Categories: लेख

आरक्षण से जुड़े पूर्वग्रह

Published by
बीएस संवाददाता
Last Updated- December 12, 2022 | 7:16 AM IST

सर्वोच्च न्यायालय ने रोजगार में आरक्षण को लेकर 1992 के अपने ऐतिहासिक निर्णय की समीक्षा करने का फैसला किया है। इंदिरा साहनी मामले में दिए गए उस फैसले की समीक्षा, उन धारणाओं पर दोबारा विचार करने का अच्छा अवसर है जिन पर आरक्षण आधारित है। यह समीक्षा महाराष्ट्र सरकार के कानून को दी गई चुनौती का हिस्सा है जिसके तहत मराठाओं को रोजगार और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश में आरक्षण देने की बात कही गई है। इसके कारण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बुनियादी रूप से तय 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा टूट जाएगी। यह समीक्षा महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह निर्धारित करेगी कि क्या राज्यों के पास सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों (संविधान ने पिछड़े वर्ग को अधिसूचित करने का अधिकार राष्ट्रपति को दिया है) को रोजगार में आरक्षण देने का अधिकार है और क्या 50 फीसदी आरक्षण का उल्लंघन किया जा सकता है।
इंदिरा साहनी फैसले को यह नाम सर्वोच्च न्यायालय की अधिवक्ता के नाम पर दिया गया है जिन्होंने रोजगार में आरक्षण बढ़ाकर 60 फीसदी करने के नरसिंह राव सरकार के निर्णय को चुनौती दी थी। सरकार यह इजाफा कुछ अन्य बातों के अलावा ‘आर्थिक रूप से पिछड़े तबकों’ को शामिल करके कर रही थी। उस फैसले में सबसे बड़ी अदालत ने न केवल 50 फीसदी आरक्षण होने की बात दोहराई बल्कि यह भी कहा कि यदि किसी समूह को आरक्षण की अर्हता हासिल करनी है तो उसका ‘सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा’ होना जरूरी है। दूसरे शब्दों में कहें तो अकेले जाति या आर्थिक पिछड़ापन आरक्षण का निर्धारण नहीं कर सकता। महाराष्ट्र के कानून की समीक्षा कर रहे संविधान पीठ की बातों का असर तमिलनाडु और हरियाणा में ऐसे ही कानूनों पर पड़ेगा जिन्होंने क्रमश: अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग और जाटों के मामले में ऐसा किया है। फिलहाल दोनों मामले न्यायालयों में हैं। सर्वोच्च न्यायालय इस मामले की संवैधानिकता की पुनर्परीक्षा करेगा लेकिन पीठ के लिए उचित होगा कि वह भारतीय अर्थव्यवस्था में व्यापक ढांचागत बदलाव को देखते हुए रोजगार में आरक्षण का परीक्षण कर सके। इसमें दो राय नहीं है कि देश में सामाजिक भेदभाव है और कुछ सकारात्मक कदम जरूरी हैं। इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि रोजगार और शिक्षा में आरक्षण तय करने से मदद मिली। एक अनुसूचित जाति कोली से आने वाले रामनाथ कोविंद जब देश के राष्ट्रपति बने तो उन्होंने संकेत दिया कि इस व्यवस्था के तहत मिले अवसरों ने उन्हें कानून में एक शानदार करियर बनाने में मदद की।
सन 1960 के दशक से 1990 के दशक के मध्य और अंत तक सिविल सेवा के उच्च स्तर पर दलितों की हिस्सेदारी 10 गुना बढ़ी जो इस बात का प्रमाण है कि यह नीति सफल रही है। परंतु अब सवाल यह है कि क्या 21वीं सदी के तीसरे दशक में भी केवल आरक्षण बढ़ाकर ही सामाजिक समानता हासिल की जा सकती है। शुरुआती दो दशकों में रोजगार सृजन में निजी क्षेत्र ने बाजी मारी। इसका अर्थ यह है कि आरक्षण बढ़ाए जाने पर भी सीमित तादाद के रोजगारों में ही प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। सरकार भी व्यापक विनिवेश के जरिये निजी क्षेत्र की भूमिका में विस्तार की योजना स्पष्ट कर चुकी है। ऐसे में सरकारी नौकरियों में आरक्षण बढ़ाने से वोट बैंक की राजनीति के अलावा कुछ भी सधता नहीं दिख रहा। याद रहे गुजरात में पाटीदारों के लिए आरक्षण की ऐसी ही मांग उठी थी जो नाकाम रही। विनिर्माण में रोजगार पहले ही कम हैं और बड़े निजी निर्माताओं के रोबोटिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल बढ़ाने से इनमें और कमी आने की संभावना है। जाति के आधार पर रोजगार में आरक्षण बढ़ाने से सामाजिक समता हासिल करने में मदद मिल सकती है लेकिन वर्तमान भारत की हकीकतों को देखते हुए कहा जा सकता है ऐसा कदम व्यवस्था में भरोसा कम करेगा और इससे संबंधित नीति के मूल उद्देश्य को क्षति पहुंचाएगा।

First Published : March 9, 2021 | 11:40 PM IST