गत सप्ताह तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा) ने मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को लेकर आपत्ति दर्ज कराने के लिए चुनाव आयोग का रुख किया और विपक्ष के सुर में सुर मिला दिए। इस पर कई लोगों ने कहा कि तेदेपा और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के रिश्ते खराब होने लगे हैं और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग किसी भी समय बिखर सकता है। राजग की सरकार के लिए तेदेपा के 16 सांसद बहुत अधिक अहमियत रखते हैं क्योंकि 293 सीटों वाले राजग में बहुमत के 272 सीटों के आंकड़े से केवल 21 सीटें अधिक हैं।
भले ही यह निष्कर्ष जल्दबाजी में निकाला गया है लेकिन यह काफी हद तक सच है। मतदाता सूचियों में संशोधन को लेकर भारत निर्वाचन आयोग की भूमिका और उसकी शक्तियों की बात करें तो तेदेपा और विपक्षी दलों के आरोपों में बहुत दम नजर आता है। तेदेपा का कहना है नागरिकता का निर्धारण करना निर्वाचन आयोग का काम नहीं है और मतदाता सूची में संशोधन के नाम पर केवल सुधार और नए नाम जोड़ने का काम किया जाना चाहिए। जब तक ‘खास और प्रमाणित करने योग्य कारण न हों’ तब तक नागरिकता का प्रमाण मांगने की आवश्यकता नहीं थी।
यह पहला मौका नहीं है जब मतदाता सूची में संशोधन आंध्र प्रदेश में राजनीतिक मुद्दा बना है। वर्ष 2018-19 में तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष और वाईएसआर कांग्रेस के जगनमोहन रेड्डी ने आरोप लगाया था कि सत्ताधारी तेदेपा ने 60 लाख फर्जी नाम मतदाता सूचियों में जोड़े हैं ताकि चुनाव परिणामों को अपने पक्ष में किया जा सके। इस पर उच्च न्यायालय ने निर्वाचन आयोग को निर्देश दिया था कि वह मतदाता सूचियों की ऑडिट करे और ऐसा ही किया गया। रेड्डी को उन चुनावों मे भारी जीत मिली। यह जीत उनके द्वारा लगाए गए आरोपों की वजह से मिली या इसमें उनकी कोई भूमिका नहीं थी, यह हम कभी नहीं जान पाएंगे।
इस हार के बाद तेदेपा ने अपने तौर तरीकों में बदलाव किया। आंध्र प्रदेश की 10 फीसदी आबादी मुस्लिम है जो गुंटूर, कृष्णा, नेल्लूर जिलों और रायलसीमा के विधान सभा क्षेत्रों में असर डालती है। तेदेपा ने 2018 में राजग से अलग होने का निर्णय लिया क्योंकि आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने से इनकार कर दिया गया था। परंतु 2024 के लोक सभा चुनाव और उसके साथ ही हुए राज्य विधान सभा चुनाव के पहले वह गठबंधन में दोबारा शामिल हो गई। इस बार पार्टी मुस्लिम मतदाताओं की संवेदनशीलता को लेकर अत्यधिक सतर्क थी।
चुनाव अभियान के दौरान चंद्रबाबू नायडू ने मुस्लिमों को आश्वस्त करने का प्रयास किया कि गठबंधन उनके हितों का पूरा ध्यान रखेगा। उन्होंने वादा किया कि अगर गठबंधन सत्ता में आता है तो मुस्लिम समुदाय को कई सुविधाएं प्रदान की जाएंगी। इनमें हज सब्सिडी, मस्जिदों के रखरखाव के लिए प्रति माह 5,000 रुपये की राशि और दुल्हन योजना के तहत मुस्लिम वधुओं को 1 लाख रुपये देने का वादा शामिल था। उन्होंने ओबीसी कोटे में मुस्लिमों के लिए 4 फीसदी आरक्षण बरकरार रखने की बात भी कही थी। पड़ोसी राज्य तेलंगाना में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक भाषण में कहा था, ‘जब तक मोदी जिंदा है, मैं दलितों, आदिवासियों, ओबीसी का आरक्षण धर्म के आधार पर मुस्लिमों को नहीं देने दूंगा।’
अब जबकि भाजपा के साथ गठबंधन के बाद पार्टी को केंद्र में मंत्री के दो पद मिल चुके हैं तो तेदेपा नरमी से लेकिन दृढ़ता दिखाते हुए आगे बढ़ रही है। मतदाताओं से मताधिकार के छिन जाने की आशंका एक अहम मुद्दा है। बिहार या पश्चिम बंगाल के उलट आंध्र प्रदेश में बहुत कम अवैध प्रवासी हैं हालांकि अफसरशाह मानते हैं कि जन्म प्रमाणपत्र जैसा नागरिकता का दस्तावेजी प्रमाण मांगना डेटा की दृष्टि से एक दु:स्वप्न की तरह है।
भाजपा भी सतर्क है। बेहतरीन प्रयासों के बावजूद राज्य में उसका मत प्रतिशत कभी 3 फीसदी का आंकड़ा पार नहीं कर सका है। पिछले दिनों डी पुरंदेश्वरी के स्थान पर पीवीएन माधव को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनाने का निर्णय भी एक रणनीतिक चयन था। पुरंदेश्वरी केवल दो साल तक प्रदेश अध्यक्ष रहीं लेकिन कई लोगों का विचार था कि वह पारिवारिक और जातिगत रिश्तों से बंधी हुई हैं। इसके विपरीत माधव अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से निकले एक ओबीसी नेता हैं। वह अपने पूरे राजनीतिक करियर में आरएसएस से जुड़े रहे हैं। उनका काम है राज्य में भाजपा को आगे ले जाना और वह भी बिना तेदेपा को अलग-थलग किए ताकि 2029 तक राज्य में भाजपा की मौजूदगी सम्मानजनक हो सके।
भाजपा ने कई तरह से यह दिखाया है कि उसका गठबंधन स्थिर है। तेदेपा के निर्वाचन आयोग जाने के बाद अशोक गजपति राजू को गोवा का राज्यपाल बनाया गया। राजू तेदेपा के नेता रहे और पार्टी नेतृत्व के विश्वसनीय हैं। वर्ष1999 से 2004 के बीच उन्होंने प्रदेश में कई अहम मंत्रालय संभाले हैं। वर्ष 2025-26 के केंद्रीय बजट में अमरावती के विकास के लिए 15,000 करोड़ रुपये के आवंटन तथा भविष्य में और विकास के वादों ने राज्य को विशेष दर्जा दिए जाने की मांग को राजनीतिक दृष्टि से अप्रासंगिक बना दिया है।
असली परीक्षा संसद के आगामी मॉनसून सत्र में होगी जहां एसआईआर पर चर्चा हो सकती है। क्या तेदेपा वह कहेगी जिस पर वह विश्वास करती है? भाजपा इस पर क्या प्रतिक्रिया देगी? अगर चर्चा होती है तो हमें पता चलेगा कि दोनों साझेदारों के बीच वास्तविक रिश्ता कैसा है?