हाल में 1 लाख करोड़ रुपये लागत से शुरू अनुसंधान, विकास एवं नवाचार (आरडीआई) योजना भारत की नवाचार नीति में एक ऐतिहासिक बदलाव का संकेत दे रही है। देश में पहली बार निजी क्षेत्र नवाचार चर्चा के केंद्र में है और इसके लिए रकम विशेष-उद्देश्य कोष के माध्यम से उपलब्ध कराई जा रही है। इस रकम का निवेश पेशेवर प्रबंधकों, रियायती ऋणों, शेयरों और फंड-ऑफ-फंड्स संरचना के जरिये हो रहा है।
अब तक शोध एवं विकास (आरऐंडडी) पर निवेश ज्यादातर सार्वजनिक संस्थानों में होता था। ये सार्वजनिक संस्थान देश में वैज्ञानिक आधारशिला रखा करते थे। मगर अब आरडीआई के माध्यम से एक अरब से अधिक लोगों की नवाचार ऊर्जा का लाभ हासिल किया जा सकता है जो महज कुछ हजार सरकारी वैज्ञानिकों की तुलना में कहीं अधिक लाभप्रद एवं कारगर साबित होगा। इससे- विस्तार (स्केल), रफ्तार (स्पीड) और व्यय (स्पेंड) इन तीन मोर्चों पर कदम तेजी से बढ़ाने में मदद मिल रही है। शोध एवं विकास क्षेत्र स्टार्टअप इकाइयों, उद्योग जगत, शिक्षाविदों और आम लोगों के लिए खोलने से इसका विस्तार होता है और दायरा भी काफी व्यापक हो जाता है।
निजी क्षेत्र द्वारा बाजार के अनुकूल होने और निर्धारित समयसीमा पर अधिक जोर देने से आरऐंडडी की रफ्तार बढ़ती है। निजी क्षेत्र से निवेश आने और फंड-ऑफ-फंड्स की भागीदारी से दीर्घ अवधि से चली आ रही पूंजी की समस्या दूर हो जाती है। बदलाव लाने की दिशा में शुरू की गई यह पहल विभिन्न इकाइयों की भागीदारी बढ़ाने के साथ ही नए मुकाम हासिल करने में मददगार साबित हो सकती है और तकनीकी विकास को ताकत मिल सकती है।
आरडीआई के पूरी तरह कारगर होने के लिए सार्वजनिक खरीद में सुधारों को बढ़ावा देना निहायत जरूरी है जिससे स्थानीय स्तर पर तैयार उत्पादों को सक्रिय समर्थन मिलेगा। इसके लिए एक समर्पित नीति इसलिए जरूरी है क्योंकि नवाचार शायद ही परंपरागत नियमों जैसे कई बोलीदाताओं या खरीदारी के पुराने लेखा-जोखा के साथ फिट बैठता है। भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में सरकारी खरीद की हिस्सेदारी लगभग 20 फीसदी होती है, इसलिए सरकार बाजार को दिशा देने एवं नवाचार को बढ़ावा देने पर अत्यधिक जोर देती है। शुरुआती कदम के तौर पर सरकार नई तकनीक का समर्थन कर सकती है, उपभोक्ताओं में विश्वास बहाल कर सकती है, राजस्व के स्थिर स्रोत दे सकती है और बाजार में नए उत्पाद लाने में नवाचार करने वाले लोगों के लिए जोखिम कर सकती है।
सबसे बड़ी दिक्कत सिंगल-वेंडर को लेकर है जो किसी भी नवाचार का एक अहम हिस्सा होता है। सामान्य वित्तीय नियम (जीएफआर) के अंतर्गत एकल-स्रोत पर किसी तरह की रोक का प्रावधान नहीं है। नियम 166 इसकी अनुमति देता है बशर्ते उपयोगकर्ता विभाग यह साबित करें कि एक विशेष कंपनी आवश्यक वस्तुओं की एकमात्र निर्माता है जिसे संबंधित मंत्रालय द्वारा जारी एक स्वामित्व लेख प्रमाण पत्र द्वारा समर्थित किया गया है। यह प्रावधान भारत में निर्मित और नवाचार के जरिये स्थानीय स्तर पर तैयार वस्तुओं के बीच कोई अंतर नहीं करता है। हालांकि, संदेह करने की इसकी धारणा एकल-विक्रेता खरीद को हतोत्साहित करती है जिससे पीएसी से जुड़ी जरूरतें (संगठन के हितों की रक्षा के लिए) बाधा में तब्दील हो जाती हैं।
एल1 निविदा मानदंड अक्सर उन नवाचारों को दरकिनार कर देता है जो शुरू में महंगे साबित होते हैं मगर बाद में बाद किफायती हो जाते हैं। एल1 मानदंड से जुड़ी इस खामी को दूर करने के लिए सार्वजनिक खरीद (मेक इन इंडिया को वरीयता) आदेश, 2017 खरीद वरीयता के लिए 20 फीसदी स्थानीय सामग्री अनिवार्य करता है। फिर भी यह साधारण विनिर्माण और वास्तविक बौद्धिक संपदा निर्माण के बीच कोई अंतर नहीं करता है। इसके विपरीत, यूएस बाय अमेरिका एक्ट में 55-75 फीसदी स्थानीय सामग्री की शर्त होती है।
भारत में रक्षा क्षेत्र ने खरीद प्रक्रिया में स्वदेशी रूप से तैयार, विकसित और निर्मित (आईडीडीएम) श्रेणी को पेश कर यह समस्या हल करने की कोशिश की है। अगर कोई आईडीडीएम विक्रेता मौजूद है तो प्रस्ताव के लिए अनुरोध केवल उसी विक्रेता को जाना चाहिए, भले ही दूसरे भारत में आयातित तकनीक का उपयोग करके उसी उत्पाद का निर्माण क्यों न करते हों। हालांकि, जोखिम से बचने की प्रवृत्ति अक्सर आईडीडीएम और अन्य विनिर्माताओं, दोनों को आमंत्रित करती है जिससे वरीयता का पहलू कमजोर हो जाता है।
‘भारत में तैयार’ उत्पादों के मानदंड को लेकर भी स्थिति स्पष्ट नहीं है। रक्षा मंत्रालय ने यह पूर्व-परिभाषित करने के लिए एक कॉलेजिएट बनाया कि किसी उत्पाद के आईडीडीएम के रूप में पात्र होने के लिए कौन सी प्रौद्योगिकियां भारत की होनी चाहिए। फिर भी मानक आम तौर पर नवाचार की सीमा के बजाय औसत उद्योग क्षमता के आसपास निर्धारित किए जाते थे जिससे प्रभाव सीमित रह गया।
दक्षिण कोरिया एकल-विक्रेता खरीद के लिए एक संरचित समाधान प्रदान करता है। एक स्वतंत्र प्राधिकरण घरेलू उत्पादों को नवाचार के रूप में प्रमाणित करता है जिसके बाद सार्वजनिक एजेंसियों को एक आपूर्तिकर्ता से भी उनकी खरीद करने की अनुमति देता है (कभी-कभी आवश्यक भी है)। यह नवाचार की पहचान करने का दायित्व खरीद अधिकारियों से हटा देता है। प्रमाणन अस्थायी है और प्रतिस्पर्द्धा बढ़ने पर इसे वापस लिया जा सकता है। इससे एकाधिकार को बढ़ावा दिए बिना नवाचार बढ़ाया जा सकता है।
यहां तक कि जब सरकारें एक एकल विक्रेता से एक नवाचार की मदद से तैयार घरेलू उत्पाद खरीदने के लिए सहमत होती हैं तो मुख्य चुनौती प्रतिस्पर्द्धा के बिना एक उचित मूल्य स्थापित करने की होती है। अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार दो मॉडल प्रदान करता है- यूएस फेडरल एक्विजिशन रेग्यूलेशन लागत विश्लेषण (सीमित लाभ के साथ उत्पादन लागत के आधार पर) या मूल्य विश्लेषण (पिछली खरीद, कैटलॉग या तुलनीय उत्पादों का उपयोग करके) के माध्यम से मूल्य निर्धारण। यूरोपीय संघ (ईयू) का 2014 का निर्देश (अनुच्छेद 32) इसके बजाय विक्रेता के साथ बातचीत किए गए मूल्य निर्धारण की अनुमति देता है, बशर्ते ऐसा करने का कारण ठोस और पारदर्शी हो।
सार्वजनिक खरीद प्रणाली आमतौर पर निश्चित विशिष्टताओं और स्थापित मानकों के आसपास बनाई जाती है जिसमें नवाचार से तैयार उत्पाद अक्सर उथल-पुथल लाते हैं। इससे निपटने के लिए कई देश अपने ढांचे में लचीलापन लेकर आए हैं। ईयू कठोर तकनीकी आवश्यकताओं के बजाय कार्यात्मक या प्रदर्शन-आधारित आवश्यकताओं को प्रोत्साहित करता है। दक्षिण कोरिया प्रमाणित नवाचारों को कुछ विशिष्ट आवश्यकताओं से छूट देता है जिससे सार्वजनिक एजेंसियों को उन्हें अपनाने के लिए विवश होना पड़ता है, भले ही वे मौजूदा मानकों के अनुरूप न हों। कनाडा शुरुआती चरण की तकनीकों को सरकारी उपयोग में परीक्षण करने की अनुमति देता है जिससे व्यावहारिक सत्यापन के बाद मानकों को विकसित किया जा सकता है।
रक्षा क्षेत्र में विशेष रूप से घरेलू विनिर्माताओं के लिए खरीद बजट का एक निश्चित हिस्सा निर्धारित करना प्रभावी साबित हुआ है। इसी तरह का दृष्टिकोण एक समर्पित बजट सब-हेड बनाकर नवाचार पर लागू किया जा सकता है जिसमें अभिनव उत्पादों के लिए एक निश्चित हिस्सा (प्रतिशत) आरक्षित करना अनिवार्य किया जा सकता है।
भारत में, जहां प्रक्रिया अक्सर परिणामों से अधिक महत्त्वपूर्ण होती है, शुरुआती चरण के नवाचारों की खरीद एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। इसे देखते हुए जीएफआर को ऐसी खरीद को संस्थागत बनाने के लिए एक स्पष्ट ढांचा प्रदान करना चाहिए। वैश्विक मॉडल मार्गदर्शन प्रदान करते हैं लेकिन उनका वास्तविक मूल्य उन्हें भारत के संदर्भ में अनुकूलित करने में निहित है। सही ढांचे के साथ भारत नवाचार को अपनी सबसे निर्णायक प्रतिस्पर्द्धात्मक बढ़त में बदल सकता है।
(लेखक संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और पूर्व रक्षा सचिव हैं। ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं)