वित्तीय जानकारियों का आकलन किया जाता है जिन्होंने एमसीए को अपनी रिपोर्ट नहीं सौंपी हैं।

हालांकि, वित्तीय जानकारियां नहीं देने वाली कई कंपनियां नुकसान में चल रही हैं या उनका परिचालन ठप हो गया है या फिर वे मुखौटा कंपनियों के रूप में काम कर रही हैं। ये मुनाफा छुपाने या नियमों के परोक्ष रूप से उल्लंघन करने के लिए इस्तेमाल में लाई जाती हैं। ऐसे मामलों में वित्तीय जानकारियां देने वाली कंपनियों के आंकड़े बढ़ाकर रिपोर्ट नहीं सौंपने वाली कंपनियों के आंकड़ों का आकलन करने से जीडीपी के आंकड़ों में त्रुटियां होने का जोखिम बढ़ जाता है।

इन एमसीए कंपनियों का 2016-17 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) ने सर्वेक्षण किया था। इस सर्वेक्षण में पाया गया था कि नमूने में शामिल 35,000 कंपनियों में लगभग एक चौथाई ने आंकड़े साझा नहीं किए या फिर वे बंद हो गई थीं या उनका कोई अता-पता नहीं था। एनएसएसओ की 2019 में जारी रिपोर्ट में वित्तीय जानकारियां नहीं देने वाली कंपनियों के समूह में बड़े अंतर दिखाई दिए। फिर भी ये कंपनियां जीडीपी का अनुमान लगाने की प्रक्रिया में शामिल की जा रही हैं। इससे संकेत मिलता है कि भारत का नॉमिनल जीडीपी आकलन से जुड़ी समस्याओं का सामना कर रहा है, जो इस बात पर निर्भर करते हुए और भी बदतर हो सकती हैं कि किसी तिमाही में किन फर्मों का नमूना लिया गया है।

असंगठित क्षेत्रों का आकलन करना एक और कमजोर कड़ी है। नवीन आंकड़ों के अभाव में एनएसओ इस क्षेत्र की वृद्धि का आकलन 2011-12 के सर्वेक्षण के आधार पर यह मानते हुए करता है कि यह (सर्वेक्षण) निजी कंपनी क्षेत्र की वृद्धि पर नजर रखता है। एक सीमा तक यह धारणा ठीक लगती है मगर 2016 के बाद असंगठित और संगठित क्षेत्रों के बीच आपसी संबंध टूट गया। 2016 के बाद नोटबंदी, वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और कोविड महामारी ने गैर-संगठित क्षेत्र की फर्मों पर कहीं अधिक तगड़ी चोट की। इससे जीडीपी वृद्धि का अधिक आकलन करने के आसार और बढ़ गए।

अंत में, जीडीपी डिफ्लेटर के साथ भी कुछ गंभीर मुद्दे हैं। जीडीपी डिफ्लेटर मुद्रास्फीति का एक माप है। यह बताता है कि किसी अर्थव्यवस्था में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं की कुल कीमत एक तय समय में कितनी बदलती है।

एनएसओ जब नॉमिनल जीडीपी की गणना कर लेता है तो उसे उन आंकड़ों को वास्तविक जीडीपी में तब्दील करना पड़ता है। यह कार्य पूरा करने के लिए एनएसओ को मूल्य सूचकांकों का इस्तेमाल करना पड़ता है ताकि मुद्रास्फीति के कारण नॉमिनल जीडीपी में हुई किसी बढ़ोतरी को समायोजित किया जा सके। यह कार्य सुनने में तो सरल लगता है मगर व्यवहार में काफी जटिल होता है। इसका कारण यह है कि जीडीपी में योगदान देने वाले प्रत्येक क्षेत्र के लिए एनएसओ को एक उपयुक्त मूल्य सूचकांक का चयन करना पड़ता है। इसके बाद उसे इन सभी वस्तुओं के उत्पादन में शामिल कच्चे माल पर आई लागत को अलग से उत्पादन से समायोजित करना पड़ता है।

यह सारा काम क्यों जरूरी है? ऐसा करना इसलिए जरूरी है कि क्योंकि कीमतें एक साथ नहीं चलती हैं। उदाहरण के तौर पर हवाई यात्रा को लें। अर्थव्यवस्था-व्यापी मूल्य सूचकांक द्वारा विमानन कंपनियों के राजस्व (एक नॉमिनल राजस्व) को डिफ्लेट करने से हमें एक तिमाही में हवाई यात्रा में वास्तविक वृद्धि के बारे में कुछ भी पता नहीं चलता है। इसके बजाय टिकट की कीमतों से जुड़ी सही जानकारियां विमानन क्षेत्र में वास्तविक वृद्धि का पता लगाने के लिए अधिक जरूरी हैं।

दुर्भाग्य से, भारत में कई क्षेत्रों के डिफ्लेटर सटीक नहीं हैं। सबसे जटिल मामला सेवा क्षेत्र से जुड़ा है, जो अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा क्षेत्र है और जहां थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) का इस्तेमाल किया जाता है। मगर यह शायद ही कभी सेवा की कीमतों पर नजर रखता है। अगर इसके बजाय अप्रैल-जून तिमाही में इस क्षेत्र का आकलन उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के सेवा घटक का इस्तेमाल कर किया गया होता (जो डब्ल्यूपीआई की तुलना में तेज गति से बढ़ा है) तो गणना की गई सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर्ज 9.3 फीसदी की तुलना में काफी कम होती।

पहली तिमाही में एक और डिफ्लेटर संबंधित मुद्दा कच्चे माल (इनपुट) और उत्पादों (आउटपुट) की कीमतों के बीच का अंतर से जुड़ा था। जिंसों की कीमतों में गिरावट के कारण डब्ल्यूपीआई मुद्रास्फीति गिरकर 0.3 फीसदी हो गई जबकि (आउटपुट-मापने वाला) सीपीआई मुद्रास्फीति लगभग 3 फीसदी पर रही। यह अंतर छोटा लग सकता है लेकिन इसके काफी गंभीर प्रभाव हो सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि तेल जैसे सस्ते कच्चे माल वास्तविक उत्पादन बढ़ाए बिना विनिर्माण मुनाफा बढ़ा देते हैं। इस भ्रम को दूर करने का एकमात्र तरीका ‘दोहरी मुद्रास्फीति’ है (कच्चे माल और उत्पाद को अलग-अलग समायोजित करना)।

दुर्भाग्य से अधिकांश जी 20 देशों के उलट भारत जीडीपी का अनुमान लगाने की प्रक्रिया में ज्यादातर मौकों पर इस प्रक्रिया का पालन नहीं करता है। इसके बजाय, यह नॉमिनल वैल्यू को केवल एक बार डिफ्लेट करता है। इससे भी अधिक समस्या की बात यह है कि यह अक्सर जिंसों के प्रमुखता वाले डब्ल्यूपीआई का उपयोग करता है। डब्ल्यूपीआई अपने एकल डिफ्लेटर के रूप में इनपुट की कीमतें मापता है। इसका मतलब है कि नॉमिनल लाभों को कम नहीं किया जाता है बल्कि उन्हें और बढ़ाया जाता है और एक बार बढ़ते मुनाफे में और फिर गिरते डिफ्लेटर के माध्यम से आकलन किया जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि विनिर्माण की वृद्धि बढ़ा-चढ़ाकर पेश की जाती है।

इससे क्या फर्क पड़ता है? यह इसलिए मायने रखता है क्योंकि जीडीपी वृद्धि के आंकड़ों पर सबकी खासकर नीति निर्माताओं की नजरें टिकी रहती हैं। जीडीपी आंकड़े भले ही अर्थव्यवस्था के फलने-फूलने के दावे कर रहे हैं मगर नीति निर्माताओं ने हाल ही में मांग को बढ़ावा देने के लिए जीएसटी दरों में संशोधन किए हैं। यह कहीं न कहीं एक इशारा है कि उन्हें स्वयं यकीन नहीं है कि अर्थव्यवस्था वास्तव में उतनी मजबूत है जितनी जीडीपी आंकड़े बता रहे हैं।

अच्छी खबर यह है कि सांख्यिकी मंत्रालय इन सभी मुद्दों से अवगत है और फरवरी 2026 में आने वाली एक नई जीडीपी श्रृंखला के साथ समाधान खोजने की दिशा में काम कर रहा है। तब तक हर किसी को आर्थिक गतिविधियों का आकलन करने के लिए विभिन्न प्रकार के आंकड़ों पर निगाहें जमाए रखनी होंगी।


(लेखिका आईजीआईडीआर मुंबई में अर्थशास्त्र की सहायक प्राध्यापक हैं। ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं।)

First Published - September 30, 2025 | 11:02 PM IST

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