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तेजस हादसा देश के लिए आत्मावलोकन का अवसर

तेजस एक ऐसा विमान है जो बेहतरीन है, किफायती है और शानदार सुरक्षा रिकॉर्ड वाला है, परंतु हालिया हादसा हमारी सीमाओं और कमियों पर विचार करने का महत्त्वपूर्ण क्षण है

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शेखर गुप्ता   
Last Updated- November 23, 2025 | 10:56 PM IST

दुबई एयर शो में तेजस विमान का दुर्घटनाग्रस्त होना और विमान चालक की मौत स्तब्ध कर देने वाला क्षण था। भारतीय वायु सेना बहुत मजबूत, गौरवशाली और पेशवर है। वह इस झटके को सहन कर जाएगी। भारत के नीति निर्माताओं के लिए जरूर यह उपयुक्त समय है, जब उन्हें यह तय करना होगा कि क्या वे वायु सेना के साथ न्याय कर रहे हैं, खासकर उसकी जरूरतों को देखते हुए। या फिर वे वायु सेना से जो कुछ मांग करते हैं, उसे जो समझौते या समायोजन करने को कहते हैं वे कितने उचित हैं।

बहरहाल यह भी महत्वपूर्ण है कि हम खुद को यह याद दिलाएं कि विमानचालक बहुत सख्त जान होते हैं। उनमें भी जो सबसे मजबूत होते हैं वे भारतीय वायु सेना में होते हैं क्योंकि वे दुनिया के उन चुनिंदा लोगों में से हैं जो हमेशा परिचालन के लिए तैयार रहते हैं।  वायु सेना तीन वजहों से खास है और उसका विशेष तौर पर उल्लेख करना जरूरी है।

पहला, यह अधिकांश कठिन या दंडात्मक परिस्थितियों में सबसे पहले जवाब देता है, क्योंकि मोदी सरकार का सिद्धांत है कि हर आतंकी कृत्य युद्ध का कृत्य है और तत्काल जवाब का पात्र है। दूसरा, क्योंकि वायु सेना तीनों सेवाओं में एकमात्र ऐसी है जहां युद्ध लगभग पूरी तरह उसके अधिकारियों द्वारा लड़ा जाता है, जो एक छोटा और संगठित समूह बनाते हैं। और तीसरा, तीनों सेनाओं में से वायु सेना सबसे अधिक तकनीक निर्भर है।

हम जानते हैं कि सेनाओं के बीच प्रतिस्पर्द्धा रहती है, इसलिए हमें मानना होगा कि बाकी दोनों सेनाओं के लिए भी तकनीक महत्त्व रखती है। वायु सेना के मामले में फर्क सिर्फ इतना है कि लड़ाई के सारे साधन, जमीन पर उसे निर्देश देने, नियंत्रण में रखने और सुरक्षा देने वाले उपकरण निरंतर बदलते इलेक्ट्रॉनिक्स पर निर्भर होते हैं।

वायु सेना की चुनौतियों में हम एक चौथी चुनौती जोड़ सकते हैं। थल सेना और नौ सेना में संख्या कभी-कभी तकनीकी कमी को पूरा कर सकती है, लेकिन वायु सेना के पास ऐसा करने की गुंजाइश कम है। इसके अतिरिक्त, चूंकि युद्धक विमानन परिसंपत्तियों की पूंजी लागत नौ सेना की तुलना में उतनी अधिक नहीं है, पाकिस्तान के लिए बराबरी बनाए रखना, यहां तक कि कुछ क्षेत्रों में आगे निकल जाना भी अधिक संभव है। खासतौर पर क्योंकि उसका ढांचा बहुत छोटी झड़पों में हवा से हवा में जंग के लिए अनुकूलित है और चीन भी हमेशा मदद के लिए मौजूद रहता है।

1950 के दशक के मध्य से ही यानी जब अमेरिका ने पाकिस्तानी वायु सेना को अपने नवीनतम लड़ाकू विमान सौंपे, भारतीय वायु सेना उसकी बराबरी करने पर विवश हो गई। 1965 की जंग में जब हमारी वायु सेना का मुकाबला पाकिस्तान की वायु सेना से हुआ तब उसके पास सुपरसोनिक और मिसाइल से लैस एफ-104 स्टारफाइटर थे। 1971 तक सोवियत संघ के साथ हमारे रिश्ते बहुत गहरे हो चले और हम कुछ हद तक बराबरी करने में कामयाब रहे। सत्तर के दशक में पाकिस्तान उबरने की कोशिश में था।

1984 तक हालात तेजी से बदल गए जब एफ-16 विमान आ गए। सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान पर आक्रमण के पांच साल बाद अमेरिका ने पाकिस्तान को ये विमान तोहफे में दिए।

बहरहाल, यह उपमहाद्वीप में हवाई श्रेष्ठता की सात दशकों की लंबी होड़ के इतिहास को दोहराने की बात नहीं है। यह कहीं अधिक गंभीर दुविधाओं के बारे में है जिनसे भारत ने इस मोर्चे पर संघर्ष किया है। तेजस इसी का परिणाम है और अपेक्षाकृत बेहतर परिणाम है। यह एक शानदार, उचित मूल्य वाला, अधिकांशत: स्वदेशी विमान है जिसका सुरक्षा रिकॉर्ड बेहतरीन रहा है। पहली उड़ान के बाद 24 साल में यह केवल दो बार दुर्घटनाग्रस्त हुआ है।

परंतु क्या यह 2025 में भी हमारी सबसे बड़ी सफलता है? क्या यह अब भी प्रतिस्पर्धा के साथ कदमताल की कोशिश कर रहा है? क्या हम इसे बहुत पहले नहीं बना सकते थे? याद कीजिए कैसे मनोहर पर्रिकर ने रक्षा मंत्री रहते हुए 2015 में अनिच्छुक वायु सेना को तेजस मार्क 1ए को स्वीकार करने पर मजबूर किया था, तब 2022 में इसकी आपूर्ति करने का वादा किया गया था। अब अगर 2027 तक इसका पहला बेड़ा भी परिचालन में आ जाए तो हम खुशकिस्मत होंगे। पांच साल की देरी की कीमत भी हमें चुकानी होगी।

इस बीच पाकिस्तान ने जेएफ-17 के कई संस्करण तैयार किए हैं, हालांकि इनके 57 फीसदी से अधिक स्वदेशी होने का दावा नहीं किया गया है। यह पाकिस्तान एयरक्राफ्ट कॉम्प्लेक्स और चेंगदू एयरक्राफ्ट कॉरपोरेशन का संयुक्त उपक्रम है। आने वाले कुछ महीनों में तेजस एमके 1ए की तैनाती इन कमियों को कुछ हद तक भर सकती है, लेकिन हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स को नए स्वदेशी इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर (ईडब्ल्यू) सूट को इसके एल्बिट (इजरायली) रडार, मिसाइल एकीकरण और अन्य तकनीकों के साथ समन्वित करने में संघर्ष करना पड़ा है, जिससे देरी बढ़ी है और इस बीच प्रतिद्वंद्वी भी रुके नहीं रहेंगे।

चूंकि ये अधिकांशतः सॉफ्टवेयर संबंधी समस्याएं हैं, इसने हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स को जीई इंजनों की देर से आपूर्ति का सामान्य बहाना भी नहीं दिया। अपना लड़ाकू विमान होना एक शानदार विचार है, लेकिन लगातार पिछड़ने की स्थिति में फंसे रहना हमारे लिए नुकसानदेह है। यही उन अनेक दुविधाओं का केंद्रीय मुद्दा है जिनकी हम चर्चा कर रहे हैं।

1950 के दशक के उत्तरार्ध में, जब पाकिस्तान को उसके शुरुआती सेबर विमान मिल रहे थे, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार विकल्प खोज रही थी। सोवियत संघ से जुड़ाव तब तक नहीं हुआ था, सच्ची गुटनिरपेक्षता को लेकर प्रतिबद्धता प्रबल थी, लेकिन इसने सेना, विशेषकर वायु सेना के लिए भी मुश्किल पैदा की।  भारतीय वायु सेना के पहले जेट विमान ब्रिटेन से आए वैम्पायर और फ्रांस के दसॉ ओरागन (तूफानी) आगमन पर ही अप्रचलित हो चुके थे, जिन्हें 1953 में शामिल किया गया। ब्रिटिश हंटर्स और जीनैट का अधिग्रहण, जिन्हें रॉयल एयर फोर्स ने त्याग दिया था, एक तात्कालिक समाधान था, लेकिन मिसाइल-सुसज्जित सेबर और रात में सक्षम स्टारफाइटर्स के साथ अंतर बना रहा।

इन बातों को देखते हुए 1950 के दशक के मध्य में नेहरू ने एक घरेलू सुपरसोनिक जेट फाइटर बनाने का निर्णय लिया। उनकी नजर जर्मन इंजीनियर कर्त टैंक पर पड़ी। कर्त ने ही सबसे सफल लुफ्तवेफ फाइटर एफडब्ल्यू-190 तैयार किया था। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ऐसे 20,000 विमानों ने उड़ान भरी। चूंकि कर्त टैंक नाजी नहीं थे इसलिए उनकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मांग थी।

नेहरू उन्हें मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी का निदेशक बनाकर भारत लाए। उन्होंने जल्दी ही अपनी टीम बनाई। एपीजे अब्दुल कलाम उनकी टीम के सदस्य थे। एचएफ-24 मारुत नाम के विमान का डिजाइन शानदार था, लेकिन इसके लिए कोई इंजन उपलब्ध नहीं था। कुछ समय बाद टैंक लौट गए और भारत की कोशिश जारी रही।

ध्वनि से तेज जाने की आकांक्षा कभी पूरी नहीं हो सकी। इसका अधिकतम प्रदर्शन मैक 0.93 तक ही रहा और वह भी दो ऑर्फियस इंजनों के साथ, जिन्हें भारत छोटे, एक इंजन वाले विमान जीनैट के लिए बना रहा था। मिस्र के साथ मिलकर इंजन बनाने की परियोजना विफल रही। लेकिन लड़ाकू विमानों के प्रति इतना प्रबल राष्ट्रवाद था कि भारत ने फिर भी 147 ऐसे विमान बनाए जिनमें से 28 दुर्घटनाग्रस्त हो गए। इसे 1985 में इसे पूरी तरह सेवा से बाहर किया गया।

तेजस के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। पहले सरकार ने 1983 में हल्के लड़ाकू विमान (एलसीए) को मंजूरी दी। उस समय रक्षा शोध एवं विकास संस्थान के प्रमुख रहे वीएस अरुणाचलम कई बार मजाक में इसे एलसीए यानी लास्ट चांस फॉर अरुणाचलम भी कहते। अपनी पहली उड़ान भरने में इसे 18 वर्ष और लगे, जिसे अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘तेजस’ नाम दिया। प्रारंभिक परिचालन मंजूरी में 15 वर्ष और लगे, तथा पूर्ण परिचालन स्वीकृति में अतिरिक्त चार वर्ष। कहानी अब भी जारी है। यह भारतीय वायु शक्ति की संक्षिप्त और खेदजनक कहानी है, जो सात दशकों से पहले से चल रही एक हताश तकनीकी दौड़ में फंसी रही।

अगर कोई तेजी से कमियों को दूर करने की बात करता है, तो उसे ‘इम्पोर्ट बहादुर’ कहकर खारिज कर दिया जाता है। मौन रहने के लिए प्रशिक्षित सेनाएं दुर्भाग्यवश अपने लिए कमजोर लॉबी बनाती हैं। वरना वे आपको बतातीं कि युद्ध में कोई आपको रियायत नहीं देता।

दुबई में हुई यह दुखद हानि और एक अत्यंत कुशल युवा जीवन का बलिदान हमारे आत्म-निर्मित सीमाओं और वायु शक्ति की कमियों पर विचार करने का महत्त्वपूर्ण क्षण है। यहां स्पष्ट कर दें कि ऐसा कुछ नहीं है जो यह दर्शाए कि इस विमान या इसके प्रकार, तेजस मार्क 1 में कोई खामी थी। लेकिन यदि यह हमें हमारी ढीली-ढाले रवैये की याद दिलाता है और बदलाव लाता है, तो इस बलिदान से भारत के लिए कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण हासिल हो सकता है।

First Published : November 23, 2025 | 9:22 PM IST