पिछले कुछ समय से यह आम धारणा रही है कि वित्त मंत्रालय और भारतीय रिजर्व बैंक के बीच नीतिगत मामलों को लेकर मतभेद हैं जिनमें ब्याज दरें और विनिमय दर प्रबंधन शामिल है।
ऐसे में प्रेक्षक इस तथ्य पर ज्यादा गौर करेंगे कि वर्तमान वित्त सचिव डी सुब्बा राव को रिजर्व बैंक के मौजूदा डिप्टी गवर्नर की तुलना में वरीयता देते हुए वाई वी रेड्डी के स्थान पर केंद्रीय बैंक का गवर्नर मनोनीत किया गया। पिछले तीन दशकों से ज्यादा के अंतराल में नॉर्थ ब्लॉक से कोई भी व्यक्ति सीधे मिंट रोड में शीर्ष पद पर नहीं पहुंचा है।
गंभीर मसलों पर क्या राव के विचार रेड्डी से जुदा होंगे यह तो आने वाला समय ही बताएगा। रिजर्व बैंक में राव के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि वित्तीय क्षेत्र की ढांचागत आवश्यकताओं और वृहत अर्थव्यवस्था की चुनौतियों को ध्यान में रखकर उन्हें तत्काल कदम उठाने पड़ेंगे।
राव के लिए पहली परीक्षा तब होगी, जब अक्टूबर के अंत में मौद्रिक नीतियों की तिमाही समीक्षा की जाएगी। रेड्डी ने पिछले कुछ महीनों के दौरान महंगाई पर लगाम लगाने के लिए कुछ सख्त कदम उठाए हैं। आगे भी जब तक महंगाई की दर घट कर सहनीय स्तर पर नहीं पहुंच जाती तब तक तर्कसंगत तरीके से आरबीआई की ब्याज दरों को बढ़ाया जा सकता है।
कई बार ऐसा देखने को मिला है कि ब्याज दरों को बढ़ाने से होने वाले फायदों के बारे में वित्त मंत्रालय को आश्वस्त नहीं किया जा सका है और मंत्रालय को यही लगता है कि प्राथमिकता यही होनी चाहिए कि ब्याज दरें निवेश को बढ़ावा देने वाली हों।
नए गवर्नर को जो सवाल पूछना चाहिए वह यह है कि अगर वह मौजूदा नीतियों से उलट कोई कदम उठाते हैं तो इससे विकास को गति तो मिलेगी पर क्या यह लोगों की अपेक्षाएं और बढ़ा देगा जिससे दर्द ही होगा। अगर उन्हें लगता है कि इससे लोगों की अपेक्षाएं बढ़ेंगी तो क्या वह नॉर्थ ब्लॉक के साथ तनावपूर्ण रिश्तों के लिए तैयार होंगे जैसा जोखिम रेड्डी ने उठाया था?
रुपये का उतार चढ़ाव भी हाल के दिनों में चिंता का विषय है। पिछले 18 महीनों में रुपये के मूल्य में मजबूती भी आई है और यह नीचे भी गिरा है, इससे लोगों में ऊहापोह की स्थिति है। वे विनिमय दर नीति को लेकर भी संशय की स्थिति में है। विनिमय दर प्रबंधन का प्रस्ताव पेश किया जा चुका है और आरबीआई को लेन देन को लेकर रास्ता साफ करने की जरूरत है।
बैंकिंग क्षेत्र को विस्तार देने के लिए 2004 में जो योजना तैयार की गई वह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को समेकित करने और उन्हें मजबूती प्रदान करने से ठीक उलट रवैया है। रेड्डी के कार्यकाल के दौरान ही भारत की विकास गाथा लिखी गई है और विदेशों में भी देश का प्रोफाइल मजबूत हुआ है। अगर कहें कि मौद्रिक नीतियों के बेहतर प्रबंधन के जरिए रेड्डी ने भी इसमें योगदान दिया है तो शायद यह गलत नहीं होगा।
आज बैंकिंग क्षेत्र जितना मजबूत है, उतना शायद ही पहले कभी था। रेड्डी ने शहरी सहकारी बैंकों में सुधार की हवा बहाई है। उन्होंने ही नई मौद्रिक नीति समिति में बाहरी विशेषज्ञों को शामिल कर इसे बेहतर बनाने का प्रयास किया। पर रेड्डी को भी एशियाई वित्तीय संकट की चुनौती का सामना करना पड़ा। आने वाले समय में सुब्बा राव से भी यह उम्मीद है कि वह महंगाई से निपटने और वित्तीय क्षेत्र में ढांचागत परिवर्तनों के बीच संतुलन बना कर रखेंगे।