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टाटा संस की सूचीबद्धता के मामले में सवाल

(आरबीआई) ने अभी तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि टाटा संस को सितंबर 2025 तक सार्वजनिक सूचीबद्ध कंपनी बनना ही होगा या इसे छूट दी जाएगी।

Last Updated- May 04, 2025 | 10:26 PM IST
Tata Sons becomes debt free for the first time in 18 years, paving the way for investment in new areas 18 साल में पहली बार Tata Sons बनी कर्ज मुक्त, नए क्षेत्रों में निवेश का रास्ता साफ
प्रतीकात्मक तस्वीर

टाटा संस को शेयर बाजार में सूचीबद्ध करने की अंतिम तारीख जैसे-जैसे नजदीक आ रही है, 165 अरब डॉलर के कारोबारी समूह की नियंत्रक कंपनी, अपने भविष्य के कॉरपोरेट ढांचे को लेकर अनिश्चितता से घिरती हुई दिख रही है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने अभी तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि टाटा संस को सितंबर 2025 तक सार्वजनिक सूचीबद्ध कंपनी बनना ही होगा या इसे छूट दी जाएगी।

यह सब तक शुरू हुआ जब भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने सितंबर 2022 में टाटा संस को शीर्ष स्तर की गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी (एनबीएफसी) के रूप में वर्गीकृत किया जिसका मतलब यह हुआ कि इसे अगले तीन वर्षों के भीतर शेयर बाजार में सूचीबद्ध होना होगा। टाटा संस ने आरबीआई से छूट मांगी है और बुनियादी निवेश कंपनी (सीआईसी) के रूप में अपना पंजीकरण रद्द करने का अनुरोध किया है ताकि वह आरंभिक सार्वजनिक पेशकश (आईपीओ) और सूचीबद्धता से बच सके। हालांकि इस विषय पर इसके दो सबसे बड़े शेयरधारकों के विचार मुद्दे की जटिलता को बढ़ाते हैं।

बुनियादी ढांचा क्षेत्र की बड़ी कंपनी शापूरजी पलोनजी, जो फिलहाल वित्तीय संकट से जूझ रही है, उसकी टाटा संस में 18 फीसदी से अधिक हिस्सेदारी है और यह दूसरी सबसे बड़ी शेयरधारक है। शापूरजी अपने कारोबार को नए सिरे से उभारने के लिए पूंजी जुटा रही है और यह चाहती है कि टाटा संस सूचीबद्ध हो। लेकिन टाटा संस में 66 फीसदी की हिस्सेदारी के साथ सबसे बड़े शेयरधारक, टाटा ट्रस्ट्स ने नियंत्रक कंपनी की सूचीबद्धता का विरोध किया है। इस सूचीबद्धता का अर्थ टाटा समूह पर टाटा ट्रस्ट के नियंत्रण का कमजोर होना हो सकता है।

हालांकि बात बस इतनी ही नहीं है। सूचीबद्धता के मुद्दे पर टाटा ट्रस्ट के भीतर विचारों में मतभेद को लेकर भी काफी अटकलें लगाईं जा रही हैं। टाटा ट्रस्ट की अध्यक्षता अब नोएल टाटा कर रहे हैं जो शापूरजी पलोनजी परिवार से भी जुड़े हैं। नोएल टाटा, रतन टाटा के सौतेले भाई और साइरस मिस्री के बहनोई हैं जिन्हें 2016 में बोर्डरूम में तख्तापलट जैसी स्थिति बनने के बाद टाटा संस के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया था। मिस्त्री की वर्ष 2022 में एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी।

सवाल यह है कि टाटा संस की सूचीबद्धता आखिर इतना बवाल वाला मसला क्यों बन गई है? इसे समझने के लिए कुछ बातों पर गौर करते हैं। पिछले साल तक लगभग 365 अरब डॉलर के संयुक्त बाजार पूंजीकरण के साथ टाटा समूह की सार्वजनिक रूप से सूचीबद्ध 26 कंपनियां हैं। केवल 2024 में ही भारत में 300 से अधिक कंपनियों ने 1.8 लाख करोड़ रुपये जुटाने के लिए आईपीओ का सहारा लिया। आमतौर पर सूचीबद्धता का कारण पूंजी जुटाना, अपनी मौजूदगी को हर जगह दर्ज कराना, प्रतिष्ठा बढ़ाना और निवेशकों को आकर्षित करना होता है।

टाटा संस के मामले में निवेशकों की व्यापक पहुंच का अर्थ यह भी है कि टाटा ट्रस्ट और शापूरजी पलोनजी जैसे दो बड़े शेयरधारकों के शेयर कम हो सकते हैं। इसके कारण टाटा संस की स्वामित्व संरचना में भी बदलाव आ सकता है।

स्वामित्व संरचना में बदलाव की संभावना से ही यह तूफान उठा है और कुछ हद तक यही विवाद की वजह है। टाटा संस की सूचीबद्धता वास्तव में कंपनी के कॉरपोरेट प्रशासन में नया बदलाव ला सकती है जिसका नियंत्रण विविध कारोबारों के एक व्यापक दायरे पर है। टाटा संस पर टाटा ट्रस्ट की ‘मजबूत पकड़’ ने अक्सर इस वजह से आलोचना की गुंजाइश बढ़ाई है कि दोनों कंपनियों के विभाजन की सीमाएं ही स्पष्ट नहीं हैं। पहले भी ट्रस्ट के खिलाफ अतिक्रमण के आरोप लगे हैं और यह मुद्दा साइरस मिस्त्री के मामले में उच्चतम न्यायालय के फैसले में प्रमुखता से सामने आया था।

अक्टूबर 2024 में रतन टाटा के निधन के बाद ही टाटा ट्रस्ट की भूमिका और टाटा संस के साथ उसके संबंध को लेकर सवाल फिर से उठने लगे हैं। रतन टाटा की मौत के बाद नोएल टाटा को टाटा ट्रस्ट का अध्यक्ष नामित करने के अलावा, उन्हें टाटा संस के नामित निदेशक के रूप में भी शामिल किया गया। अपने पूर्ववर्ती लोगों के विपरीत नोएल टाटा, टाटा संस बोर्ड में बिना कोई अनुभव हासिल किए ही टाटा ट्रस्ट के अध्यक्ष बने। वहीं दूसरी ओर, एन चंद्रशेखरन का टाटा संस के अध्यक्ष के तौर पर दूसरे कार्यकाल का आधा हिस्सा पूरा हो चुका है और वह टाटा ट्रस्ट के ट्रस्टी भी नहीं हैं। कंपनी के प्रशासन नियमों के अनुसार, समूह ने कुछ साल पहले ही टाटा संस और टाटा ट्रस्ट दोनों के अध्यक्ष का कार्यभार एक ही व्यक्ति द्वारा संभाले जाने की रवायत खत्म कर दी थी ताकि दोनों इकाइयों के बीच एक दूरी बनाई रखी जा सके। रतन टाटा, टाटा ट्रस्ट की अध्यक्षता करने के साथ ही टाटा संस के प्रमुख रहने वाले भी अंतिम व्यक्ति थे।

टाटा संस की सूचीबद्धता को लेकर काफी सुर्खियां बन रही हैं ऐसे में सितंबर तक के काउंटडाउन में सबकी निगाहें बॉम्बे हाउस पर होगी। इस समूह की सूचीबद्धता में विरासत, कॉरपोरेट प्रशासन, स्वामित्व संरचना से जुड़े कथ्यों का दबदबा होगा लेकिन सवाल यह है कि आरबीआई के रुख से बेपरवाह, टाटा संस आने वाले हफ्ते और महीने में इस पर कैसी प्रतिक्रिया देगी?

जहां तक टाटा ट्रस्ट की बात है, इसकी स्थापना 100 वर्ष पहले दान और परोपकार से जुड़े कार्यों के मकसद से की गई थी। टाटा ट्रस्ट्स में सबसे बड़े सर रतन टाटा ट्रस्ट की स्थापना 1919 में की गई थी। यह भारत के सबसे पुराने परोपकारी संस्थानों में से एक बन गया और इसने दान के पारंपरिक विचारों को भी बदला।  क्या टाटा ट्रस्ट्स को एक कारोबारी साम्राज्य पर नियंत्रण करने के बजाय परोपकार के अपने मूल काम पर जोर नहीं देना चाहिए?

 

First Published - May 4, 2025 | 10:26 PM IST

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