भारत की सरकारी सांख्यिकीय मशीनरी के पुरोधा पी सी मोहनन और आलोक कार ने ‘द इंडिया फोरम’ में प्रकाशित अपने एक लेख में कार्य, रोजगार और नौकरी के बीच के अंतर को बहुत स्पष्ट तरीके से समझाया है। उन्होंने लॉकडाउन में रोजगार को परिभाषित करने से जुड़ी संकल्पनात्मक चुनौतियां रेखांकित करने के साथ ही रोजगार आंकड़ों की दोषपूर्ण व्याख्या की आशंका को भी दूर करने की कोशिश की है।
रोजगार और कार्य भले ही बेहद करीबी रूप से जुड़े हुए हों लेकिन असल में वे अलग हैं। कार्य रोजगार की तुलना में कहीं अधिक व्यापक अवधारणा है। हम अपनी बेहतरी के लिए जो भी कार्य करते हैं उनमें से अधिकांश रोजगार के दायरे में नहीं आते हैं। मसलन, प्रतियोगी परीक्षाओं में बेहतर प्रदर्शन करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा एक छात्र कार्य तो कर रहा है लेकिन उसे कामकाजी नहीं माना जाएगा। इसी तरह अपने परिवार के लिए प्यार एवं चाव से भोजन बनाने वाला शख्स कार्यरत होते हुए भी कामकाजी नहीं माना जाता है।
ऐसे कार्यों से इतर जब कोई व्यक्ति पारिश्रमिक या लाभ के लिए काम करता है तो उसे कामकाजी माना जाता है। यह कार्य किसी नियोक्ता के लिए वेतन के लिए या वेतन के बगैर भी हो सकता है या हम अपने लाभ के लिए भी कार्य करते हैं। स्वरोजगार में लगा उद्यमी रोजगार के तीसरे स्वरूप का ही उदाहरण है।
यह मान लिया जाता है कि एक बार रोजगार मिल जाने पर हम रोजगार से संबंधित कार्य ही करेंगे। लेकिन ऐसा कोई पारिभाषिक संबंध नहीं है जो एक रोजगार-प्राप्त व्यक्ति के कार्यों की अर्हता तय करता हो। यह भी हो सकता है कि आपको रोजगार मिला हो लेकिन आपके पास कोई कार्य न हो। मोहनन और कार का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान रोजगार माने गए तमाम काम किसी भी कार्य से नहीं जुड़े थे, लिहाजा लॉकडाउन में रोजगार अनुमान ने उत्पादन गतिविधियों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया।
इस मान्यता से हम भी सहमत हैं। इन दोनों विद्वानों ने राष्ट्रीय आंकड़े तैयार करने में समय-उपयोग आंकड़ों के इस्तेमाल का जो सुझाव दिया है उसकी अनुशंसा राष्ट्रीय लेखा प्रणाली ने भी 2008 में की थी। उपभोक्ता पिरामिड परिवार सर्वे अब रोजगार आंकड़ों के साथ समय-उपयोग आंकड़े भी देता है। इस सर्वे का 18वां दौर सितंबर-दिसंबर 2019 में हुआ था। उस सर्वे के मुताबिक वेतन या लाभ के लिए दिन भर में 8 घंटे या अधिक काम करने वाले कामकाजी लोगों का अनुपात 80 फीसदी था लेकिन मई-अगस्त 2020 में हुए 20वें दौर के सर्वे में यह अनुपात घटकर 55 फीसदी पर आ गया। बीसवें दौर का सर्वे पूरी तरह लॉकडाउन के समय किया गया है।
लॉकडाउन के पहले भी कुछ ऐसे लोग थे जो कामकाजी होते हुए भी कोई कार्य न होने का दावा कर रहे थे। 18वें दौर के सर्वे में ऐसा कहने वाले सिर्फ 0.5 फीसदी थे। लेकिन लॉकडाउन में ऐसे कामकाजी लोगों की संख्या 8 फीसदी तक पहुंच गई।
कामकाजी लोगों के बीच कार्य में आई तीव्र गिरावट को देखते हुए उत्पादन स्तर के अनुमान में समय-उपयोग आंकड़े का इस्तेमाल करना यह मान लेने से कहीं बेहतर होगा कि सामान्य दिनों एवं लॉकडाउन दोनों ही समय में सभी रोजगार समान रहे हैं।
लेकिन राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी तैयार करना श्रम सर्वेक्षण का इकलौता मकसद नहीं है। इस संदर्भ में, लॉकडाउन के दौरान भी परंपरागत तरीकों से जुटाए गए रोजगार आंकड़ों में कुछ भी गलत नहीं है। हालांकि गलत व्याख्याओं से बचा जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं है कि ऐसे आंकड़े तैयार करना गैरजरूरी है। ये आंकड़े राष्ट्रीय लेखा के अनुप्रयोग में भी उपयोगी हैं। रोजगार होते हुए भी काम से वंचित श्रमिक वाली एक अर्थव्यवस्था के लिए नीतिगत निहितार्थ उस अर्थव्यवस्था से पूरी तरह अलग होंगे जिसमें श्रमिक के पास न तो रोजगार है और न ही काम। पहली स्थिति में होना बेहतर है। इससे नीति-निर्माताओं को लंबे समय तक कोई काम नहीं होने से कंपनियों द्वारा श्रमिकों को निकाल देने के पहले ही कार्य व्यवस्थित करने का मौका मिल जाता है।
लॉकडाउन ने आंकड़ों के संकलन एवं व्याख्या के बारे में कई परंपरागत धारणाएं तोड़ी हैं। ऐसी ही खंडित धारणा है कि रोजगार में कार्य शामिल होता है। एक अन्य खंडित धारणा यह है कि रोजगार में पारिश्रमिक शामिल होता है। लोगों के पास रोजगार होते हुए भी न तो काम है और न ही पारिश्रमिक मिल रहा है। कुछ लोग ऐसे हैं जिनके पास कामकाजी रोजगार तो है लेकिन कोई मेहनताना नहीं मिल रहा है। लॉकडाउन ने नौकरियों, रोजगार, काम एवं पारिश्रमिक के अंतर्संबंध को चुनौती दी है। लेकिन इसका खमियाजा सिर्फ राष्ट्रीय सांख्यिकी लेखा को ही नहीं उठाना पड़ा है।
मोहनन एवं कार स्पष्ट करते हैं कि नौकरी का संबंध पद से होता है। कामकाजी शख्स का मतलब एक नौकरी में निर्दिष्ट पद पर आसीन होने और उससे जुड़े दायित्वों के निर्वहन से है। इस तरह नौकरी का मतलब व्यक्ति नहीं है। नौकरियों के बारे में आंकड़े जुटाने का सबसे अच्छा जरिया उद्यम सर्वे होता है, न कि परिवार सर्वे। परिवार सर्वे से रोजगार अनुमान यानी नौकरियां कर रहे लोगों के बारे में जानकारी मिल सकती है। लेकिन इसमें रिक्त चल रही नौकरियां भी हो सकती हैं। परिवार सर्वे से हमें रिक्त नौकरियों के बारे में जानकारी नहीं मिल सकती है लेकिन उद्यम सर्वे से ऐसा हो सकता है। वहीं उद्यम सर्वे हमें बेरोजगार श्रमिकों के बारे में नहीं बता सकता है लेकिन एक परिवार सर्वे से हमें यह पता चल सकता है। इसका मतलब है कि दोनों सर्वे एक-दूसरे के पूरक हैं।
एक परिवार सर्वे श्रमिकों की आपूर्ति के बारे में अंतर्दृष्टि देता है तो एक उद्यम सर्वे से श्रमिकों की मांग के बारे में समझ बनती है। दोनों सर्वे साथ मिलकर एक ऐसा परिवेश बनाते हैं जिसमें श्रम बाजारों के बारे में जानकारी के आधार पर फैसले ले पाएं और बेहतर राष्ट्रीय लेखा भी तैयार हो।
(लेखक सीएमआईई के प्रबंध निदेशक एवं सीईओ हैं)