कुछ लोग इसे कभी भरपाई न होने वाली आपदा बताते हैं। कुछ लोग इसकी समीक्षा और इसमें सुधार चाहते हैं। कम संख्या में ही सही, कुछ लोगों का मानना है कि इसे पूरी तरह हटा लेना चाहिए क्योंकि यह कारगर नहीं है। मगर सत्तारूढ़ जनता दल (यूनाइटेड) का कहना है कि राज्य में चुनाव हो या नहीं हो, शराबबंदी नीति वापस नहीं ली जाएगी। इस साल अक्टूबर और नवंबर में राज्य में चुनाव होने हैं।
जदयू के कार्यकारी अध्यक्ष और राज्य सभा सदस्य संजय झा ने पिछले हफ्ते दक्षिण कोरिया के सोल से फोन पर बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा, ‘इस पर कोई सवाल ही नहीं उठता है। हम पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं। हमें पता है कि इससे किस तरह बिहार की महिलाओं के जीवन में परिवर्तन आया है। इसका असर भले ही पटना अथवा दिल्ली में नहीं दिखता हो मगर बिहार के ग्रामीण इलाकों में महिलाओं पर होने वाली हिंसा में भारी कमी आई है। हां, इस नीति के कारण राजस्व को भले झटका लगा है, लेकिन इसका क्या मतलब है? क्या सरकार जनता का जीवन बेहतर बनाने के लिए नहीं होती है।’ संजय झा ऑपरेशन सिंदूर के बाद बहुदलीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने के लिए सोल में थे। उन्होंने कहा कि अपने पूरे कार्यकाल के दौरान नीतीश ने बिहार में महिलाओं को सशक्त बनाने की कोशिश की है। हम उन्हें कभी निराश नहीं करेंगे।
हालांकि, प्रदेश सरकार के घटक दल उतने आशावादी नहीं है। पूर्व केंद्रीय मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के आरा से सांसद रहे आरके सिंह ने कुछ हफ्ते पहले भोजपुर में एक सार्वजनिक बैठक के दौरान पार्टी लाइन से अलग हटकर शराबबंदी के नीतीश के फैसले की गहन समीक्षा करने का आह्वान किया था। बिहार में शराबबंदी लागू होने के बाद 2,000 लोगों की मौत का इसे ही प्रमुख कारण माना जा रहा है।
सिंह ने कहा, ‘बिहार में शराबबंदी अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकी। इसलिए इसे सही तरीके से खत्म करना ही सही रहेगा।’ उन्होंने कहा, ‘सच्चाई यही है कि शराबबंदी महज कागजों पर है। अगर अच्छा प्रबंधन किया जाता तो बिहार में शराबबंदी सफल होती। अवैध शराब की बिक्री में लोगों का एक बड़ा वर्ग संलिप्त है।’
भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के अधिकारी रह चुके सिंह ने स्पष्ट रूप से यह कहने से गुरेज किया कि बिहार में शराबबंदी लागू करने की प्रशासनिक क्षमता का अभाव है। उनकी पार्टी ने प्रत्यक्ष तौर पर उनका विरोध नहीं किया, इसकी जगह उसने शराबबंदी नीति की समीक्षा की मांग कर रहे विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता और बिहार विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव समेत अन्य नेताओं पर पहले शराब के व्यापार में निवेश की ओर इशारा करते हुए निशाना साधा। साल 2016 में लागू की गई शराबबंदी नीति को तब बिहार में दोनों दलों का समर्थन मिला था। उस वक्त, जदयू-राजद की गठबंधन सरकार थी और तेजस्वी यादव ने नीतीश कुमार का समर्थन किया था। वह इस बात पर सहमत हुए थे कि शराबबंदी लागू होने से राज्य की महिलाओं की घरेलू आय बढ़ेगी और शराब के कारण होने वाली घरेलू हिंसा को भी कम करने में मदद मिलेगी। हालांकि, तब विपक्ष में रही भाजपा के पास इसका विरोध करने का कोई खास कारण नहीं था, जब तक कि अवैध शराब के कारण राज्य भर में सैकड़ों लोगों की मौत होने की खबरें सामने नहीं आई थीं।
सबसे भयानक घटना साल 2022 में छपरा (सारण) में हुई थी, जब 80 फीसदी मिथाइल अल्कोहल और उद्योग में उपयोग होने वाली स्पिरिट से बनी शराब पीने से 65 लोगों की जान चली गई थी। इस घटना के गवाह रहे एक आईएएस अधिकारी ने बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा, ‘अस्पतालों में उन्हें भर्ती करने के लिए जगह नहीं थी। अस्पताल परिसर में केवल पीड़ित परिवारों की चीख-पुकार गूंज रही थी। कई लोगों की आंखों की रोशनी चली गई। कुछ लोग तो अस्पताल तक नहीं पहुंच सके और गांव में ही दम तोड़ दिया। तब भाजपा ने तथाकथित शराब माफिया पर कड़ी कार्रवाई करने की मांग की थी।’
हालांकि, तब से जहरीली शराब पीने से होने वाली मौतों की खबरें बीच-बीच में आती रही हैं। पिछले साल अक्टूबर में दीवाली के आसपास सिवान और सारण जिले में 20 से अधिक लोगों की जान चली गई थी।
जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहा है शराबबंदी पर राजनीतिक दलों का रुख बदल रहा है। पिछले हफ्ते बिहार के पर्यटन मंत्री राजू सिंह ने पर्यटन और राज्य के होटल उद्योग में जान फूंकने के लिए शराबबंदी नीति में बदलाव का प्रस्ताव दिया था। हालांकि, उन्होंने यह स्पष्ट किया कि कोई भी फैसला मंत्रिमंडल की बैठक में ही लिया जाएगा। राजद नेता तेजस्वी यादव ने घोषणा की है कि अगर चुनाव के बाद राज्य में उनकी सरकार बनती है तो वह ताड़ी पर लगे प्रतिबंध को हटा देंगे और इसे का उद्योग का दर्जा देंगे। चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास पासवान) ने भी इसका समर्थन किया है।
इन परिवर्तनों का कारण भी पूरी तरह साफ है। पासी और मुसहर जैसे दलित समुदायों के लिए महुआ के फूलों से देसी शराब बनाना और ताड़ी निकालना लंबे अरसे से आजीविका का स्रोत रहा है। मगर यह बात भी पूरी तरह साफ है कि अवैध शराब जानलेवा हो सकती है। इसके अलावा शराबबंदी से बिहार के राजस्व को काफी नुकसान हुआ है, इससे भी कोई आनाकानी नहीं कर सकता है।
भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने साल 2018 में अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि साल 2016-17 में मुख्य तौर पर शराबबंदी से राज्य के राजस्व में 1,490 करोड़ रुपये की गिरावट आई। इस बीच, इस नीति को लागू करने की लागत के कारण राज्य के आबकारी विभाग का खर्च उस साल करीब दोगुना हो गया था। यह साल 2015-16 के 49 करोड़ रुपये से बढ़कर 91 करोड़ रुपये हो गया।
शराबबंदी के कारण बिहार में प्रत्यक्ष निवेश पर भी असर पड़ा है। साल 2005 में सत्तासीन होने वाले नीतीश ने राज्य का राजस्व बढ़ाने के वास्ते शराब व्यापार को उदार बनाने का वादा किया था। नतीजतन, आबकारी प्राप्तियों में आठ गुना वृद्धि हुई और यह 500 करोड़ रुपये से बढ़कर 4,000 करोड़ रुपये हो गया।
ब्रिटेन के उद्योगपति और कोबरा बियर के मालिक करण बिलिमोरिया ने बिहटा में एक डिस्टिलरी स्थापित की और राज्य में जौ उत्पादन को सहारा देने के लिए अंतरराष्ट्रीय बियर ब्रांड मोल्सन कूर्स के साथ साझेदारी में बिहार में 10 और इकाइयां स्थापित करने की योजना का भी ऐलान किया था। उनके करीबी सूत्रों ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि साल 2016 के बाद राज्य सरकार ने उनके बिहटा संयंत्र को फलों के रस का उत्पादन करने की भी मंजूरी नहीं दी।
सासाराम के पास कोनार में, जहां 2013 में शराबबंदी की मुहिम ने सबसे पहले जोर पकड़ा था, बहुत कम बदलाव हुआ है। गैर सरकारी संगठनों की रिपोर्ट के मुताबिक, शराब की लत एक गंभीर चिंता बनी हुई है, खासकर महिलाओं के लिए। प्रशांत किशोर जैसी राजनीतिक हस्तियों ने कहा है कि अगर उनकी सरकार सत्ता में आ जाती है तो शराबबंदी को एक घंटे के भीतर खत्म कर दिया जाएगा। उन्होंने दावा किया कि इसे लागू करना स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है।
बिहार में शराबबंदी कानून काफी सख्त है। इसका उल्लंघन करते हुए पाए जाने पर पूरे परिवार को जेल जाना पड़ सकता है। आबकारी विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, अप्रैल 2016 से अगस्त 2024 के दौरान इससे जुड़े 8.43 लाख मामले दर्ज किए गए और 12.79 लाख लोगों को गिरफ्तार किया गया।
हालांकि, इन अपुष्ट खबरों के बीच कि शराब की कुछ श्रेणियों के लिए नीति की समीक्षा की जा सकती है संजय झा ने जोर देकर कहा कि कोई बदलाव नहीं होने जा रहा है। फिर भी चुनाव अभियान के दौरान शराबबंदी एक बार फिर प्रमुख मुद्दे के तौर पर उभर सकती है।