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हमारे शहरों को जलवायु संकट से बचाने में फाइनेंस कमीशन की अहम भूमिका

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट मानती है कि जलवायु परिवर्तन के कारणों के चलते बने प्रवासियों के लिए शहरी क्षेत्र ही आकर्षण का केंद्र बनेंगे

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अमित कपूर   
Last Updated- October 05, 2025 | 10:49 PM IST

शहरों और जलवायु परिवर्तन की कहानियां अक्सर जानी-पहचानी आपदाओं जैसे कि झुलसा देने वाली गर्मी, नदियों में उफान और दम घोंटने वाले धुएं के जरिये बताई जाती हैं। ये सभी आज के दौर की गंभीर चिंताएं हैं, जिन पर ध्यान देने की जरूरत है लेकिन गौर करने की एक अहम बात यह भी है कि सभी भारतीय शहर आज एक अधिक चिंताजनक बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं।

नए जोखिम किसी एक घटना के रूप में नहीं बल्कि एक व्यवस्थित बदलाव के रूप में सामने आ रहे हैं जो शहरों के विकास के तरीके, बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाए रखने और पूंजी जुटाने के तरीकों को भी बदल रहे हैं। इनमें से सबसे अहम बदलाव पलायन से जुड़ा है। विश्व बैंक की 2021 की ‘ग्राउंडस्वेल’ पहल का अनुमान है कि जलवायु संबंधी दबावों के कारण 2050 तक लगभग 21.6 करोड़ लोग अपने ही देश के भीतर विस्थापित होने पर मजबूर हो सकते हैं। यह पलायन अभी से शुरू हो गया है क्योंकि सूखे की वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन मुश्किल होता जा रहा है और समुद्र के बढ़ते जलस्तर के कारण लोग तटीय इलाकों को छोड़कर शहरों के मुख्य हिस्सों में जा रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट मानती है कि जलवायु परिवर्तन के कारणों के चलते बने प्रवासियों के लिए शहरी क्षेत्र ही आकर्षण का केंद्र बनेंगे। ऐसा इसलिए नहीं कि ये जगहें सुरक्षित हैं बल्कि इसलिए क्योंकि वहां सेवाएं, रोजगार और जीवन जीने की संभावना है। बिना सोची-समझी योजना के, नए आने वाले लोग उन अस्थायी बस्तियों में रहने को मजबूर हो सकते हैं जो बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाओं से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले इलाकों में हैं। यह ध्यान रखना जरूरी है कि जो चीज पलायन के दबाव जैसी लगती है, वह असल में एक अवसर है।

हालांकि, शहरों में जो व्यवस्थाएं हैं, उनकी स्थिरता अब और भी ज्यादा जोखिम में है। आईपीसीसी ने चेतावनी दी है कि जलवायु परिवर्तन अब सिर्फ अलग स्तर पर ही झटके नहीं देता है बल्कि यह बेहद जटिल और एक के बाद एक आने वाले खतरे पैदा करता है। बिजली, पानी, परिवहन और संचार के नेटवर्कों से जुड़े शहर यह महसूस कर रहे हैं कि एक विफलता अक्सर दूसरों को भी नीचे खींच लेती है।

कई अध्ययनों से पता चलता है कि जब शहरों में वातानुकूलन तंत्र अचानक काम करना बंद कर दें तब मृत्यु दर अचानक बहुत अधिक बढ़ सकती है, खासतौर पर उन घरों में जहां गर्मी से बचाव के लिए कोई खास डिजाइन नहीं होता है। इसी तरह, बाढ़ भी अब सिर्फ उफनती नदी या एक तूफान तक ही सीमित नहीं है। अब ऊंचे ज्वार, भारी बारिश और नदियों की बाढ़ एक साथ आती हैं। ये साथ मिलकर ऐसी बाढ़ लाती हैं जो अलग-अलग खतरों से निपटने के लिए बनाए गए सुरक्षा इंतजामों को भी नाकाम कर देती है। असल में, समस्या यह है कि इन जोखिमों को अभी अलग-अलग तरीके से संभाला जा रहा है।

भविष्य में जलवायु अनुकूलन के लिए यह जरूरी है कि हम हर चीज को आपस में जोड़कर योजना बनाएं। जरूरी तंत्रों के लिए अतिरिक्त बैकअप रखें, प्राकृतिक और मानव निर्मित बुनियादी ढांचे को एक साथ जोड़ें। साथ ही, स्वास्थ्य और आवास से जुड़ी नीतियों को भी जलवायु परिवर्तन से निपटने के विमर्श का हिस्सा बनाएं।

पैसा अब भी सबसे बड़ी रुकावट बना हुआ है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की ‘अनुकूलन अंतराल रिपोर्ट 2024’ से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विकासशील देशों को हर साल 194 से 366 अरब डॉलर की जरूरत है, लेकिन 2022 में उन्हें सिर्फ 28 अरब डॉलर ही मिल पाए। दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन के लिए जो धन मिलता है, उसका 10 फीसदी से भी कम हिस्सा बदलते हालात के हिसाब से ढलने यानी अनुकूलन पर खर्च होता है क्योंकि ज्यादातर धन जलवायु परिवर्तन को रोकने पर लगाया जाता है।

विश्व बैंक का अनुमान है कि भारतीय शहरों को अपने बुनियादी ढांचे को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचाने के लिए वर्ष 2050 तक 2.4 लाख करोड़ डॉलर की जरूरत होगी। अगर ऐसा नहीं किया गया तब हर साल बाढ़ से होने वाला नुकसान 4 अरब डॉलर से बढ़कर 30 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है। शहरों के दिग्गजों को यह तय करना होगा कि वे बार-बार चीजों को दोबारा बनाते रहेंगे या लंबी अवधि के लिए ऐसे मजबूत इंतजाम करेंगे जो उनके राजनीतिक कार्यकाल के बाद भी काम करते रहेंगे।

इस संबंध में 16वें वित्त आयोग का काम बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। आयोग का काम यह सिफारिश करना है कि केंद्र सरकार के कर राजस्व को राज्यों के साथ कैसे बांटा जाए। इससे जलवायु जोखिम को राजकोषीय हस्तांतरण की मुख्यधारा में लाने का एक संवैधानिक मार्ग उपलब्ध होता है।

अगर आयोग भविष्य की सोच रखते हुए एक ऐसा मापदंड बनाए जिसमें शहरों की जलवायु संवेदनशीलता को ध्यान में रखा जाए, तो विकास कर रहे लेकिन जलवायु जोखिम में घिरे शहरों को बदलते हालात से तालमेल बिठाने के लिए पहले से तय और नियमों के आधार पर मदद मिल सकेगी। इससे उन्हें सिर्फ आपदा के बाद मिलने वाली राहत पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। अभी राज्यों के बीच पैसे बांटने का जो फॉर्मूला इस्तेमाल होता है, उसमें 10 फीसदी हिस्सा ‘वन और पारिस्थितिकी’ के लिए है। लेकिन यह केवल एक पुराना और स्थिर पैमाना है। यह जलवायु से जुड़े बदलते खतरों या मजबूत पारिस्थितिकी तंत्रों से होने वाले संभावित नुकसान में कमी के महत्त्व को नहीं दर्शाता है।

इंस्टिट्यूट फॉर कंपेटटिवनेस ने अपनी ‘अ क्लाइमेट रिस्क लेंस ऑन फिस्कल डेवल्यूशन’ शीर्षक वाली रिपोर्ट में यह सुझाव दिया है कि धन हस्तांतरित करने के मौजूदा फॉर्मूले में कुछ बदलाव किए जाएं। इसके तहत, जनसंख्या और क्षेत्रफल का हिस्सा 15 फीसदी से घटाकर 13 फीसदी किया जाए और वन व पर्यावरण का हिस्सा 10 फीसदी से घटाकर 9 फीसदी किया जाए। इस तरह, जो 5 फीसदी हिस्सा बचेगा, उसे जलवायु से जुड़े खतरों से निपटने के लिए अलग से रखा जाए। यह समायोजन यह सुनिश्चित करता है कि गर्मी, बाढ़ और कम अनुकूलन क्षमता का सामना कर रहे राज्यों को पूर्वानुमानित, नियम-आधारित सहायता प्राप्त हो।

पलायन, एक के बाद एक होने वाली आपदाएं और ऐसे हालात में पैसों की कमी ये सब मिलकर दिखाते हैं कि शहरों में जलवायु परिवर्तन का खतरा किस तरह बदल रहा है। ये सभी एक-दूसरे की तीव्रता को और भी बढ़ाते हैं। अगर पलायन का प्रबंधन सही तरीके से नहीं किया जाए तो खतरा बढ़ जाता है। कमजोर बुनियादी ढांचा हर झटके की तीव्रता को और गंभीर बना देता है और पैसे की कमी से ये दोनों समस्याएं सुलझ नहीं पातीं।

भारत में यह जलवायु जोखिम सबसे ज्यादा दिखाई देता है। दिल्ली एक साथ बाढ़ और भीषण गर्मी से जूझती हुई दिखी, वहीं पंजाब में कई दशकों के बाद भयावह बाढ़ की स्थिति रही। इसके अलावा, बेंगलूरु और मुंबई जैसे तेजी से बढ़ते महानगरों को भी बढ़ते हुए बुनियादी ढांचे और पैसों की कमी की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।

ये शहर वैश्विक स्तर की व्यापक चुनौतियों को दर्शाते हैं। जब तक जलवायु अनुकूलन की योजना और वित्त, शहरी विकास के साथ-साथ नहीं चलेंगे तब तक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव असमानता और कमजोरी को और भी बढ़ाएंगे। लेकिन अगर ऐसा होता है तो भारत का शहरी बदलाव मजबूती या टिकाऊपन के लिए एक प्रयोगशाला बन सकता है जो ग्लोबल साउथ के तेजी से बढ़ते शहरों के लिए अहम सबक होगा।

(लेखक इंस्टीट्यूट फॉर कंपेटटिवनेस के चेयरपर्सन हैं)

First Published : October 5, 2025 | 10:49 PM IST