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Opinion: WTO में भारत का खाद्य सुरक्षा का संघर्ष

Global trade policy: चावल के लिए अपने बाजार समर्थन की जांच के बीच भारत को भविष्य के कारोबारी समझौतों पर हस्ताक्षर करते समय सतर्क रहना चाहिए ताकि वह अपने हितों का बचाव कर सके।

Last Updated- January 29, 2024 | 9:12 PM IST
वैश्विक व्यापार और आशावाद, global trade and optimism

विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) का 13वां मंत्रिस्तरीय सम्मेलन अबू धाबी में 26 से 28 फरवरी तक होगा। इस सम्मेलन में भारत का ध्यान प्रमुख तौर पर इस बात पर केंद्रित रहेगा कि वह कैसे डब्ल्यूटीओ के कृषि समझौता नियमों (एओए) का उल्लंघन किए बिना अपने किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खाद्यान्न खरीदने के अपने अधिकार की रक्षा कर सके। भारत इस अनाज को बाद में गरीबों में बांटता है।

भारत द्वारा एओए सीमा का उल्लंघन

एओए के मुताबिक भारत जैसे विकासशील देशों को किसी उत्पाद के बाजार मूल्य का 10 फीसदी तक मूल्य समर्थन देने की इजाजत होती है। 2020-21 में भारत ने चावल के मूल्य समर्थन में 15 फीसदी का इजाफा किया। बहरहाल अमेरिका तथा अन्य देशों का दावा है कि भारत करीब 94 फीसदी तक मूल्य समर्थन देता है। अमेरिका की दलील है कि इतना अधिक मूल्य समर्थन भारत को सबसे बड़ा चावल निर्यातक बनाता है और वैश्विक बाजार में उसकी हिस्सेदारी 40 फीसदी से अधिक है।

आकलन के अंतर की समझ

एओए की गलत प्रविधि भारत और अमेरिका के आकलन में बड़ा अंतर पैदा करती है। एओए विकासशील देशों के साथ भेदभाव करता है और अमेरिका को यह इजाजत देता है कि वह एओए के पाठ के साथ छूट ले सके।

आइए देखते हैं कि एओए सब्सिडी और बाजार मूल्य समर्थन (एमपीएस) का आकलन किस प्रकार करता है: एमपीएस तय बाहरी संदर्भ मूल्य और एमएसपी के लिए योग्य उत्पादन मात्रा से गुणा किए गए लागू प्रशासित मूल्य का अंतर होता है।

हमें इन शर्तों को समझना होगा तभी हम यह जान पाएंगे कि एओए को कैसे विकासशील देशों के खिलाफ तैयार किया जाता है। एओए 262.51 डॉलर प्रति टन का तयशुदा बाहरी संदर्भ मूल्य इस्तेमाल करके चावल के मूल्य समर्थन का आकलन किया जाता है।

यह कीमत सन 1986 से 1988 तक के चावल के निर्यात या आयात मूल्य पर आधारित होती है और अपरिवर्तित रहती है। एमएसपी की तुलना 35 वर्ष पुराने संदर्भ मूल्य से करने के कारण सब्सिडी का हिस्सा अधिक होता है। एमएसपी भारत में लागू प्रशासित मूल्य है।

एओए ‘पात्र उत्पादन’ के रूप में उस उपज को परिभाषित करता है जो एमएसपी के लिए पात्र होती है, भले ही उसे खरीदा गया हो या नहीं। अमेरिका का तर्क है कि चूंकि भारत की एमएसपी नीति सरकार की चावल खरीद की सीमा तय नहीं करती इसलिए देश के समस्त चावल उत्पादन को सब्सिडी आकलन का पात्र माना जाना चाहिए।
बहरहाल भारत एमएसपी कार्यक्रम के तहत खरीदी गई मात्रा को ही आकलन में शामिल करता है।

मुद्रा का इस्तेमाल

अमेरिकी डॉलर और भारतीय रुपये के बीच की विनिमय दर सन 1986-88 के 13.5 से बढ़कर इस समय 86 हो चुकी है। भारत अपनी सब्सिडी का आकलन अमेरिकी डॉलर में करता है और कमजोर रुपये का लाभ उठाता है। अमेरिका कहता है कि भारत को आकलन के लिए भारतीय रुपये का इस्तेमाल करना चाहिए ताकि उसे मुद्रा अवमूल्यन का लाभ न मिल सके। अमेरिका का रुख अतार्किक है।

एओए यह नहीं बताता है कि आकलन किसी खास मुद्रा में ही होना चाहिए। अमेरिका और भारत उपरोक्त शर्तों को अलग-अलग ढंग से परिभाषित करते हैं। इसके चलते अमेरिका मानता है कि भारत चावल को 94 फीसदी मूल्य समर्थन देता है जबकि भारत का अपना आकलन 15.2 फीसदी का है।

बाली राहत

भारत ने डब्ल्यूटीओ में पब्लिक स्टॉकहोल्डिंग (पीएसएच) के मसले को हल करने के लिए तगड़ी हिमायत की जिसके चलते 2013 में बाली मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में एक ‘शांति उपबंध’ को अपनाया गया। यह तब हुआ जब भारत ने जोर दिया कि व्यापार सुविधा समझौते पर तभी सहमति होगी जब पीएसएच का मसला हल किया जाएगा। शांति उपबंध डब्ल्यूटीओ के सदस्यों को किसी ऐसे देश को चुनौती देने से रोकता है जो किसी जिंस के लिए तय मूल्य समर्थन का उल्लंघन करता हो।

2018-19 में भारत ने इस उपबंध का इस्तेमाल करके अपने चावल पीएसएच कार्यक्रम का बचाव किया था जबकि उसका समर्थन 10 फीसदी की सीमा पार कर गया था। हालांकि बाली निर्णय कुछ राहत देता है लेकिन यह सीमित है और इसका इस्तेमाल करने वाले देशों से विस्तृत रिपोर्टिंग की आवश्यकता होती है। ऐसे में भारत पीएसएच के मसले पर एक स्थायी हल पर जोर देता है। बहरहाल अगर कोई प्रगति नहीं होती है तो भारत शांति उपबंध की मदद से एमएसपी कार्यक्रम जारी रख सकता है।

विकसित देशों के अनुकूल है एओए

एओए के मुताबिक जिन देशों ने 1986-88 के दौरान अधिक न्यूनतम मूल्य समर्थन दिया था उन्हें यह इजाजत है कि वे 5 फीसदी की सीमा को पार करना जारी रख सकें। इसके परिणामस्वरूप अमेरिका और यूरोपीय संघ आज चुनिंदा फसलों के लिए 50 फीसदी और 65 फीसदी तक मूल्य समर्थन देते हैं और फिर भी नियमों के अनुरूप हैं। वहीं भारत को 15 फीसदी मूल्य समर्थन देने पर भी अनुपालन न करने वाला बताया जा रहा है। एओए विकसित देशों को यह मौका भी देता है कि वे इन वस्तुओं पर उच्च निर्यात सब्सिडी प्रदान करें।

पीएसएच पर दो विकल्प

तेरहवें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में भारत पीएसएच कार्यक्रम को ‘ग्रीन बॉक्स’ समर्थन के रूप में स्पष्ट वर्गीकरण की मांग करता है क्योंकि इससे उसे समर्थन स्तर कम करने दायित्व से छूट मिलती है। इसकी कामयाबी की संभावना कम है क्योंकि अमेरिका तथा कई विकसित देश ऐसा नहीं चाहते।

पीएसएच के मुद्दे को स्थायी रूप से हल करने के लिए भारत अपने पीएसएच स्टॉक से व्यावसायिक रूप से चावल का निर्यात न करने का वादा कर सकता है। उच्च चावल उत्पादकता वाला चीन इसके निर्यात को बढ़ावा नहीं देता। चूंकि एक किलो चावल के उत्पादन में औसतन 800 से 1,200 लीटर पानी लगता है इसलिए कई भारतीय राज्यों में बिना नि:शुल्क बिजली के उत्पादन कठिन हो सकता है।

भारत कुछ फसलों के लिए उच्च उत्पादन लक्ष्य तय कर सकता है और केवल 75 फीसदी उत्पादन को समर्थन देने की बात कर सकता है। यह रणनीति एओए की ब्लूबॉक्स रणनीति के अनुकूल होगी जिसका इस्तेमाल चीन एओए की सीमा से बचने के लिए करता है। बहरहाल इसके लिए सावधानीपूर्वक विचार करना होगा क्योंकि उत्पादन सीमा तय करना राजनीतिक दृष्टि से कठिन हो सकता है।

संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन का अनुमान है कि अगले 30 सालों में विकासशील देशों का खाद्यान्न आयात तीन गुना हो सकता है। वे अधिकांश खाद्यान्न विकसित देशों से आयात करेंगे। ध्यान रहे कि अंतरराष्ट्रीय खाद्यान्न बाजार में चार कारोबारी 90 फीसदी कारोबार का प्रबंधन करते हैं।

सब्सिडी की सीमा का उल्लंघन करने वाले देशों पर एमएसपी और खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम रोके जाने का जोखिम रहता है जिससे आयात पर उनकी निर्भरता बढ़ती है। क्या यह एओए का छिपा एजेंडा नहीं हो सकता? अफवाह है कि करगिल के पूर्व वाइस-प्रेसिडेंट डैन एम्सटुट्ज ने एओए का पहला मसौदा तैयार किया था। भारत को कृषि व्यापार से जुड़े किसी भी मसले पर अपने हथियार डालने की जरूरत नहीं है।

आखिर में, भारत को अपनी विशेषज्ञ टीम बढ़ानी चाहिए। फिलहाल हमारे पास ऐसे कम ही विशेषज्ञ हैं जो कृषि व्यापार के मुद्दों पर ध्यान दे सकें जबकि अमेरिकी के पास ढेर सारे विशेषज्ञ हैं जो भारत के कृषि व्यापार के मसलों को देखते हैं।

(लेखक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनीशिएटिव के संस्थापक हैं)

First Published - January 29, 2024 | 9:12 PM IST

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