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टाटा ग्रुप का तूफान थमा? बड़े शेयरधारक को मिली कानूनी बढ़त

टाटा समूह में जो ताजा टकराव के हालात हैं उनके पीछे खराब संचालन नहीं बल्कि दबदबे वाले अंशधारक की निर्णायक भूमिका है जो पूरी तरह वि​धि सम्मत है। बता रहे हैं टीटी राम मोहन

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टी टी राम मोहन   
Last Updated- November 14, 2025 | 10:10 PM IST

टाटा समूह एक बार फिर गलत वजहों से सुर्खियों में है। टाटा परिवार के नोएल टाटा और समूह में महत्त्वपूर्ण पदों पर बैठे कुछ लोगों के बीच झगड़ा शुरू हो गया। टाटा परिवार के दो महत्त्वपूर्ण ट्रस्ट्स यानी सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट और सर रतन टाटा ट्रस्ट के बोर्ड में मतभेद की खबरें हैं। एक ओर नोएल टाटा के नेतृत्व वाला समूह है और दूसरा समूह वह है जिसमें नोएल टाटा के रिश्तेदार मेहली मिस्त्री प्रमुख भूमिका में हैं।

अब पता चला है मेहली मिस्त्री जो हाल तक टाटा ट्रस्ट्स के बोर्ड के सदस्य थे इस बात के लिए तैयार हो गए हैं कि वह नोएल टाटा के साथ अपनी लड़ाई को आगे नहीं ले जाएंगे। पूरी संभावना है कि तूफान टल गया है।

अक्टूबर 2024 में टाटा ट्रस्ट्स द्वारा पारित एक बोर्ड प्रस्ताव से मिस्त्री को राहत मिली जिसमें कहा गया था कि ट्रस्ट्स के सभी बोर्ड सदस्यों का कार्यकाल जब नवीनीकरण के लिए आएगा, तो उन्हें आजीवन के लिए नवीनीकृत किया जाएगा। इसी के अनुसार, वेणु श्रीनिवासन जो एक ट्रस्टी हैं और नोएल टाटा के विश्वस्त माने जाते हैं, उनका कार्यकाल अक्टूबर के तीसरे सप्ताह में नवीनीकृत कर दिया गया।

परंतु जब मिस्त्री के कार्यकाल के नवीनीकरण का समय आया तो नोएल टाटा वाले धड़े ने अपनी सहमति स्थगित कर दी। श्रीनिवासन बने रहे लेकिन मिस्त्री बाहर हो गए। इसके बाद मिस्त्री ने चैरिटीज कमिश्नर के समक्ष अपनी आपत्ति पेश की। हालांकि, उसके बाद उन्होंने एक पत्र लिखा है जिससे अंदाजा मिलता है कि वह पीछे हट गए हैं।

कई टीकाकार समूह के इस आंतरिक कलह को लेकर चिंतित थे और उन्होंने टाटा समूह की कंपनियों के भविष्य पर इसके असर को लेकर भी चिंता जताई। लेकिन अगर उन्होंने इससे पहले रतन टाटा और साइरस मिस्त्री के बीच छिड़ी लड़ाई पर नजर डाली होगी तो उन्हें चिंतित होने की जरूरत नहीं है।

रतन टाटा और साइरस मिस्त्री के बीच की लड़ाई पांच साल चली लेकिन उसका असर समूह की कंपनियों पर नहीं पड़ा। इसी तरह इस बार भी नोएल टाटा तथा कुछ अन्य लोगों के बीच की लड़ाई का असर भी टाटा समूह के प्रदर्शन पर पड़ता नहीं नजर आता। हालांकि मीडिया में इस लड़ाई का ड्रामा बरकरार है। टाटा ट्रस्ट्स के संचालन, टाटा संस के साथ उनके संबंध, टाटा संस के बोर्ड की भूमिका, और टाटा समूह की कंपनियों के बोर्डों की भूमिका को लेकर काफी चिंता व्यक्त की जा रही है। कुछ टिप्पणीकारों का कहना है कि आज का टाटा समूह उस शासन प्रणाली के मानकों पर खरा नहीं उतरता, जिसकी अपेक्षा इतने प्रतिष्ठित समूह से की जाती है।

टाटा समूह के आलोचकों को माननीय उच्चतम न्यायालय के उस निर्णय को पढ़ने की आवश्यकता है जो उसने 2021 में टाटा समूह और साइरस मिस्त्री के बीच के विवाद में दिया था। मिस्त्री को टाटा संस के कार्यकारी चेयरमैन पद से हटाया गया था। न्यायालय ने कहा था कि साइरस मिस्त्री द्वारा उठाए गए मामलों में टाटा समूह का रुख पूरी तरह कानूनी था।

इतना ही नहीं, समूह ने एकतरफा रूप से उन शासन मानकों का पालन किया, जिन्हें कानूनी रूप से पूरा करना आवश्यक नहीं था। टाटा परिवार इस विशाल समूह पर नियंत्रण विभिन्न ट्रस्टों के माध्यम से करता है, विशेष रूप से ऊपर उल्लिखित दो ट्रस्टों के ज़रिए। टाटा ट्रस्ट्स के पास टाटा संस में दो-तिहाई हिस्सेदारी है, जो कि टाटा समूह की कई सूचीबद्ध और गैर-सूचीबद्ध कंपनियों की होल्डिंग कंपनी है।

टाटा ट्रस्ट्स के नामित प्रतिनिधियों को टाटा संस में ‘सकारात्मक मतदान अधिकार’ प्राप्त हैं, अर्थात टाटा संस के बोर्ड द्वारा कोई भी निर्णय उनकी स्वीकृति के बिना नहीं लिया जा सकता। बोर्ड के अन्य निदेशक (वर्तमान में पांच बताए जाते हैं, जिनमें तीन स्वतंत्र निदेशक शामिल हैं) टाटा ट्रस्ट्स के दो नामित प्रतिनिधियों को अपने बहुमत से पछाड़ नहीं सकते। आलोचक इसे कॉरपोरेट गवर्नेंस की भावना के विपरीत मानते हैं; उनका तर्क है कि किसी बोर्ड में बहुमत का मत ही निर्णायक होना चाहिए।

परंतु सर्वोच्च न्यायालय ऐसा नहीं सोचता। उसका मानना है कि सकारात्मक मताधिकार एक वैश्विक मानक है और एक अंशधारक या अंशधारक समूह जो बहुमत तैयार करता है वह हमेशा ऐसे मताधिकार आरक्षित रखकर अपने आपको निर्णायक बनाए रखना चाह सकता है। यह भी उल्लेख किया गया कि टाटा संस में 66 फीसदी हिस्सेदारी होने के कारण, वे दोनों ट्रस्ट चाहते तो बोर्ड को पूरी तरह अपने निदेशकों से भर सकते थे।

लेकिन उन्होंने ऐसा न करते हुए, अपने नामित सदस्यों की संख्या बोर्ड की कुल संख्या के एक-तिहाई तक सीमित रखी। इसके अलावा, टाटा ट्रस्ट्स ने टाटा संस में स्वतंत्र निदेशकों की नियुक्ति भी की, जबकि टाटा संस एक सूचीबद्ध कंपनी नहीं है और उसके बोर्ड में स्वतंत्र निदेशक रखने की कोई कानूनी अनिवार्यता नहीं है। इस प्रकार, आलोचकों की बातों के विपरीत, तकनीकी दृष्टिकोण से टाटा संस कॉरपोरेट गवर्नेंस के मानकों से आगे है।

इसमें दो राय नहीं कि टाटा संस में स्वतंत्र निदेशक रखने के पीछे की प्रेरणा यह थी कि समूह से बाहर के लोगों के विचारों का लाभ मिल सके। परंतु ये विचार केवल मशविरे के रूप में होते हैं। जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि टाटा संस की किसी भी आम बैठक में टाटा ट्रस्ट्स के पास ही अधिकांश मत रहते हैं। इस प्रकार, टाटा संस के बोर्ड द्वारा ऐसा कोई निर्णय लिए जाने का प्रश्न ही नहीं उठता जिसे प्रमुख शेयरधारक टाटा ट्रस्ट्स स्वीकृति न दें। टाटा संस के बोर्ड में टाटा ट्रस्ट्स के नामित प्रतिनिधियों को दिए गए सकारात्मक मताधिकारों से संबंधित अनुच्छेद केवल इस वास्तविकता को औपचारिक रूप से दर्ज करता है।

अधिकांश परिवार नियंत्रित औद्योगिक समूहों में समूह या परिवार का मुखिया ही अक्सर समूह की कंपनियों के बोर्ड का नेतृत्व करता है। बोर्ड के सभी निर्णयों को परिवार की मंजूरी की जरूरत होती है। स्वतंत्र निदेशक परिवार के विरुद्ध नहीं जाते। टाटा समूह में कई कंपनियां हैं और बहुत कम पारिवारिक सदस्य। इसलिए उन्होंने एक ऐसी संरचना अपनाई है जो टाटा परिवार को सभी मामलों में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार देती है, बिना इस आवश्यकता के कि टाटा परिवार के सदस्य समूह की कंपनियों के बोर्ड की अध्यक्षता करें या उनमें निदेशक हों।

समूह की कंपनियां टाटा संस के नियंत्रण में हैं, और टाटा संस स्वयं टाटा ट्रस्ट्स के नियंत्रण में है। यह मानना कि निर्णय विभिन्न बोर्डों पर छोड़ दिए गए हैं, एक भ्रम मात्र है। जो टाटा ट्रस्ट्स पर नियंत्रण रखता है, उसी का नियंत्रण टाटा समूह पर भी होता है। इस समय नोएल टाटा के पास यह शक्ति है। मेहली मिस्त्री को टाटा ट्रस्ट्स से बाहर कर दिया गया है। अगर उनके समूह के अन्य सदस्यों के साथ भी ऐसा हो तो चकित होने की जरूरत नहीं।

समय के साथ टाटा ट्रस्ट्स के बोर्ड में ऐसे सदस्य होंगे जिनके साथ नोएल टाटा अधिक सहज होंगे। शांति स्थापित हो जाएगी। कइयों को लगता है कि टाटा परिवार अलग है। वे इस प्रकार अलग हैं कि परिवार विशेष तरीके से समूह पर नियंत्रण रखता है। हालांकि अन्य पारिवारिक व्यवसायों की तरह ही, यहां भी प्रमुख शेयरधारक ही निर्णय लेने वाला होता है, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है, यह कानूनी रूप से वैध है।

First Published : November 14, 2025 | 9:59 PM IST