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विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रवेश का विरोध

Published by
टी सी ए श्रीनिवास-राघवन
Last Updated- January 16, 2023 | 9:36 PM IST

कुछ लोग विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में प्रवेश की अनुमति देने के विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के प्रस्ताव से खासे नाराज हैं। उनका कहना है कि विदेशी विश्वविद्यालयों को बहुत आसान और फायदा पहुंचाने वाली शर्तों पर बुलाया जा रहा है।

इसका विरोध करने वाले लोग एकदम गलत हैं क्योंकि विश्वविद्यालय वही बेच रहे हैं, जिसकी लोगों को ज्यादा दरकार है – शिक्षा। छात्र अपने मां-बाप से पैसे लेकर या बैंक से कर्ज लेकर या दोनों लेकर इसे खरीदते हैं। यहां ऐसा ही चलता है और सफलता के लिए जरूरी है एकाधिकार बनाने की होड़ क्योंकि तभी कुछ आपूर्तिकर्ता कह सकते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हैं। इस तरह की होड़ में कुछ ही विक्रेता होते हैं। यह बाजार अलग दिखकर और ब्रांडिंग कर तैयार किया जाता है। अलग दिखने का एक ही पैमाना है और वह हैं अंक।

ब्रांडिंग मूल विशिष्टता के साथ स्थायी बौद्धिक श्रेष्ठता के साथ भ्रमित करके हासिल किया जाता है। लेकिन यह साबित करने के साक्ष्य कम ही है कि इन जगहों पर प्रवेश की मूल आवश्यकता की वजह से लाखों प्रतिभाशाली लोग तैयार हुए हैं। इस अलग दिखने को ही स्थायी बौद्धिक श्रेष्ठता बताकर ब्रांडिंग की जाती है। लेकिन अलग दिखने यानी ज्यादा अंक लाने वाले लाखों लोग ही आगे जाकर जीनियस या प्रतिभाशाली बने हैं, इसके साक्ष्य नहीं के बराबर हैं।

इसके बाद भी अगर आपने किसी विशेष विश्वविद्यालय से डिग्री हासिल की है तो स्नातक में आपके अंक जो भी हों, आपको स्वत: ही बौद्धिक रूप से उन लोगों से बेहतर मान लिया जाता है, जो वहां से डिग्री नहीं ले सके हैं। यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसे यह मान लेना कि केवल महंगा सामान खरीदने वाले लोग उन लोगों से अमीर होते हैं, जो महंगा सामान नहीं खरीदते। अब अगर मैं केवल 500 रुपये की सस्ती सी टी-शर्ट पहनता हूं और सपाट तलवे (फ्लैट फीट) होने की वजह से महंगे सैंडल पहनता हूं तो मुझे अमीर माना जाएगा या नहीं माना जाएगा?

इसलिए जिस तरह आप केवल खरीदारी के आधार पर धारणा नहीं बना सकते उसी तरह प्रवेश का मानदंड भी बौद्धिक श्रेष्ठता का पैमाना नहीं हो सकता। वे बौद्धिक रूप से श्रेष्ठ हो सकते हैं या नहीं हो सकते हैं। शिक्षकों के मामले में भी यही सच है। विश्वविद्यालय या कॉलेज की रैंक अच्छे शिक्षण से तय नहीं होती मगर अच्छी ब्रांडिंग से जरूर तय होती है। शोध में भी यही होता है। माहौल का असर तो पड़ता है मगर बहुत मामूली होता है। अव्वल दर्जे का शोध किसी कम रैंक वाले विश्वविद्यालय से आ सकता है क्योंकि रैंकिंग तो ब्रांडिंग पर आधारित होती है।

इसलिए विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में न्योता देना बिल्कुल सामान आयात करने जैसा ही है और इसका मकसद आपूर्ति बढ़ाना ही है। याद रखिए कि ब्रिटिश हुकूमत के दौरान भी यहां कई विदेशी स्कूल खोले गए थे क्योंकि हमारे पास अंग्रेजी शिक्षा देने के लिए पर्याप्त स्कूल नहीं थे। ज्यादा कायदे का सवाल यह है कि हमें कोई नाकाम मॉडल अपने यहां क्यों आजमाना चाहिए। ऐसा लगता है कि फ्रैंचाइज पर खोले गए विश्वविद्यालय कारगर नहीं होते क्योंकि स्थानीय लोग उनकी भारी-भरकम फीस का बोझ ही नहीं उठा पाते।

मेरा जवाब सीधा है: जब तक विदेशी विश्वविद्यालय खोलने के लिए भारतीय करदाताओं की रकम इस्तेमाल नहीं की जाती तब तक हम चिंता क्यों करें? यह देखना विदेशी विश्वविद्यालयों का काम है, जैसा दूसरे उद्योग भी करते हैं। अगर भारत में निजी क्षेत्र विश्वविद्यालय खोल सकता है या विदेशी विश्वविद्यालयों के साथ हाथ मिला सकता है तो विदेशी विश्वविद्यालयों को सीधे प्रवेश क्यों नहीं मिल सकता?

यहां मैं कौशिक बसु के एक बयान का जिक्र करूंगा, जो इस सरकार के प्रशंसक नहीं हैं। उन्होंने 2009 में यूजीसी सुधार पर असहमति जताते हुए कहा था, ‘हमें उच्च शिक्षा में निजी क्षेत्र की पूंजी आने देना चाहिए। वे कॉलेज की फीस जितनी ज्यादा रखना चाहें, रखने दी जाए बशर्ते वे इसे पारदर्शी बनाकर रखें।’ लेकिन उन्होंने विदेशी पूंजी शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है।

बसु ने आगे कहा, ‘उच्च शिक्षा में हमारी पारंपरिक (हालांकि इसका क्षरण हुआ है) बढ़त, अंग्रेजी भाषा में हमारी ताकत और जीवन यापन की कम लागत को देखते हुए भारत दुनिया भर के, केवल गरीब देशों नहीं बल्कि अमीर और औद्यौगिक देशों के भी छात्रों के लिए एक प्रमुख ठिकाने के तौर पर अपना मुकाम बना सकता है।’

उन्होंने कहा, ‘अगर भारत छात्रों के लिए रहने की अच्छी व्यवस्था के साथ कुछ अच्छे विश्वविद्यालय बना सकता है और दुनिया भर में उनका प्रचार भी कर सकता है तो इस बाजार को वह कड़ी टक्कर दे सकता है। यदि भारत विदेशी छात्रों से प्रति वर्ष 5 लाख रुपये बतौर ट्यूशन फीस लेता है तब दूसरे सभी खर्चों के साथ एक छात्र 8 लाख रुपये में साल भर बढ़िया शिक्षा पा सकता है, जो अमेरिका में होने वाले खर्च का एक तिहाई ही है।’

First Published : January 16, 2023 | 9:36 PM IST