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RBI ने किया बैंक निदेशक मंडलों को आगाह

आरबीआई ने पर्यवेक्षकों के लिए एक अलग खंड बनाया है और उनके लिए एक समूह (वर्टिकल) भी तैयार किया है।

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टी टी राम मोहन   
Last Updated- June 16, 2023 | 11:20 PM IST

आरबीआई के संज्ञान में कई बार आया है कि बैंकों के निदेशक मंडल के सदस्य आंतरिक चर्चाओं के दौरान अपनी बात स्पष्ट ढंग से नहीं रख पाते हैं। बता रहे हैं टी टी राममोहन

एक पांच सितारा होटल का सम्मेलन कक्ष खचाखच भरा है। कक्ष में निजी बैंक के निदेशक, चेयरमैन और मुख्य कार्याधिकारी सहित लगभग 200 लोग एकत्र हुए हैं। सभी भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के गवर्नर शक्तिकांत दास की प्रतीक्षा कर रहे हैं। गवर्नर ठीक पूर्वाह्न 10 बजे सम्मेलन कक्ष में प्रवेश करते हैं।

आरबीआई गवर्नर के साथ निजी बैंकों के निदेशक मंडलों (बोर्ड) के प्रतिनिधियों की पहली विशेष बैठक में समय का उसी तरह ध्यान रखा गया जैसे गणतंत्र दिवस कार्यक्रम में एक-एक पल का रखा जाता है।

गवर्नर और दो डिप्टी गवर्नरों के संबोधन निर्धारित समय में समाप्त हो गए। मुख्य महाप्रबंधकों के द्वारा प्रस्तुति और कार्यकारी निदेशकों के साथ खुली चर्चा भी तय समय में संपन्न हो गई। बैठने की व्यवस्था भी सोच-समझ कर की गई थी।

बैंकों के निदेशकों के बैठने की व्यवस्था मंच से बैंकों के घटते आकार के क्रम में की गई थी। चाय एवं भोजन अंतराल भी समय पर शुरू हुए और खत्म हो गए।

सम्मेलन कक्ष के अंदर और बाहर कहीं भी कोई तकनीकी बाधा नहीं आई और न ही किसी प्रकार का व्यवधान पैदा हुआ। सम्मेलन अपराह्न 5 बजे समाप्त हो गया। ऐसे संगठनों की संख्या कम है जो यह समझते हैं कि प्रशासनिक प्रबंधन में उत्कृष्टता संगठनात्मक उत्कृष्टता का आवश्यक पहलू है।

आरबीआई ने एक सप्ताह पूर्व सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निदेशकों के साथ भी ऐसी ही चर्चा की थी। चूंकि, सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों के बैंकों में संचालन से जुड़े बिंदु अलग होते हैं इसलिए आरबीआई ने दोनों के साथ अलग-अलग चर्चा की है। मगर दोनों क्षेत्रों के बैंकों के निदेशकों के साथ हुई चर्चा में निहित संदेश को समझने में भूल नहीं होनी चाहिए। संदेश यह है कि बैंकों में संचालन से जुड़े कई विषय नियंत्रण-तटस्थ होते हैं।

आरबीआई गवर्नर दास ने भारतीय बैंकिंग क्षेत्र की क्षमता एवं चुनौतियों से निपटने में उनकी ताकत पर भरोसा जताया है। दास के इस विश्वास का कारण यह है कि आरबीआई ने हाल में कई कदम उठाए हैं और इनके परिणाण भी दिख रहे हैं। आरबीआई ने पर्यवेक्षकों के लिए एक अलग खंड बनाया है और उनके लिए एक समूह (वर्टिकल) भी तैयार किया है।

आरबीआई ने यह सुनिश्चित करने के लिए भी कदम उठाए हैं कि बैंकों में प्रमुख अनुपालन गतिविधियों (जोखिम प्रबंधन, अनुपालन एवं आंतरिक अंकेक्षण) की कमान संभालने वालों को दोहरी रिपोर्टिंग के माध्यम से कुछ स्वतंत्रता दी गई है। दोहरी रिपोर्टिंग के प्रावधान के तहत वे सीईओ और बोर्ड को रिपोर्ट कर सकते हैं।

अप्रत्यक्ष (ऑफसाइट) निगरानी व्यवस्था से केंद्रीय बैंक को विभिन्न बैंकों और बैंकिंग प्रणाली में पनप रहे जोखिम का सही आकलन करने में मदद मिल रही है।

ऑफसाइट निगरानी व्यवस्था के तहत बैंकों को प्रारंभिक आंकड़े आरबीआई को सौंपने होते हैं। बैंकों से आए इन आंकड़ों का अध्य्ययन कर आरबीआई संभावित जोखिमों का पता लगा सकता है। सालाना वित्तीय समीक्षा रिपोर्ट और जोखिम समीक्षा रिपोर्ट (आरएआर) किसी संभावित खतरे की तरफ इशारा करने में सदैव कारगर रहे हैं।

आरबीआई सालाना वित्तीय समीक्षा रिपोर्ट और जोखिम समीक्षा रिपोर्ट (आरएआर) बैंकों को भेजता है। पहले आरबीआई बैंकों की तरफ से जवाब आने का अगली समीक्षा शुरू करने तक इंतजार करता था। एक वर्ष की अवधि किसी भी बैंक के गर्त में जाने के लिए काफी हो सकता है। आरबीआई ने हाल के अनुभव से काफी कुछ सीखा है। आरबीआई के पर्यवेक्षकों का अब कहना है कि आरएआर में इंगित की गईं बड़ी समस्याओं का हल रिपोर्ट सौंपने के कुछ हफ्तों या महीनों में निकाल लिए जाएं।

अपने संबोधन में दास ने बैंक बोर्ड के लिए एक व्यापक 10 सूत्री नियमावली का उल्लेख किया था। जिन कुछ प्रमुख बातों का दास ने उल्लेख किया है उन पर सभी संबंधित पक्षों को गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

गवर्नर ने बोर्ड में होने वाली चर्चा में सीईओ के दबदबे और बोर्ड के स्वयं अपनी बात रखने में झिझकने का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि आरबीआई के संज्ञान में कई बार ऐसा आया है कि बोर्ड अपनी बात खुलकर नहीं रख पाते हैं। दरअसल यह समस्या केवल बैंकों के बोर्ड की नहीं बल्कि दूसरी इकाइयों के बोर्ड के साथ भी है।

बोर्ड की बैठकों के दौरान गतिविधियों पर नजर रखना मुश्किल होता है। ब्रिटेन के वित्तीय सेवा प्राधिकरण ने यह बात वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान रॉयल बैंक ऑफ स्कॉटलैंड (आरबीएस) के विफल रहने की समीक्षा के दौरान महसूस की। यह समीक्षा 2011 में प्रकाशित की गई थी। आरबीएस का बोर्ड काफी चमक-दमक वाला था और इसके सदस्यों में सभी आवश्यक हुनर मौजूद थे।

जब बैंक का सीईओ एक जोखिम भरे रास्ते पर चल रहा था तो बोर्ड मूकदर्शक बना हुआ था। अगर किसी सीईओ का कामकाजी प्रदर्शन अच्छा रहा होता है तो उस स्थिति में निदेशकों के लिए उसे (सीईओ को) चुनौती देना मुश्किल हो जाता है। मगर प्रदर्शन शानदार रहना सीईओ के सदैव सफल रहने या मार्ग से नहीं भटकने का प्रमाण नहीं है।

ऐसा हो सकता है कि कोई सीईओ पूर्व में सही नीति के साथ चला हो मगर बाद में वह रास्ते से भटक गया हो। मगर निदेशकों को लगता है कि उनकी बातें एक बढ़िया प्रदर्शन करने वाले सीईओ के लिए बाधा उत्पन्न कर सकती हैं।

कभी-कभी बोर्ड की संरचना के कारण भी समस्या और कठिन हो जाती है। निदेशक अमूमन पूर्व सीईओ, सेवानिवृत्त अधिकारियों और अन्य पेशेवरों के समूह से चुन जाते हैं। ये ऐसे लोग होते हैं जो कहीं न कहीं एक ही माहौल से संबंध रखते हैं और इनके हित एक दूसरे से जुड़े रहते हैं। इससे ऐसे निदेशकों के लिए सीईओ को सक्रिय रूप से चुनौती देना थोड़ा कठिन हो जाता है।

इतना ही नहीं, निदेशकों को काफी अच्छे वेतन-भत्ते दिए जाते हैं और उनके कार्यकाल के नवीकरण में सीईओ की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। सीईओ को रोक-टोक करने से उन्हें कोई लाभ नहीं होता है। बोर्ड को सही मायने में स्वतंत्र बनाने के लिए हमें कम से एक या दो ऐसे निदेशकों की जरूरत है जिनके चयन में सीईओ और प्रवर्तक की भूमिका नहीं हो। ऐसे महत्त्वपूर्ण सुधार करने के लिए आरबीआई के पास अधिकार एवं क्षमता दोनों मौजूद हैं। कुछ कम अतिवादी बदलाव भी मददगार हो सकते हैं।

विशेषज्ञों (लघु क्षेत्र एवं कृषि विशेषज्ञों आदि) को शामिल करने जैसे वर्तमान निर्देश काफी जटिल लगते हैं। केवल तीन खंडों में विशेषज्ञता पर ध्यान देने की आवश्यकता है। ये हैं बैंकिंग, अंकेक्षण (ऑडिट) और जोखिम प्रबंधन। बोर्ड में किसी खास क्षेत्र में विशेषज्ञता की बात को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है। जो बड़े पूछे जाने या नहीं पूछे जाने चाहिए वे बेहद सरल, झंझट मुक्त हैं।

दास ने बोर्ड को बैंक के लिए निगमित संस्कृति और मूल्य प्रणाली के लिए माहौल बनाने का आग्रह किया है। अप्रैल में क्रेडिट सुइस बैंक के धराशायी होने के बाद दास के इस आग्रह का महत्त्व और बढ़ना चाहिए। यूनियन बैंक ऑफ स्विट्जरलैंड के साथ विलय होने से पहले क्रेडिट सुइस में पूंजी की कमी नहीं थी और न ही नकदी की कोई किल्लत थी।

इसके साथ समस्या बस इतनी थी कि यह पिछले कई वर्षों से कई विवादों में फंस गया था। मार्च में अमेरिका में दो बैंकों के विफल होने के बाद यूरोप में जमाकर्ता यह सोचने लगे कि कौन से बैंक विफल हो सकते हैं। उन्होंने तत्काल क्रेडिट सुइस पर ध्यान दिया जिसकी कारोबारी शैली संदेह के घेरे में थी।

एक बार कार्य संस्कृति संदेह के घेरे में आ जाए तो लोगों को पूंजी एवं नकदी को लेकर तमाम आश्वासन देने के बाद भी विश्वास हासिल करना मुश्किल हो जाता है। बैंकों के लिए लोगों में विश्वास बहाल करने वाली कार्य संस्कृति को बढ़ावा देना आवश्यक हो गया है। सम्मेलन से जो संकेत मिले हैं वे पूरी तरह साफ हैं। आरबीआई जानता है कि कहां खामियां हैं, किन क्षेत्रों पर ध्यान देने की आवश्यकता है और कुछ बैंक किस दिशा में जा रहे हैं। अब जरूरी कदम उठाने की जिम्मेदारी बैंकों के बोर्ड पर है। एक तरह से बोर्ड को आगाह कर दिया गया है।

First Published : June 16, 2023 | 11:20 PM IST