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जलवायु परिवर्तन पर व्यावहारिक नजरिया

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 11, 2022 | 9:41 PM IST

जलवायु वैज्ञानिकों की चेतावनी है कि वैश्विक तापमान में औसतन 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक की वृद्धि होने पर परिणाम बहुत विनाशकारी होंगे। तापवृद्धि के लिए औद्योगिक युग के पहले की परिस्थितियों को आधार बनाया गया है, यानी 1850 से 1900 का समय। अब तक वैश्विक तापमान में करीब एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है जबकि भारत में यह 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। यह आंकड़ा कमजोर नजर आता है लेकिन कई व्यावहारिक लोगों का मत है कि एक डिग्री सेल्सियस का अंतर बहुत अधिक नहीं है।
हमें जलवायु परिवर्तन को लेकर दो कारणों से चिंतित होना चाहिए। पहला, औसत तापमान में इस हल्की वृद्धि के साथ ही अतिरंजित घटनाओं में भी तेजी से वृद्धि हो रही है। दूसरा, इस क्षेत्र को लेकर हमारा ज्ञान काफी सीमित है और शायद हमने अपने आकलन में गलती कर दी हो। ऐसी स्थिति में वास्तविक नतीजे मौजूदा अनुमान से बहुत अधिक गलत साबित हो सकते हैं।
हम सभी विचित्र मौसमी घटनाओं का अनुभव कर रहे हैं। मॉनसून का सदियों पुराना रुख हमारी आंखों के सामने ही बदल रहा है। अब मॉनसून में लंबे ठहराव देखने को मिल रहे हैं और बेमौसम बादल और बारिश भी नजर आ रहे हैं।
गत वर्ष 23 जुलाई को मैं महाराष्ट्र में था जब पश्चिमी घाट में 594 मिलीमीटर वर्षा हुई। इससे पहले ऐसी वर्षा नहीं हुई थी। मुझे याद है कि उस रात मैं जाग गया था और सोच रहा था कि क्या अपने अब तक के पूरे जीवन में मैंने ऐसे तूफान और ऐसी बारिश देखी है। उस घटना मे 100 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी।
पुराने भारत में बंगाल की खाड़ी में ज्यादा चक्रवात आते थे और अरब सागर में अपेक्षाकृत कम। परंतु यह स्थिति बदलने लगी: अरब सागर में चक्रवात आने की घटनाएं 50 फीसदी तक बढ़ीं। केरल में सन 1924 से 2004 तक बाढ़ आने की कोई बड़ी घटना नहीं हुई थी लेकिन हाल के समय में वहां नाटकीय वर्षा और बाढ़ की घटनाएं बढ़ी हैं।
ये तथ्य दिखाते हैं कि औसत तापमान में मामूली बदलाव मसलन भारत में हुई 0.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि या विश्व स्तर पर एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि का पहले ही बहुत अधिक असर देखने को मिल रहा है। जलवायु मॉडल बताते हैं कि तापमान में वृद्धि दक्षिण भारत में सबसे कम रहेगी और उत्तर की ओर बढऩे पर इसमें भी इजाफा होता जाएगा। तापमान में प्रत्येक एक डिग्री सेल्सियस की औसत वृद्धि के साथ वर्षा में तकरीबन सात फीसदी का इजाफा होगा। मॉनसून के विश्लेषण की बात करें तो दिनों के हिसाब से वर्षा की अवधि कम होगी जबकि मॉनसून के महीनों में सूखे की अवधि लगातार बढ़ेगी।
इस क्षेत्र में दूसरी बड़ी समस्या है मॉडल संबंधी जोखिम। इन मॉडलों में अपनाया जाने वाला डेटा सीमित है। दुनिया भर में बहुत व्यापक पैमाने पर ऐसे प्रयास किए जा रहे हैं ताकि डेटा और अध्ययन के इन मॉडलों में सुधार लाया जा सके। समय के साथ इन मॉडल में सुधार आएगा लेकिन समस्या बहुत बड़ी है और बहुत बड़े पैमाने पर अनिश्चितता बनी रहेगी। इसका अर्थ यह हुआ कि इस बात की पर्याप्त संभावना है कि हालात मौजूदा अनुमान से अधिक खराब हो सकते हैं। भले ही वैश्विक तापवृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखा जाए।
हमें भारत की तमाम जगहों के जनसंख्या घनत्व में मौजूदा अंतर के बारे में विचार करना चाहिए। यह बीते 50 वर्षों में जलवायु परिवर्तन की स्थितियों से उपजा है। जब जलवायु परिवर्तन होता है तो कई लोगों के लिए हालात असहनीय हो जाएंगे और उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान जाना पड़ेगा। तटीय इलाकों में ऐसा होगा क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण वहां तापमान और समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा और चक्रवातों के रुझान में भी तब्दीली आएगी। अंदरूनी इलाकों में भी यही होगा। वहां गर्म हवाओं के थपेड़े चलेंगे और बारिश का रुख बदलेगा। जैसलमेर से 300 किलोमीटर दूर पाकिस्तान के जकोबाबाद में जून 2021 में तापमान 52 डिग्री सेल्सियस पहुंच गया। उस तापमान पर आर्थिक गतिविधियां ठप हो जाती हैं। हालात सन 2020 में भारत में लगे कोविड लॉकडाउन से भी अधिक बुरे हो जाते हैं।
यह समूचा घटनाक्रम मनुष्यों के लिए एक बड़ी चुनौती बन रहा है। नीदरलैंड ने बढ़ते समुद्री जलस्तर से निपटने के लिए तटबंध निर्मित किए और अपने जीवन जीने के तरीके को सुरक्षित किया। हमारे देश में राज्य क्षमता भी काफी कम है और ऐसे दबाव सामने आने पर हालात और भी बुरे हो जाएंगे। तकरीबन 20 वर्ष पहले जब बढ़ती आयु और जलवायु परिवर्तन की दोहरी चुनौती हमारे सामने आई थी तब आशा यह थी कि इस समय तक भारत एक विकसित अर्थव्यवस्था वाला देश बन जाएगा। जलवायु परिवर्तन के साथ और आबादी की बढ़ती आयु के साथ ऐसा लगता है कि हालात ने अलग रुख ले लिया है।
अब प्राकृतिक आपदाएं अधिक आएंगी। आपदा राहत और आपदा जोखिम से बचाव पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करना होगा। कृषि से होने वाली आय और अधिक अस्थिर हो जाएगी क्योंकि उपज की मात्रा और कीमत दोनों में उतार-चढ़ाव देखने को मिलेगा। ऐसे में फसल बीमा और जिंस डेरिवेटिव कारोबार के रूप में वित्तीय क्षेत्र विकसित करने की जरूरत है।
जब किसी खास जगह की जलवायु और अर्थव्यवस्था डगमगा जाए तथा अन्य जगहें बेहतर स्थिति में हों तो उन परिवारों को बड़े पैमाने पर संपत्ति का नुकसान होता है जिनकी अचल संपत्ति ज्यादातर गलत स्थानों पर होती हैं। इससे देश में संपत्ति का वितरण बदल जाता है। समायोजन का एक अच्छा रास्ता इन घरों को दूसरी जगहों पर स्थानांतरित करने में निहित है।
जिन परिवारों के पास जमीन है उनके लिए सबसे अच्छा तरीका यही है कि वे अपनी परिसंपत्ति बेचकर दूसरी जगहों पर चले जाएं और वहां संपत्ति खरीद लें। जाहिर है इसका कीमतों पर विपरीत असर होगा लेकिन ऐसी जगहों पर बने रहने से बेहतर होगा कि वहां से हट जाया जाए। जमीन के बाजार को नकदीकृत करना आसान नहीं है। इसकी लेनदेन की लागत बहुत अधिक होती है और इसमें देरी भी बहुत अधिक होती है।
इंसानी मस्तिष्क के लिए धीरे-धीरे हो रहे इन बदलावों के दूरगामी प्रभाव के बारे में सोच पाना मुश्किल है। हम शारीरिक रूप से उन घटनाओं के बारे में प्रतिक्रिया देने में सक्षम हैं जो मिनट दर मिनट हमारे सामने आती हैं। उदाहरण के लिए किसी हमलावर बाघ से बचने की कोशिश करना। जहां तक समुद्र के जल स्तर में इजाफे की बात है तो इसके 20 से 30 वर्षों में 10 से 30 सेंटीमीटर बढऩे का अनुमान जताया गया है। जलवायु की समस्या से निपटने के लिए हममें से प्रत्येक को अपनी विचार प्रक्रिया को और अधिक रणनीतिक बनाना होगा।

First Published : January 25, 2022 | 11:20 PM IST