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सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में निगमित सुसंचालन का प्रश्न

Last Updated- December 12, 2022 | 1:01 AM IST

पिछले हफ्ते शांति लाल जैन ने इंडियन बैंक के प्रबंध निदेशक (एमडी) एवं मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ) का पदभार संभाला। कुछ ही दिन पहले मंत्रिमंडल की नियुक्ति समिति ने तीन सार्वजनिक बैंकों के एमडी एवं सीईओ का कार्यकाल बढ़ा दिया था। सात सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) के 10 कार्यकारी निदेशकों का कार्यकाल भी बढ़ा दिया गया। अब पुरानी बात हो गई जब सरकार ऐसी नियुक्तियों की घोषणा में वक्त लेती थी। बहुत समय नहीं हुआ, जब बैंक ऑफ बड़ौदा के एमडी एवं सीईओ के पद से पी एस जयकुमार के हटने के 100 दिन बाद संजीव चड्ढा ने पदभार संभाला। यह भी भारत में पहली बार दो सरकारी बैंकों के बैंक ऑफ बड़ौदा में विलय की प्रक्रिया चलने के दौरान हुआ।
हम आन्ध्रा बैंक (अब यूनियन बैंक ऑफ इंडिया) के साथ घटित वाकये पर नजर डालें। दिसंबर 2017 में सुरेश पटेल का कार्यकाल खत्म हो गया था लेकिन उनका उत्तराधिकारी तलाशने में 264 दिन लग गए। देना बैंक (बैंक ऑफ बड़ौदा में विलय) और पंजाब ऐंड सिंध बैंक की हालत थोड़ी बेहतर थी। इन दोनों बैंकों को कर्णम शेखर और एस हरिशंकर के रूप में नए मुखिया 262 दिन बाद मिले थे। क्या पीएसबी में चीजें क्या वाकई में बदल रही हैं? जवाब हां और ना दोनों ही हैं। 

मामला सिर्फ एमडी एवं कार्यकारी निदेशकों का कार्यकाल बढऩे और समय पर नई नियुक्ति का ही नहींं है। बैंक ऑफ बड़ौदा के सिवाय 11 पीएसबी में से किसी के भी पास अपना चेयरमैन नहीं है, चाहे वह गैर-कार्यकारी ही क्यों न हो। कई बैंकों के विलय के बाद पीएसबी की संख्या 27 से कम होकर अब 12 पर आ चुकी है। इनमें से 11 राष्ट्रीयकृत बैंक हैं और एकदम अलग नियम से संचालित भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के पास एक कार्यकारी चेयरमैन है। अधिकांश राष्टï्रीयकृत बैंकों के बोर्ड में तो समुचित निदेशक भी नहीं हैं। अधिनियम के तहत सरकारी स्वामित्व वाले हरेक बैंक में पूर्णकालिक निदेशक होने चाहिए जिनकी नियुक्ति केंद्र सरकार भारतीय रिजर्व बैंक की सलाह से करे।
बैंकों के बोर्ड में एक निदेशक केंद्र सरकार की तरफ से भी नामित होना चाहिए जबकि वाणिज्यिक बैंकों के नियमन एवं निगरानी में महारत रखने वाले एक जानकार को आरबीआई निदेशक बनाए। कृषि एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था, बैंकिंग, सहकारिता, अर्थशास्त्र, वित्त, कानून, लघु उद्योग के जानकार के अलावा एक चार्टर्ड अकाउंटेंट को भी निदेशक बनाने का प्रावधान है।

बाजार नियामक सेबी के पूर्व चेयरमैन एम दामोदरन ने हाल ही में अपने एक लेख में कहा कि ऐसी तकरीबन 60 जगहें महीनों से रिक्त पड़ी हुई थीं। शेयरधारकों के अलावा कर्मचारियों एवं अधिकारियों के प्रतिनिधियों को भी बैंकों के बोर्ड में जगह दिए जाने की अपेक्षा होती है। फिलहाल किसी भी पीएसबी के बोर्ड में कर्मचारियों या अधिकारियों का प्रतिनिधि नहीं है। जहां पूर्णकालिक निदेशक बैंक संचालित करते हैं, वहीं  स्वतंत्र निदेशक रणनीतियां बनाने एवं बैंकों का समुचित कामकाज सुनिश्चित करते हैं।
स्वतंत्र निदेशक नहीं होने से कई पीएसबी बोर्ड की उप-समितियों की बैठकों का कोरम भी नहीं पूरा हो पा रहा है।  यह सवाल सरकार की प्राथमिकता में क्यों नहीं है? इसकी वजह कहीं निजीकरण की पहल तो नहीं है? लेकिन सरकार की योजना तो दो बैंकों के निजीकरण की है, सभी पीएसबी की नहीं। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि वे एकीकरण प्रक्रिया से अछूते रहे छह पीएसबी बैंक ऑफ इंडिया, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, ओवरसीज बैंक, यूको बैंक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र और पंजाब ऐंड सिंध बैंक से ही चुने जाएंगे।तमाम चर्चाओं के बावजूद बैंकों का निजीकरण इस वित्त वर्ष में हो पाने की संभावना कम है। फिर इन पदों को खाली क्यों रखा जा रहा है? क्या निजीकरण के पहले इन बैंकों में कॉर्पोरेट गवर्नेंस पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए? सरकारी बैंकों के प्रमुखों के कार्यकाल पर भी ध्यान देने की जरूरत है। जब किसी निजी बैंक का सीईओ 70 साल की उम्र तक पद पर रह सकता है तो किसी सार्वजनिक बैंक के प्रमुख को 60 साल की उम्र में ही क्यों सेवामुक्त हो जाना चाहिए? भारतीय स्टेट बैंक ही इसका अपवाद है। क्या अन्य सार्वजनिक बैंकों के लिए भी यह प्रावधान नहीं किया जाना चाहिए? आखिरी सवाल पीएसबी प्रमुख को बाजार के हिसाब से वेतन देने से जुड़ा हुआ है। एक पीएसबी के गैर-कार्यकारी चेयरमैन की वार्षिक आय अधिकतम 10 लाख रुपये हो सकती है। यह किसी निजी बैंक के चेयरमैन को मिलने वाले वेतन से बहुत कम है। निजी और सार्वजनिक बैंक के एमडी एवं सीईओ के वेतन में मौजूद फर्क तो बहुत ज्यादा है। 

सार्वजनिक बैंकों के शीर्ष अधिकारियों के पारिश्रमिक में सुधार की कोशिशों का कोई नतीजा नहीं निकला है। एक दशक पहले जून 2010 में वित्त मंत्रालय ने सार्वजनिक बैंकों के मानव संसाधन मसलों पर एक समिति गठित की थी जिसने प्रदर्शन सुधारने और क्षमता निर्माण संबंधी कई सिफारिशें की थीं। सरकार ने इनमें से 56 अनुशंसाएं स्वीकार की जबकि अहम सुझावों को दरकिनार कर दिया। आज भी इन बैंकों के एमडी एवं सीईओ का वेतन अफसरशाहों के वेतन ढांचे से जुड़ा हुआ है।
आखिर वित्त मंत्रालय के अफसर बैंकरों को खुद से ज्यादा वेतन पाते हुए देखना कैसे पसंद करेंगे? प्रबंध संस्थानों से प्रतिभावान युवाओं की सीधी भर्ती न कर पाने, जांच एजेंसियों की धमक और एल-1 फॉर्मूले से भी पीएसबी के प्रदर्शन पर असर पड़ता है। इसमें सुधार की शुरुआत शीर्ष बैंकरों को बढिय़ा वेतन देकर की जा सकती है। उन्हें बाजार के हिसाब से वेतन दीजिए, जवाबदेह बनाइए और प्रदर्शन न कर पाने पर दंड भी दीजिए। एकीकरण की मुहिम ने बैंकों की संख्या भले ही कम कर दी हो, बैंकिंग जगत में सरकार का स्वामित्व नहीं घटा है। सरकार को यह अहसास हो चुका है कि उसे बैंकिंग कारोबार में बड़े स्तर पर नहीं रहना चाहिए। फिर उसका ध्यान बैंकों के अच्छे संचालन पर होना चाहिए। 

(लेखक बिज़ऩेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक एवं जन स्मॉल फाइनैंस बैंक के वरिष्ठ परामर्शदाता हैं)

First Published - September 16, 2021 | 7:07 AM IST

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