facebookmetapixel
मद्रास HC ने EPFO सर्कुलर रद्द किया, लाखों कर्मचारियों की पेंशन बढ़ने का रास्ता साफFY26 में भारत की GDP 6.5 फीसदी से बढ़ाकर 6.9 फीसदी हो सकती है: FitchIncome Tax Refund: टैक्स रिफंड अटका हुआ है? बैंक अकाउंट वैलिडेशन करना तो नहीं भूल गए! जानें क्या करें2 साल के हाई पर पहुंची बॉन्ड यील्ड, एक्सपर्ट ने बताया- किन बॉन्ड में बन रहा निवेश का मौकाCBIC ने दी चेतावनी, GST के फायदों की अफवाहों में न फंसे व्यापारी…वरना हो सकता है नुकसान‘Bullet’ के दीवानों के लिए खुशखबरी! Royal Enfield ने 350 cc बाइक की कीमतें घटाईUrban Company IPO: ₹1,900 करोड़ जुटाने के लिए खुला आईपीओ, लंबी अवधि के लिए निवेशक करें सब्सक्रिप्शनबर्नस्टीन ने स्टॉक पोर्टफोलियो में किया बड़ा फेरबदल: HDFC Bank समेत 5 नए जोड़े, 6 बड़े स्टॉक बाहरनिर्यातकों से लेकर बॉन्ड ट्रेडर्स तक: RBI पर हस्तक्षेप करने का बढ़ता दबावJP Associates के लिए $2 अरब की बोली Vedanta के लिए ‘क्रेडिट निगेटिव’

पूर्व तिथि से लागू बदलाव निवेश के लिए खतरा

विभिन्न नीतियों में पिछली तारीखों से परिवर्तन के कारण हमारी अर्थव्यवस्था पहले भी अनिश्चितता के दौर से गुजर चुकी है। एक बार फिर वैसे ही हालात बनते नजर आ रहे हैं।

Last Updated- January 10, 2025 | 9:42 PM IST
Retroactive changes pose a threat to investment पूर्व तिथि से लागू बदलाव निवेश के लिए खतरा

देश में प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाकर 2047 तक विकसित राष्ट्र का दर्जा हासिल करने की हसरत पूरी करनी है तो अर्थव्यवस्था को अगले 23 साल तक 8 फीसदी से ज्यादा सालाना दर से बढ़ना होगा। मौजूदा वृद्धिशील पूंजी-उत्पादन अनुपात के हिसाब से अर्थव्यवस्था को निवेश की दर बढ़ाकर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 40 फीसदी के करीब ले जानी होगी। यह दर फिलहाल 32 फीसदी बताई जाती है। इसके लिए सभी पहलुओं को शामिल करने वाले, स्थिर और दूरगामी नीतिगत माहौल की जरूरत है, जिसमें सरकार के सभी तीन स्तंभों – विधायिका, कार्यपालिक और न्यायपालिका – तथा केंद्र, राज्य एवं स्थानीय प्रशासन साथ तालमेल के साथ नीतियां बनाएं और उन्हें कारगर तरीके से लागू करें।

निवेश को सहारा देने वाला माहौल तैयार करना है तो स्थिर प्रशासन सुनिश्चित करना होगा। संवैधानिक जिम्मेदारियों में स्पष्टता, तालमेल के साथ नीतियों का आकलन, शासन में सुनिश्चितता और न्यायिक निर्णयों में निरंतरता आदि देश में निवेश का स्थिर माहौल तैयार करने के लिए जरूरी हैं। जब निर्णय पूर्वव्यापी नजरिया अपनाते हैं यानी पिछली तारीख से लागू किए जाते हैं तो माहौल बिगड़ता है क्योंकि निवेशकों को यह उम्मीद नहीं होती कि जो कारोबारी गतिविधि अतीत में हो चुकी है, उसके लिए भी नियम बदल दिए जाएंगे।

इस संदर्भ में एक अहम न्यायिक निर्णय और उससे पड़ने वाले प्रतिकूल आर्थिक प्रभाव पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। वह निर्णय पिछले साल खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकरण एवं अन्य बनाम स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया एवं अन्य मामले में उच्चतम न्यायालय के नौ न्यायाधीशों वाले पीठ के आठ न्यायाधीशों ने दिया था। पीठ की अध्यक्षता तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ कर रहे थे।

पीठ ने कई पुराने निर्णयों को पलटते हुए 25 जुलाई 2024 को फैसला सुनाया: (1) सातवीं अनुसूची के तहत केंद्र और राज्यों को दिए गए कर अधिकारों में कोई घालमेल या अतिक्रमण नहीं है, (2) खान एवं खनिज (विकास एवं नियमन) अधिनियम के तहत तय की गई और पट्टा लेने वाले के द्वारा चुकाई गई रॉयल्टी कर नहीं होती है, (3) राज्य सूची की प्रविष्टि 50 राज्यों को अधिकार देती है कि वे खनिज विकास से संबंधित कानूनों के माध्यम से संसद द्वारा निर्धारित सीमाओं के भीतर खनिज अधिकारों पर कर वसूल सकते हैं और संघ सूची की प्रविष्टि 54 के तहत रखे गए नियम राज्यों के इस अधिकार पर लागू नहीं होते तथा (4) प्रविष्टि 54 के तहत उल्लिखित नियम राज्य सूची की प्रविष्टि 49 के तहत खनिज भूमि पर कर लगाने के राज्यों के अधिकार को सीमित नहीं करता।

इसके बाद 14 अगस्त 2024 का पीठ का आदेश कहता है: (1) राज्य पिछली तारीख में जाकर 1 अप्रैल 2005 से कर की मांग कर सकते हैं या नए सिरे से मांग भेज सकते हैं, (2) 25 जुलाई 2024 से पहले की मांग पर ब्याज या जुर्माना खत्म कर दिया जाएगा, (3) 25 जुलाई 2024 से पहले यदि पिछली तारीख से कर मांग की जाती है तो उसे चुकाने के लिए 1 अप्रैल 2026 से 12 साल तक का समय दिया जा सकता है। फैसले के बाद कुछ राज्यों ने खनिजों पर कर लगाने के उपाय शुरू कर दिए और कुछ राज्य तो रॉयल्टी मूल्य का तीन गुना तक कर लेने की बात कह रहे हैं।

यह सही है कि राज्यों के पास कर लगाने के सीमित अधिकार हैं और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू होने के बाद करों से राजस्व जुटाने की उनकी क्षमता बहुत कम हो गई है। परंतु यह सुनिश्चित करना भी जरूरी है कि इसी वजह से उन्हें कर वसूलने का अधिकार देने पर कारोबारी माहौल न बिगड़ जाए।

फैसले में इसे सही ठहराने के लिए एक अन्य मामले में न्यायमूर्ति जीवन रेड्डी के एक पुराने निर्णय का हवाला दिया गया। उस फैसले में कहा गया, ‘हमारी संवैधानिक व्यवस्था में केंद्र को राज्यों की तुलना में ज्यादा अधिकार दिए गए हैं मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि राज्य केवल केंद्र से पीछे हैं। उन्हें जो अधिकार दिए गए हैं, उनमें वे ही सर्वोच्च हैं। केंद्र उनकी शक्तियों के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकता। खास तौर पर अदालतों को ऐसा दृष्टिकोण, ऐसी व्याख्या नहीं अपनानी चाहिए जो राज्यों को दिए गए अधिकार कम करे या जिसके कारण अधिकार कम होने की आशंका हो।’

उपरोक्त निर्णय सराहनीय है और राज्यों के अधिकारों को सुरक्षित रखने के पक्षधर संघवादी इसका स्वागत करेंगे। परंतु इस निर्णय के आर्थिक प्रभावों पर ध्यान देना भी जरूरी है। शिवशक्ति शुगर्स बनाम रेणुका शुगर्स (2017) मामले में निर्णय सुनाते समय सर्वोच्च न्यायालय ने जोर देकर कहा था कि अदालतों का कर्तव्य है कि वे अपने निर्णयों के आर्थिक प्रभावों की विस्तृत पड़ताल करें और जब कानून की कई व्याख्याएं संभव हों तो न्यायालय को वह नजरिया अपनाना चाहिए जो देश के आर्थिक हितों के अनुरूप हो। इस फैसले में केवल न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना ने असहमित जताई थी और उन्होंने कुछ आर्थिक खामियों की बात की लेकिन फैसले के प्रतिकूल आर्थिक दुष्परिणाम कहीं अधिक स्पष्ट हैं।

पहली बात खदानें सरकार द्वारा लीज पर दी जाती हैं और उन पर लगने वाली रॉयल्टी उत्पादन की प्रशासित यानी सरकार द्वारा तय कीमत के बराबर होती है। यह ज्ञात तथ्य है कि जहां सरकार का एकाधिकार होता है वहां प्रशासित मूल्य उत्पाद शुल्क के समान ही होता है। दूसरी बात, खदानें चलायमान नहीं होती हैं और खनिज संपदा वाले राज्य इन उत्पादों पर उच्च कर लगा सकते हैं, जिसका बोझ अन्य राज्यों के निवासियों को उठाना पड़ सकता है क्योंकि ये कर मूल स्थान पर लागू नहीं होते।

तीसरा, खनिज उत्पाद उद्योग जगत का बुनियादी कच्चा माल होते हैं, इसलिए रॉयल्टी, खनिज पर कर और खनिज भूमि पर कर के नाम पर भारी रकम वसूली जाए तो उसका असर आगे तक पड़ता है। चूंकि ये जीएसटी का हिस्सा नहीं हैं, इसलिए इन पर इनपुट टैक्स की राहत भी नहीं मिलेगी और चूंकि खनिज उत्पाद विनिर्माण का अनिवार्य कच्चा माल हैं इसलिए उच्च कर की वजह से लागत में बहुत इजाफा देखने को मिल सकता है।

चौथा, खनिजों पर कई प्रकार के कर लगाने से देश में विनिर्मित उत्पाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होड़ करने लायक नहीं बचते। इससे उद्योग जगत आयात के जरिये देसी उद्यमियों पर निर्भरता घटा लेगा या ऊंचे कर के लिए समर्थन जुटाएगा। आयात शुरू करने पर खान बंद हो सकती हैं और नौकरियां जा सकती हैं। ऊंचे कर के लिए लामबंदी उपभोक्ताओं का ही नुकसान करेगी।

इस निर्णय का सबसे गंभीर प्रभाव पिछली तारीख से कर लगाने का अधिकार है। नीतियों में पिछली तारीख से लागू होने वाले बदलाव अर्थव्यवस्था को पहले भी अनिश्चितता की स्थिति में डाल चुके हैं, जिससे निवेश का माहौल बिगड़ा है।

वोडाफोन कर मामले में हमारा अनुभव बुरा रहा है। पिछली तारीख से कर लगाया जाए तो निवेशकों के लिए अनिश्चितता की स्थिति हो सकती है। इकलौती उम्मीद यह है कि राज्य कच्चे माल के तौर पर इस्तेमाल होने वाली इस सामग्री पर भारी कर लगाने का नुकसान समझेंगे और बेहतर कारोबारी माहौल को बढ़ावा देने की खातिर उन्हें पिछली तारीख से लागू करने से बचेंगे।

First Published - January 10, 2025 | 9:42 PM IST

संबंधित पोस्ट