लेख

परिवर्तन के बिना संभव नहीं कोई सार्थक सुधार

Published by
रथिन रॉय
Last Updated- December 23, 2022 | 11:52 PM IST

अमीर देशों में बहुपक्षीय विकास बैंकों में आवश्यक सुधारों के प्रति अनिच्छा का भाव दिखता है, तीन उभरती अर्थव्यवस्थाओं को मिलने जा रही जी-20 की अध्यक्षता से उम्मीद बंधी है। बता रहे हैं रथिन रॉय  

कोविड के बाद की दुनिया में जलवायु संकट और अमीर एवं गरीब देशों के बीच अप्रत्याशित रूप से बढ़ रही असमानता जैसी समस्याओं का समाधान करने के लिए विकास वित्तपोषण में भारी बढ़ोतरी की तत्काल आवश्यकता महसूस हो रही है। जिस प्रकार की समस्या से हम दो-चार हैं, उसका उपाय किसी बाजार-आधारित समाधान में नहीं है। सामूहिक रूप से कदम उठाना ही अपरिहार्य लगता है।  इन तमाम चुनौतियों का तोड़ निकालने के लिए बहुपक्षीय विकास बैंकों (एमडीबी) में सुधार और उन्हें नया आकार देने को लेकर चर्चा आवश्यक है। इस मामले में विश्व भारत, फिर ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका को मिलने जा रही जी-20 की अध्यक्षता से उम्मीद लगाए हुए है कि वे इस मोर्चे पर नई पहल की अगुआई करें।

विकसित देशों में एमडीबी सुधार के बारे में सारगर्भित ब्रिटेन-अमेरिका संवाद, जो कि मुख्य रूप से विश्व बैंक एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में ‘जीवन खपा देने वाले’ सेवानिवृत्त अधिकारियों और जी-7 विकास वित्तपोषण नेतृत्वकर्ताओं के बीच हुआ, को सुनकर मैं चकित रह गया कि इस बहस में विकासशील देशों के पहलुओं को लेकर समझ कितनी सीमित है। पहले एक हकीकत की पड़ताल करते हैं। वैश्विक आर्थिक सहयोग को लेकर उत्तरी ‘विकास समुदाय’ के परोपकारी दावे अब विश्वसनीय नहीं रह गए हैं। पिछले कुछ अरसे से यह स्पष्ट हो चला है कि जी-7 तार्किक काम करने में अक्षम होने के साथ-साथ अनिच्छुक भी है। यह जिम्मा वैश्विक जन लाभ के लिए संसाधन उपलब्धता कराना है, जो जलवायु परिवर्तन से ताल मिलाने और गरीबी एवं अभाव को दूर करने के लिए आवश्यक है। जो समाज गतिविधियों की आर्थिक स्वतंत्रता को लेकर हिचकिचाहट दिखाते हैं और इतिहास की विरासत से सामना होने पर अपनी आंखें मूंद लेते हैं तो उनसे बमुश्किल ही ऐसी आर्थिक उदारता की अपेक्षा की जा सकती है, जो उनकी बड़ी-बड़ी बातों से मेल खा सके।

ऐसे में बारबाडोस की प्रधानमंत्री मिया मोटली द्वारा प्रस्तावित ब्रिजटाउन पहल की पेशकश खासी तार्किक लगती है, जिसके अंतर्गत श्रम के विभाजन की बात है। धनी देश जो अनुदान खैरात के रूप में देने के इच्छुक हैं, उसका बेहतरीन उपयोग जलवायु परिवर्तन से पहुंची क्षति और भारी गरीबी को घटाने में किया जा सकता है। जलवायु अनुकूलन के लिए रियायती वित्त का उपयोग किया जा सकता है, जिसका बोझ बुनियादी रूप से विकासशील देशों को ही उठाना पड़ेगा और इसीलिए अमीरों से वित्तपोषण आकर्षित नहीं होगा। उदाहरण के लिए ईलॉन मस्क की इलेक्ट्रिक कारें, स्टोरेज बैटरीज और सोलर पैनल जैसी वस्तुएं जलवायु शमन में योगदान करती हैं, किंतु इनका उत्पादन अमीर देशों में हो रहा है, जिनके लिए गरीब देशों से खनिजों का उत्खनन किया जा रहा है और इस प्रकार लाभ और संचय का ऐसा सिलसिला जोर पकड़ता है, जो कार्बनीकरण को बढ़ाता है।

ऐसे में देखा जाए तो जलवायु शमन आर्थिक रूप से व्यवहार्य है और इसके लिए प्रचुर मात्रा में निजी वित्त का प्रवाह होना चाहिए, क्योंकि यह अमीरों को जलवायु से जुड़े जोखिमों से सुरक्षा कवच प्रदान करता है, जिन झटकों से उनकी धन संचय की क्षमता प्रभावित हो सकती है। यह उनकी आलीशान जीवनशैली के समक्ष भी कोई खतरा उत्पन्न नहीं करता। यह व्यावहारिक और तार्किक पहल अंतरराष्ट्रीय ढांचे में न्यूनतम व्यवधान के साथ प्रगति की बड़ी उम्मीद जगाती है। प्रगति सुनिश्चित करने के लिए हमें अन्य पहलुओं के साथ ही एमडीबी की ऋण प्रदाता क्षमताओं के विस्तार की भी आवश्यकता होगी।

इसका मूल एमडीबी के संचालन ढांचे में होगा। उनकी निर्णय प्रक्रियाएं सुस्त हैं, जिसमें संकट से जुड़ी राशि को जारी करने में ही साल भर लग जाता है। सॉवरिन समर्थन होने के बावजूद विरोधाभासी रूप से वे निजी वित्त की तुलना में जोखिम को लेकर कहीं ज्यादा आग्रही हैं। बहरहाल, इन पहलुओं को दुरुस्त कर और उनके पूंजी आधार में विस्तार के साथ एमडीबी ऋण के दायरे को बढ़ाने पर सहमति के साथ एक सहज सुधार संभव दिखता है। परंतु इस प्रकार के ऋण को प्राप्त करने वाली गरीब और उभरती

अर्थव्यवस्थाओं को इसे संभव बनाने के लिए संवाद में कम से कम तीन मुद्दों को उचित रूप से उठाना होगा।

1-अंशभागिता ढांचा-विश्व बैंक में स्विट्जरलैंड कार्यकारी निदेशक है, जिस पर उज्बेकिस्तान का दायित्व है, जबकि कनाडा के पास जमैका का। बैंक के निदेशक मंडल में छोटे-छोटे यूरोपीय देशों के लिए सीट है, जबकि 23 अफ्रीकी देश उसमें एक ही सीट साझा करते हैं। स्पष्ट है कि ‘विश्व’ की यूरोकेंद्रित परिभाषा विश्व बैंक के गवर्नेंस में अवरोध है, किंतु संस्थान का लाभ उठाने को लेकर इसे संवाद का हिस्सा बनाने से जुड़ा कोई भी प्रयास अव्यावहारिक बताकर खारिज कर दिया जाता है।

2-जोखिम-एमडीबी के निदेशक मंडलों में अमीर देशों का वर्चस्व है। उनका जोखिम आकलन क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों द्वारा काफी हद तक प्रभावित होता है, जिसमें उनके देश जोखिम आकलन में प्रति व्यक्ति आय को सर्वाधिक भारांश दिया जाता है। इस प्रकार जो देश जितना गरीब होगा, उसमें उतना ही अधिक जोखिम होगा। स्थिति इतनी हास्यास्पद है कि भारत जो कि विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी और जी-20 में सबसे तेजी से वृद्धि करने वाली अर्थव्यवस्था है, उसके मामले में भी ब्रिटिश सरकार भारतीय सॉवरिन कर्ज लेने वालों को विश्व बैंक कर्ज को लेकर अपने आंतरिक जोखिम सीमा के लिहाज से ही विचार करती है। यदि भारत के साथ ऐसा हो सकता है तो हैती या नेपाल के लिए क्या स्थिति होगी?

3-सामर्थ्य- जब भारत ने गरीब देशों को ऋण देने के लिए विशेष आहरण अधिकार (स्पेशल ड्रॉइंग राइट्स-एसडीआर) का विरोध किया तो लंदन-वॉशिंगटन पॉलिसी इकोसिस्टम ने इसे अनुचित रूप से प्रस्तुत करते हुए अर्थ निकाला कि यह दांव इसलिए चला गया ताकि पाकिस्तान को ऐसे कदम से लाभ न मिल सके। जबकि भारत का आग्रह बिल्कुल उचित था कि गरीब देशों को टीके खरीदने और उस आर्थिक संकट से उबरने में, अनुदान के बजाय कर्ज क्यों दिया जा रहा है, जबकि इस संकट के पीछे ये देश जिम्मेदार भी नहीं और जब वे कर्ज के दुष्चक्र में फंस जाएंगे तो उसके समाधान के लिए क्या उपाय किया जाएगा। खेदजनक ढंग से यही प्रतीत होता है कि अमीर देश और लंदन-वॉशिंगटन पॉलिसी इकोसिस्टम में सक्रिय सदाशयी वार्ताकार उभरती अर्थव्यवस्थाओं की अध्यक्षताओं में प्रगति के लिहाज से महत्त्वपूर्ण इन प्रश्नों को या तो लेने के अनिच्छुक हैं या फिर उन्हें रूपांकित करने में अक्षम। अनुदान का मुद्दा तो एजेंडे में ही नहीं। व्यापक जोखिम क्षमता की कहीं बात ही नहीं। एक पुरातन औपनिवेशिक संचालन प्रणाली में सुधार पर कोई चर्चा नहीं।

पूंजीगत आधार के विस्तार में ‘या तो यह लीजिए अथवा चलते बनिए’ वाला रवैया उभरती अर्थव्यवस्थाओं के साथ व्यवहार का अनुकूल तरीका नहीं। इसके बजाय ब्रिजटाउन पहल कहीं बेहतर है, जिसमें यह झलकता भी है कि वे अमीर देशों की स्व-आरोपित सीमाओं को स्वीकार करने के लिए भी तैयार हैं। हालांकि बहुपक्षीय सुधारों को लेकर उभरती एवं विकासशील देशों के मूल प्रश्नों के मसले पर कोई समझौता नहीं होगा। पश्चिम को यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि उभरती अर्थव्यवस्थाओं के हाथ में अनुवर्ती अध्यक्षता को यूं ही हल्के में नहीं लिया जा सकता।

(लेखक ओडीआई लंदन में प्रबंध निदेशक हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)

First Published : December 23, 2022 | 9:27 PM IST