नरेंद्र मोदी सरकार ने कृषि क्षेत्र में बड़े सुधारों की मंशा से लाए गए तीनों विधेयकों को संसद से पारित करा लिया है। इनमें से एक विधेयक अनुबंध कृषि को कानूनी दर्जा देता है तो दूसरा विधेयक कृषि उत्पादों के मुक्त व्यापार को संभव बनाता है। मैंने इस स्तंभ में जून में ही लिखा था कि अगर इन कानूनों को मंशा के मुताबिक ही लागू किया जाता है तो यह एक क्रांतिकारी कदम होगा। यह 1991 के बाद का सबसे बड़ा ‘सुधारवादी’ कदम भी होगा।
पिछले पखवाड़े में एक अन्य बड़ा सुधार पुराने श्रम कानूनों का उन्मूलन है। संसद ने अभी तक देश में लागू 29 श्रम कानूनों को चार समूहों-पारिश्रमिक, औद्योगिक संबंध, सामाजिक सुरक्षा और कामकाज के हालात में वर्गीकृत करने वाले तीन विधेयकों को मंजूरी दे दी है। पारिश्रमिक संहिता को तो संसद ने पिछले साल ही पारित कर दिया था। इन विधेयकों के तमाम प्रावधानों में यह अहम है कि 300 से कम कर्मचारियों वाली कंपनियां कहीं अधिक आसानी से अपने कर्मचारियों को नौकरी से हटा सकती हैं।
इन दो कदमों ने सुधारों के मामले में इस सरकार की धूमिल होती छवि को चमकाने का काम किया है। इससे बड़े पैमाने पर सुधारों की आस लगाने वाले लोगों की अपेक्षाएं भी बढ़ी हैं। श्रम एवं कृषि से जुड़े मामले सबसे ज्यादा पेचीदा रहे हैं लेकिन इन दोनों क्षेत्रों में सुधार की इस सरकार की तत्परता को देखकर यह अनुमान लगाना आसान है कि अभी और सुधार होने वाले हैं। इससे यह नतीजा भी निकाला जा सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी आखिरकार विकास एवं रोजगार सृजन के अपने वादों पर खरा उतर रहे हैं। लेकिन ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले हमें पिछले दो हफ्तों में ही घटित कुछ अन्य घटनाओं पर भी गौर करना चाहिए।
ब्रिटिश दूरसंचार कंपनी वोडाफोन ने भारत सरकार के खिलाफ दायर मध्यस्थता अपील जीत ली है। हेग स्थित स्थायी मध्यस्थता अदालत का फैसला वोडाफोन के पक्ष में आया है। पश्चवर्ती प्रभाव से कर लगाने के खिलाफ दायर इस अपील पर आए सर्वसम्मत फैसले के मुताबिक भारत के कर विभाग ने वोडाफोन के साथ ‘निष्पक्ष एवं न्यायसंगत’ बरताव नहीं किया है। उसका आकलन है कि वोडाफोन के पक्ष में आए भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विपरीत पश्चवर्ती प्रभाव से कंपनी पर कर लगाना द्विपक्षीय निवेश करार का उल्लंघन है। यह मामला चार सरकारों तक चला जिनमें दो सरकारें कांग्रेस की अगुआई वाली थीं और दो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की अगुआई वाली रही हैं।
इन सरकारों ने वर्ष 2007 में हचिसन के मोबाइल फोन कारोबार में 67 फीसदी हिस्सेदारी लेने के लिए वोडाफोन द्वारा किए गए 11 अरब डॉलर के निवेश पर कुछ अजीब तर्कों के आधार पर कर की मांग की। जब सरकार को इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय से शिकस्त खानी पड़ी तो उसने 2012 में ऐसा कानून बना दिया जिसमें पिछली तारीख से कर लगाने का प्रावधान था। इस आधार पर वोडाफोन से पूंजीगत लाभ कर के मद में 7,990 करोड़ रुपये का भुगतान करने को कहा गया। इसके साथ लगे ब्याज एवं जुर्माने की रकम को मिलाकर अब तक कुल देनदारी 22,100 करोड़ रुपये हो चुकी है। विपक्ष में रहते समय अरुण जेटली वोडाफोन के वकील हुआ करते थे और उन्होंने पश्चवर्ती प्रभाव से बने कर कानून का विरोध भी किया था। कुछ ऐसी ही राय नरेंद्र मोदी की भी थी। लेकिन इन दोनों नेताओं के खुद सत्ता में बैठने पर भी इस कानून का पश्चवर्ती प्रावधान हटाया नहीं गया। इतना ही नहीं, वोडाफोन को 12 फरवरी, 2016 को कर विभाग से 22,100 करोड़ रुपये की देनदारी का एक नोटिस भी मिला जिसमें भुगतान न करने पर उसकी भारत स्थित परिसंपत्तियां जब्त करने की धमकी भी दी गई थी।
यही कारण है कि इस सरकार के तगड़े समर्थक माने जाने वाले वित्तीय विशेषज्ञ वल्लभ भंसाली ने कुछ समय पहले कहा था, ‘दुर्भाग्य से हमारे देश में सरकारें हारना पसंद नहीं करती हैं। अगर कोई कानून या प्रावधान सरकार के खिलाफ होता है तो सरकार उस कानून को ही बदल देती है। एक नागरिक को तो हर हाल में हारना ही होता है। यहां तक कि रियायतें एवं मध्यस्थता पंचाट के फैसलों के मुताबिक पूरा भुगतान भी नहीं किया जाता है जिसकी वजह से भरोसे की कमी होती है।’
पखवाड़े भर पहले अमेरिकी मोटरसाइकिल कंपनी हार्ली-डेविडसन ने भारत से बाहर निकलने का फैसला भी किया। उसने भारत में बिक्री और मुनाफा कमाने के मामले में खराब प्रदर्शन को देखते हुए हटने का फैसला किया है। ऐसा तब हुआ है जब खुद अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने इसकी मोटरसाइकिलों पर आयात शुल्क घटाने की मांग की थी। इसके पहले 2017 में जनरल मोटर्स ने अपना भारतीय कारोबार समेटने के साथ अपने संयंत्र भी बेच दिए थे। फोर्ड मोटर कंपनी ने भी करीब दो दशकों तक भारतीय बाजार में संघर्ष करने के बाद अपनी अधिकांश परिसंपत्तियों को पिछले साल महिंद्रा ऐंड महिंद्रा के साथ संयुक्त उद्यम के हवाले कर दिया था। निश्चित रूप से यह किसी एक की गलती नहीं है कि हार्र्ली, जनरल मोटर्स और फोर्ड भारत छोड़कर जा रही हैं। लेकिन पिछले पखवाड़े में एक तीसरी घटना भी घट गई।
टोयोटा किर्लोस्कर मोटर्स के उपाध्यक्ष शेखर विश्वनाथन ने कहा कि टोयोटा भारत में उच्च कर को देखते हुए यहां पर अपना कारोबार विस्तार नहीं करेगी। विश्वनाथन ने ब्लूमबर्ग के साथ बातचीत में कहा, ‘यहां पर हमारे आने और निवेश करने के बाद हमें यहीं संदेश मिल रहा है कि वे हमें नहीं चाहते हैं।’ वाहनों पर लगने वाले भारी-भरकम करों का जिक्र करते हुए विश्वनाथन ने कहा, ‘ शायद आप यही सोचते हैं कि ऑटो कंपनियां ड्रग या शराब बना रही हैं। जब उन्हें थोड़ा भी ऐसा लगता है कि कोई उत्पाद अच्छा कर रहा है तो उस पर अधिक कर लगा देते हैं।’ उन्होंने कहा कि अधिक कर होने से कारें अधिकतर ग्राहकों की पहुंच से बाहर हो जाती हैं जबकि कारखाने शांत पड़े हैं और नौकरियां पैदा नहीं हो रही हैं।
ऐसे में पिछले दो हफ्तों ने आपको भारत में कारोबार करने के बारे में सारी जानकारी दे दी होगी: नेताओं एवं बाबुओं के वादों और अच्छी मंशा से लाए गए कानूनों का भी खास मतलब नहीं होता है। अहम बात यह है कि जमीनी स्तर पर इनका क्रियान्वयन किस तरह होता है? आखिर कोई भी कानून अफसरों, निरीक्षकों, कर अधिकारियों और अक्सर उगाही पर उतारू पुलिस बल की भारी-भरकम फौज के जरिये ही लागू किया जाता है।
यह लेख लिखते समय मुझे लगभग 26 साल पहले इसी समाचारपत्र में प्रकाशित अपने एक लेख की याद आ रही है जिसमें मैंने नियमों एवं कानूनों के अनुपालन की अहमियत पर बल दिया था। मैंने यह भी कहा था कि सुधारों की किसी भी घोषणा पर हमें अधिक उत्साहित नहीं हो जाना चाहिए। वह दौर नरसिंह राव एवं मनमोहन सिंह का था। उसके बाद से नौ सरकारें आईं लेकिन अधिकांश सुधारों ने कुछ खास नहीं किया। इसकी वजह यह है कि वे क्रियान्वयन के मोर्चे पर फिसल गए।