रक्षा मंत्रालय के आंकड़ों से संकेत मिलता है कि 2023-24 में देश का रक्षा निर्यात 22,000 करोड़ रुपये के रिकॉर्ड आंकड़े पर पहुंच गया। निर्यात की यह रकम 2013-14 से अब तक 31 गुना बढ़ चुकी है और इस वृद्धि में किसी तरह की सुस्ती की संभावना भी नहीं है। पिछले वित्त वर्ष की तुलना में निर्यात 32.5 फीसदी गुना बढ़ा है। 2024-25 की पहली तिमाही में रक्षा निर्यात 6,915 करोड़ रुपये रहा, जो पिछले वित्त वर्ष की समान अवधि के 3,885 करोड़ रुपये से 78 फीसदी अधिक था।
पिछले दिनों रक्षा निर्यात को और गति मिली, जब निजी क्षेत्र की देसी रक्षा विनिर्माता टाटा एडवांस्ड सिस्टम्स लिमिटेड (टीएएसएल) ने मोरक्को की रॉयल आर्म्ड फोर्सेस के साथ समझौते की घोषणा की। इस समझौते के तहत मोरक्को की सेना के जवानों को ले जाने के लिए बख्तरबंद वाहन बनाए जाएंगे। इन्हें व्हील्ड आर्मर्ड प्लेटफॉर्म्स या व्हाप 8×8 कहा जाता है। इन्हें मोरक्को के कासाब्लांका में बनाया जाएगा।
यह पहला मौका है, जब कोई भारतीय रक्षा विनिर्माता देश से बाहर रक्षा विनिर्माण कारखाना लगा रही है। यह मोरक्को का भी पहला बड़ा रक्षा विनिर्माण संयंत्र होगा। व्हाप के आकार, सुरक्षा, तरह-तरह के इस्तेमाल और कम कीमत को देखते हुए माना जा रहा है कि उपद्रव से जूझ रही अफ्रीकी सेनाएं इसे खरीदने के लिए आकर्षित होंगी।
देश के रक्षा निर्यात में तेजी का कुछ श्रेय कीमत की सीढ़ी पर हमारी उछाल को भी जाता है। दशक भर पहले भारत कम कीमत के गोला-बारूद और हथियार ही निर्यात करता था। आज हम तेजस हल्के लड़ाकू विमान, पिनाक मल्टी बैरल रॉकेट लॉन्चर और ब्रह्मोस क्रूज मिसाइल जैसे महंगे हथियार प्लेटफॉर्म पूर्वी एशियाई देशों को बेच रहे हैं, जिनमें वियतनाम, मलेशिया और फिलिपींस शामिल हैं। एक ब्रह्मोस मिसाइल की कीमत करीब 36.5 लाख डॉलर है। दिलचस्प है कि दस साल पहले हम साल में कुल इतनी कीमत का रक्षा निर्यात कर पाते थे।
रक्षा निर्यात में इजाफे का गणित सीधा है: रक्षा मंत्रालय की ‘रक्षा उत्पादन नीति 2018’ में तत्कालीन रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि 2025 तक रक्षा एवं विमानन वस्तु एवं सेवा क्षेत्र में 1.7 लाख करोड़ रुपये का सालाना कारोबार हासिल करते हुए 20-30 लाख लोगों के लिए रोजगार तैयार किए जाएंगे। इसके लिए निवेश में करीब 70,000 करोड़ रुपये का इजाफा भी किया जाना था। मगर 2018 की नीति के मुताबिक देश का रक्षा उत्पादन 2013-14 में 43,746 करोड़ रुपये था और मामूली इजाफे के साथ 2016-17 में 55,894 करोड़ रुपये तक पहुंच पाया।
नीति में दिए गए महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने के लिए 35,000 करोड़ रुपये के हथियार खरीदने वाले विदेशी खरीदार चाहिए थे। इसका मतलब था कि आयात पर अपनी निर्भरता घटाते हुए हमें 2025 तक प्रमुख हथियार और प्लेटफॉर्म बनाने में आत्मनिर्भर होना है। इनमें लड़ाकू विमान, मझोली भारवहन क्षमता वाले विमान, हमले और अन्य कामों में इस्तेमाल होने वाले हेलीकॉप्टर, युद्धपोत, जमीनी लड़ाकू वाहन, स्वचालित हथियार प्रणाली, मिसाइल सिस्टम, गन सिस्टम, छोटे हथियार, गोला-बारूद, निगरानी प्रणाली, इलेक्ट्रॉनिक युद्ध प्रणाली, संचार उपकरण, रात में लड़ने में मदद करने वाली प्रणाली, मानवरहित हवाई वाहन और प्रशिक्षण उपकरण आदि शामिल हैं।
किंतु इस नीति के सात वर्ष बाद भी भारत दुनिया का सबसे बड़ा रक्षा खरीदार है और अपनी रक्षा जरूरतों का 50 फीसदी आयात करता है। रक्षा निर्यात लक्ष्य हासिल करने के लिए वह अब भी संघर्ष कर रहा है। ये लक्ष्य हासिल करना भारतीय उद्योग जगत की क्षमताओं से परे नहीं है। लेकिन इसके लिए जरूरी बदलाव को गति चार कदम गति देंगे।
पहला, आरंभिक सफलता बेशक उन रक्षा प्लेटफॉर्म के निर्यात में मिली है, जिन्हें भारत में डिजाइन किया गया और बनाया गया किंतु यह शुरुआती कदम भर है। इन प्लेटफॉर्मों को अपनी सेना में तुरंत शामिल करने की जरूरत है, जहां उनका विकास होगा और क्षमताएं भी दिखेंगी। जब कोई नया प्लेटफॉर्म अच्छा प्रदर्शन करता है या अद्भुत क्षमता दिखाता है तो मीडिया की एक टीम को उस पर नजर रखनी चाहिए, उसकी उपलब्धियों का रिकॉर्ड रखना चाहिए और सुनिश्चित करना चाहिए कि वह संभावित खरीदारों की नजर में आए। देश में बेहतरीन प्रदर्शन रहेगा तभी विदेशी ग्राहक भी उसे गंभीरता से देखेंगे।
दूसरा, जो उपकरण या प्लेटफॉर्म विकास के आखिरी चरण में हो या सेना में आने वाला हो, उसका परीक्षण वास्तविक जरूरतों और परिस्थितियों के हिसाब से होना चाहिए। अर्जुन टैंक और तेजस युद्धक विमान ऐसे स्वदेशी प्लेटफॉर्म हैं, जिनमें बदलाव की मांग आती रहती हैं।
आरंभ में रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) अर्जुन में बदलाव करता रहा मगर बदलावों की मांग खत्म ही नहीं हुई और अंत में टैंक अपनी ही अपेक्षाओं के तले दब गया। इससे देश की सेना को सबक मिल गया होगा कि संपूर्णता अक्सर अच्छाई की दुश्मान होती है। हमारी सेना किसी भी प्लेटफॉर्म में अक्सर इतना कुछ डालने के लिए कुख्यात है, जिसकी जंग के मैदान में शायद ही कभी जरूरत पड़े। यही वजह है कि डीआरडीओ या युद्धपोत डिजाइन निदेशालय अक्सर बदलाव पर बदलाव करता रहता है और अंत में उत्पाद खत्म ही हो जाता है।
तीसरा सबक यह है कि रक्षा निर्यात ऐसे वाणिज्यिक उपकरणों का होता है, जिनसे खरीदार के लिए उत्पाद या प्लेटफॉर्म की लागत कम हो और विक्रेता के लिए उनकी कीमत बढ़ जाए। जो सरकार हथियारों की बिक्री पर जोर दे रही हो उसे पूरा जोर इसी पर देना चाहिए। इसलिए सैनिकों, अधिकारियों, राजनियकों, अर्थशास्त्रियों, टेक्नोक्रेट्स और मीडिया को भी कम लागत पर ऑर्डर हासिल करने के लिए जोर लगाना चाहिए।
चौथा और आखिरी सबक यह है कि हमें रक्षा खरीद एजेंसियों को ऐसा बनाना है कि फायदा ज्यादा से ज्यादा हो और देर कम से कम हो। अमेरिका जैसे प्रमुख रक्षा निर्यातकों ने इसके लिए बाकायदा विभाग बनाया है, जिसे रक्षा सहयोग कार्यालय का नाम दिया गया है। यह विभाग हथियारों की बिक्री पर नजर रखता है और जिम्मेदारी बांटता है। इसकी वजह से नियंत्रण कड़ा करने के इरादे से युद्ध सामग्री की एक सूची बनाई गई है और निर्यात पर नियंत्रण के लिए मानक प्रक्रिया तय की गई है। हमारे देश में रक्षा संवर्द्धन विभाग में एक छोटे से प्रकोष्ठ के अलावा ऐसी कोई एजेंसी नहीं है, जिसे निर्यात से जुड़े काम सौंपे गए हों।
ऐसा विभाग अंतिम उपभोक्ता के प्रमाणन जैसी समस्याओं से निपटने में संस्थागत विशेषज्ञता प्रदान करेगा और तेजस जैसे विमानों की बिक्री के लिए जरूरी पेचीदा मंजूरी भी प्रदान करेगा। पेचीदा इसलिए है क्योंकि तेजस में विभिन्न देशों के सिस्टम और सब सिस्टम लगे रहते हैं। उदाहरण के लिए इजरायल से एयरबोर्न रडार, ब्रिटेन से इजेक्शन सीट और फ्रांस से कांच के कॉकपिट के लिए मंजूरी की जरूरत होगी। रूसी इंजन के निर्माण में देर होने की समस्या अलग है। इन प्रक्रियाओं से निपटने के लिए एक संस्थान का निर्माण हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।