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RSS, सत्ता और छिपी हुई कठिनाइयां

Published by
शेखर गुप्ता
Last Updated- January 15, 2023 | 10:09 PM IST

संघ इस समय ऐतिहासिक रूप से सबसे अधिक ताकतवर स्थिति में है। इसके साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि वह कभी इतना अधिक कमजोर नहीं रहा। यह विरोधाभास कैसे दूर होगा?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रमुख जिन्हें सरसंघचालक भी कहा जाता है, उनकी जीवनशैली ऐसी है कि वे सार्वजनिक रूप से बातचीत में काफी संयमी होते हैं। यही कारण है कि उन पर नजर रखने वाले विजयादशमी या दशहरे पर उनके सालाना भाषण की प्रतीक्षा करते हैं। यह भाषण अमेरिका के स्टेट ऑफ द यूनियन संबोधन की तरह माना जाता है।

आरएसएस के वर्तमान प्रमुख मोहन मधुकर राव भागवत अतीत के प्रमुखों से अलग हैं। वे अक्सर बोलते हैं लेकिन काफी तौलकर। उनके पहले सरसंघचालक रहे के एस सुदर्शन अक्सर सुर्खियों की तलाश करने वालों की प्रसन्नता की वजह बनते थे। भागवत उनकी तरह नहीं हैं लेकिन फिर भी वे खबरों के केंद्र में रहते हैं। आरएसएस के मुखपत्र पांचजन्य और ऑर्गनाइजर के साथ उनके हालिया साक्षात्कार ने भी यही किया।

वह एक ऐसे माहौल में संघ के प्रमुख हैं जो उसके करीब 100 वर्षों के इतिहास में सबसे असाधारण माहौल से गुजर रहा है। 2014 तक अपनी स्थापना के 90 वर्ष में आरएसएस रक्षात्मक ही रहा। तत्कालीन सत्ता के साथ उसका रिश्ता विपरीत रहा और वह व्यापक सामाजिक स्वीकार्यता तथा राजनीतिक प्रासंगिकता के लिए जूझता रहा।

आज आरएसएस केवल सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा भर नहीं है बल्कि वह उसके मूल में है। भागवत पांचजन्य के साक्षात्कार में इसे स्वीकार किया। उन्होंने कहा कि अतीत में उसकी राह में कंटक थे, बौद्धिक और राजनैतिक अस्वीकार्यता और आलोचना थी। अब वह माहौल बदल चुका है। इसके बाद उन्होंने नई चुनौतियां और मुश्किलें गिनाईं जिनके बारे में हम बाद में बात करेंगे।

सरसंघचालक का यह कहना सही है कि राजनीतिक माहौल नाटकीय ढंग से बदला है और इसमें बेहतरी ही आई है। आरएसएस अपने अब तक के इतिहास में सबसे शक्तिशाली स्थिति में है। इसके साथ ही मैं यह भी कहूंगा कि वह कभी उतना कमजोर नहीं रहा जितना अब है। इस विरोधाभास को कैसे दूर किया जाए?

भागवत कहते हैं कि नए बदले हुए माहौल में उनके संगठन के लोग सत्ता में अहम पदों पर पहुंचे। इस बात से सभी सहमत होंगे कि इस समय देश पर आरएसएस का शासन है। नरेंद्र मोदी कोई अटल बिहारी वाजपेयी नहीं हैं जो खुद को मातृ संगठन से दूर दिखाने का प्रयास करें या अपनी वैचारिक जड़ों को लेकर रक्षात्मक रुख दिखाएं। वाजपेयी के दौर में आरएसएस और उनके बीच कभी चोरी छिपे तो कभी खुलकर नोकझोंक नजर आ ही जाती थी लेकिन मोदी के साथ ऐसा नहीं हुआ। अगर कुछ दिखा भी तो वह है केवल तारीफ।

यही वजह है कि हम कहते हैं कि राजनीतिक रूप से सबसे मजबूत होने के बाद भी आरएसएस प्रभाव के मामले में कमजोर है। इसलिए क्योंकि राजनीतिक शक्ति अब पूरी तरह मोदी सरकार के पास है। भले ही सैद्धांतिक तौर पर आरएसएस उनका गुरु है लेकिन कोई उन्हें सलाह तक देने की हिम्मत नहीं कर सकता है। आलोचना तो दूर की बात है। जब शिष्य इतना लोकप्रिय और दबदबे वाला हो जाए तो गुरु किनारे खड़े होकर ही सराहना करनी होती है।

अब आरएसएस अधिक सुर्खियां नहीं बटोर सकता। वह मौजूदा सरकार से सवाल नहीं कर सकता, उसे शर्मिंदा नहीं कर सकता। उसे कुछ पुराने बांटने वाले विचारों या सामाजिक दृष्टि से पिछड़े विचारों पर भी शांत रहना होगा। अब उस पर अच्छा दिखने का भी दबाव है।

सर्व शक्तिमान आरएसएस को अब अपनी विचारधारा के एकदम करीबी मुद्दों पर समझौते करने पड़ते हैं। इनमें व्यापार से लेकर जीन संवर्द्धित बीज, सामूहिक नेतृत्व से लेकर सर्वशक्तिशाली व्यक्तित्व और पश्चिम के साथ गठजोड़ से लेकर अहम इस्लामिक देशों तक पहुंच बनाना आदि सभी शामिल हैं। निश्चित तौर पर आरएसएस तथा उसके सदस्य, खासकर नेता इस बीच लाभान्वित भी हो रहे हैं। यह बात हमें वापस उन चुनौतियों और मुश्किलों की ओर ले आती है जिनका जिक्र सरसंघचालक ने पांचजन्य में किया था।

सबसे पहली चुनौती है समाचार मीडिया। भागवत का कहना है कि अब मीडिया के साथ मीडिया के साथ संबद्धता बढ़ानी होगी और ऐसा करना चाहिए। इससे हमें अच्छा लगेगा लेकिन हमें इसे लेकर आसक्त नहीं हो जाना चाहिए या उसका बंदी नहीं बन जाना चाहिए। इसी प्रकार अब जब हम रेलवे स्टेशन जाते हैं तो लोग हमें लेने आते हैं। यह भी अच्छा लगता है लेकिन हमें इस जाल में नहीं उलझना चाहिए। अब हमारे लोग ताकतवर पदों पर हैं और कई बार वे गलत बातें कहेंगे और संगठन को दोष दिया जाएगा। संगठन को वह दोष लेना भी चाहिए क्योंकि वे लोग यहीं से तो सीख कर गए हैं।

इसके बाद कुछ जटिलताएं उत्पन्न हो जाती हैं। सबसे बड़ी चुनौती है आरएसएस के सामने यह चुनौती है कि वह सत्ता तंत्र की बुनियाद के रूप में नई भूमिका कैसे निभाए। क्योंकि नौ दशकों तक वह विद्रोही भूमिका में रहा। औपचारिक सत्ता की सीमा यह भी है कि अहम वैचारिक मसलों पर अपनी आवाज नीची रखनी होती है। या अपने विचार को बहुत संभलकर रखना होता है जैसा कि भागवत ने इस साक्षात्कार में किया। यह उतना आसान नहीं है जितना प्रतीत होता है। अगर आपने बीते दशकों के दौरान अपना इतिहास, लोकप्रियता आदि सब एक सतत विद्रोही के रूप में तैयार किया है, आप हिंदुओं को पीड़ित बताते रहे हैं तो आप बहुसंख्यकों के पीड़ित होने के इस विचार से दूरी कैसे बनाएंगे? और कहां जाएंगे?

सामाजिक मसलों पर यह बदलाव आसान है लेकिन मुस्लिमों या ईसाइयों के मामले में ऐसा करना मुश्किल है। सामाजिक मामलों में बदलाव को लेकर भागवत ने बहुत सफाई से काम किया है। उन्होंने समलैंगिकता और एलजीबीटीक्यू अधिकारों के मामले में आरएसएस की धारणाओं को बदला है। उन्होंने इतिहास और परंपरा का हवाला देते हुए कहा है कि हिंदू संस्कृति को कभी इनसे समस्या नहीं रही है और इनकी आलोचना पश्चिमी देशों से प्रेरित रही है। उन्होंने कहा कि हमारे मीडिया और बौद्धिकों द्वारा पश्चिमी नजरिये का अंधानुकरण करने से ऐसा हुआ।

ट्रांसजेंडर या पारलिंगी समुदाय के लोग भारतीय समाज में हमेशा से स्वीकार्य रहे हैं। उनके अपने देवी-देवता और मंदिर हैं। समलैंगिकता पर उन्होंने महाभारत का उदाहरण दिया और बताया कि जरासंध की सेना में दो समलैंगिक कमांडर थे हंस और दिंभक। आगे उन्होंने कहा कि एक प्रशिक्षित पशु चिकित्सक के रूप् में उन्होंने जानवरों में भी समलैंगिक प्रवृत्ति देखी है।

एक गहरे धार्मिक और रुढि़वादी संगठन के लिए ऐसा कहना भी प्रगतिशीलता का परिचायक है। आपको मुस्लिम या ईसाई धार्मिक नेताओं से ऐसी बात सुनने को नहीं मिलेगी। वहां इसे मानसिक बीमारी माना जाता है जिसे बेहतर धार्मिक प्रशिक्षण से ठीक किया जा सकता है। इसी तरह जनसंख्या वृद्धि पर भी वह छोटे परिवार को लेकर कही जाने वाली बातों से असहमत हैं। उनका मानना है कि यह काम बेहतर शिक्षा से अधिक आसानी से हो सकता है बजाय कि दबाव के।

जैसी कि आपको उम्मीद होगी, मुस्लिमों के मामले में आरएसएस के संशय बरकरार हैं, बावजूद इसके की वह सत्ता में है। वह कहते हैं कि जन्मदर के कारण आबादी नहीं बढ़ रही है। चाहे जो भी हो बड़ी समस्या है। बहरहाल बड़ी समस्या है आबादी का असंतुलन। उन्होंने एक बार फिर सूडान, पाकिस्तान और पूर्वी तिमोर का उदाहरण दिया और कहा कि ये देश इसलिए टूटे क्योंकि एक धर्म में आस्था रखने वाले बुहत अधिक हो गए थे। इनमें से दो उदाहरण मुस्लिम और एक ईसाई धर्म का था। कुल मिलाकर जनसंख्या समस्या नहीं है बल्कि उसका असंतुलन समस्या है। यह असंतुलन किसी वजह से आता है?

वह कहते हैं कि जन्मदर समस्या नहीं है लेकिन धर्मांतरण और घुसपैठ है। जाहिर है उनका इशारा ईसाइयों और मुस्लिमों के प्रति है। वह कहते हैं कि ईसाई दुनिया का धर्मांतरण करना चाहते हैं, मुस्लिम अपने को सबसे श्रेष्ठ मानते हैं लेकिन हिंदुओं ने ऐसा कुछ नहीं किया। इसके बाद मुस्लिमों को लेकर एक उपदेश सामने आया जो प्राइमटाइम बहसों का केंद्र बना। खासकर इसलिए क्योंकि उसे इस विचार से जोड़ा गया कि हिंदू 1000 वर्ष से लड़ रहे हैं। यही वह समय था जब मुस्लिमों के बड़े आक्रमण शुरू हुए। वह कहते हैं कि अब हम मजबूत हैं और चिंतित होने की आवश्यकता नहीं। परंतु तब तक जब तक हम हिंदू बहुल देश हैं।

इसलिए क्योंकि उनकी नजर में केवल हिंदू ही उदार, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्षता जैसे सिद्धांतों में यकीन करते हैं। सतत विद्रोही स्वरूप हो या सत्ता में हो, आरएसएस ने अब तक मुस्लिमों से जुड़ी दुविधा को दूर नहीं किया है। क्या इस दिशा में कोई प्रगति होगी? इसके लिए सरसंघचालक के अगले भाषण या साक्षात्कार की प्रतीक्षा करनी होगी।

First Published : January 15, 2023 | 10:09 PM IST