इस बात के 7 साल बीच चुके हैं, जब सरकार ने प्राइवेट कंपनियों के लिए रक्षा उपकरणों के निर्माण का दरवाजा खोला था।
पर इस क्षेत्र में आने को लेकर प्राइवेट इंजीनियरिंग कंपनियों की खास दिलचस्पी अब जाकर दिख रही है। विदेशों से अत्याधुनिक हथियारों की खरीद के लिए भारत द्वारा मोटी रकम खर्च किए जाने को देखकर अब कई घरेलू कंपनियों को लगने लगा है कि वे देश के भीतर ही रक्षा हथियारों का निर्माण विदेशों के मुकाबले सस्ती कीमतों पर कर सकती हैं। इनमें से ज्यादातर कंपनियां रक्षा उत्पादन के मामले में नई नहीं हैं।
पर पिछले कुछ दशकों में अपनाए गए आत्मघाती तरीके की वजह से एक ऐसा अनुक्रम तैयार हो गया है। पूरे हथियार तंत्र यानी रेडार, एयरक्राफ्ट, टैंक या कम्यूनिकेशन नेटवर्क आदि सभी को समेकित कर दिया गया है और इन सबके निर्माण पर रक्षा उत्पादन से जुड़ी सरकारी कंपनियों (डीपीएसयू) का एकाधिकार रहा है। हां, रक्षा उपकरणों के निर्माण में इस्तेमाल होने वाले सहायक उपकरणों और कलपुर्जे बनाने और उन्हें सरकारी कंपनियों को सप्लाई करने का काम छोटी प्राइवेट कंपनियां जरूर करती रही हैं।
इन सबके लिए जरूरी तकनीक का तो अब तक ग्लोबल कंपनियों से ही आयात होता रहा है। पर देश में इस बात की जरूरत कभी नहीं समझी गई कि विदेश से तकनीक खरीदने के बजाय खुद देश के भीतर ही तकनीक का विकास कर लिया जाए। हां, रक्षा निर्माण से संबंधित व्यापक योजनाओं का खाका देसी कंपनियों को मुहैया जरूर कराया जाता रहा है, पर इन कंपनियां बमुश्किल ही खाके के हिसाब से उपकरणों का निर्माण या उसकी असेंबलिंग कर पाई हैं।
हालांकि प्राइवेट कंपनियों का दावा है कि उन्हें सरकार के द्वारा अब तक व्यापक योजनाओं के अलावा और कुछ भी मुहैया नहीं कराया गया है, इसके बावजूद उनके वैज्ञानिकों और इंजीनियरों ने रक्षा उत्पादन से जुड़े मामलों में विशेषज्ञता हासिल कर ली है और वे अब नए प्रॉडक्ट बनाने की हालत में हैं।
हिंदुस्तान एयरोनोटिक्स कई दशकों से मिग सीरीज के विमान, जगुआर और सुखोई 30 एयरक्राफ्ट बनाती रही है, पर वह अब तक हल्के लड़ाकू विमानों का निर्माण करने में नाकाम रही है। प्राइवेट सेक्टर की कंपनियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे देश के भीतर के लिए रक्षा उत्पादन करने से संबंधित अपने मौजूदा चलन को तिलांजलि देकर ग्लोबल बनने की दिशा में अग्रसर हों।
टाटा, एलऐंडटी और गोदरेज जैसी कंपनियों को अपनी स्थापित इंजीनियरिंग महारत का इस्तेमाल करते हुए रक्षा उत्पादन की हर प्रक्रिया में सकारात्मक हिस्सेदारी दिखानी चाहिए, जिनमें हथियारों के विकास से लेकर, विजुअलाइजेशन, तकनीक विकास, इंजीनियरिंग, मैन्युफैक्चरिंग और इंटीग्रेशन आदि सभी काम शामिल हों।
प्राइवेट सेक्टर के सामने सबसे बड़ी चुनौती रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट (आरएंडडी) पर आने वाला मोटा खर्च है। इस समस्या के हल के लिए सरकार को कुछ खास डिफेंस प्रोजेक्ट की फंडिंग करनी चाहिए।