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पिछले दरवाजे से प्रवेश नहीं

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 12, 2022 | 3:55 AM IST

दीवान हाउसिंग फाइनैंस कॉर्प लिमिटेड (डीएचएफएल) को लेकर छिड़ा विवाद, इस बात का एक और उदाहरण है कि कैसे कंपनियों के प्रवर्तक अंतिम समय में निस्तारण प्रक्रिया बाधित करने के लिए अवरोध उत्पन्न करते हैं। राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट (एनसीएलटी) के मुंबई पीठ ने पीरामल समूह द्वारा प्रस्तुत निस्तारण योजना को मंजूर करके अच्छा किया। लेकिन इस प्रक्रिया में और समय लगेगा क्योंकि कपिल वधावन ने सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया है और वहां अभी मामले की सुनवाई होनी है। फंड की हेराफेरी और धनशोधन के आरोप में जेल में बंद वधावन ने करीब 91,000 करोड़ रुपये का कुल बकाया मूलधन चुकाने की पेशकश की है। एक चौंकाने वाले कदम में एनसीएलटी ने पहले तो कर्जदाता समिति को निर्देश दिया था कि वह वधावन की पेशकश पर विचार करे जबकि उस वक्त तक कर्जदाता पीरामल समूह की पेशकश मंजूर कर चुके थे। भारतीय रिजर्व बैंक भी इसे अपनी मंजूरी दे चुका था। उम्मीद के अनुरूप ही कर्जदाताओं ने अपील पंचाट का रुख किया जिसने एनसीएलटी के आदेश को स्थगित कर दिया। अपील पंचाट ने एकदम सही इशारा किया कि निस्तारण योजना लगभग अंतिम चरण में है और वह निर्णायक प्राधिकार के समक्ष है। आगे उसने यह भी कहा कि यदि ऐसे निर्णय पलटने की इजाजत दी गई तो ऐसे मामलों का अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाएगा। इसके बावजूद वधावन अपील पंचाट के आदेश के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय चले गए। उनकी दलील है कि उनकी पेशकश कर्जदाता समिति द्वारा मंजूर पेशकश से बेहतर है। प्रथम दृष्ट्या वधावन का कहना सही है क्योंकि उनकी पेशकश पीरामल समूह की 37,250 करोड़ रुपये की तुलना में 50,000 करोड़ रुपये ज्यादा है।
परंतु इसमें कई दिक्कतें हैं। पहली, यदि प्रवर्तक के पास फर्म को फंड करने के लिए संसाधन हैं तो इसे ऐसी स्थिति में क्यों पहुंचने दिया गया जहां नियामक को निस्तारण प्रक्रिया शुरू करनी पड़ी? दूसरी बात, प्रवर्तक स्वयं फंड इधर-उधर करने तथा अन्य वित्तीय कदाचार के आरोपों का सामना कर रहा है। वधावन ने कई ऐसी परिसंपत्तियों को विक्रय करने की सूची में डाला है जो पहले ही प्रवर्तन निदेशालय द्वारा जब्ती या कुर्की की प्रक्रिया में हैं। ऐसे में उनकी पेशकश को लेकर तमाम गंभीर संदेह उत्पन्न होते हैं। तीसरी बात, इस मामले में निस्तारण प्रक्रिया की शुरुआत नियामक ने की थी। ऐसे में इस बात की कोई वजह नहीं कि आरबीआई को वधावन की पेशकश स्वीकार करनी चाहिए। ऐसा कदम नियामकों और ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) की विश्वसनीयता को प्रभावित करेगा। डीएचएफएल को पुराने प्रवर्तक को सौंपना यही दर्शाएगा कि प्रवर्तकों के लिए यह संभव है कि वे अपनी मनमानी करें और फिर दोबारा कंपनी पर नियंत्रण हासिल कर लें। यह पहला मौका नहीं है जब कोई प्रवर्तक कंपनी पर दोबारा नियंत्रण हासिल करने का प्रयास कर रहा है। उदाहरण के लिए भूषण स्टील और एस्सार स्टील के मामलों में भी ऐसे ही प्रयास किए गए। ऐसे सभी प्रयासों को रोक दिया गया। दरअसल कोशिश यही होती है कि प्रक्रिया में देरी की जाए और भविष्य में कम कीमत पर कंपनी का नियंत्रण हासिल कर लिया जाए। इसकी इजाजत नहीं होनी चाहिए। अतीत में सर्वोच्च न्यायलय भी कह चुका है कि कर्जदाता समिति के वाणिज्यिक निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए। ऐसे में शायद वक्तआ गया है कि आईबीसी की प्रक्रिया को और मजबूत किया जाए और ऐसे सिद्धांत शामिल किए जाएं जिनकी मदद से तनावग्रस्त परिसंपत्ति का शीघ्र निस्तारण हो और पुराने प्रवर्तकों को ऊपरी अदालतों में जाने का प्रोत्साहन न मिले। यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि संकटग्रस्त परिसंपत्ति का निस्तारण समय पर हो और उनका उचित इस्तेमाल हो। अनावश्यक देरी से आईबीसी के मूल उद्देश्य को क्षति पहुंचेगी।

First Published : June 8, 2021 | 8:49 PM IST