लेख

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक के 50 साल: भारत में बदलाव और सुधार की कहानी

विलय के बाद सभी क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की निगरानी, पूंजी सहयोग और तकनीकी व्यवस्था के लिए एक राष्ट्रीय होल्डिंग संस्था बनाने पर विचार किया जा सकता है

Published by
तमाल बंद्योपाध्याय   
Last Updated- December 18, 2025 | 11:43 PM IST

हाल के दिनों में कुछ विशेष वित्तीय संस्थानों ने बड़े शांतिपूर्ण तरीके से अपनी 50वीं वर्षगांठ मनाई। इन बैंकों में भारत का पहला क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक (आरआरबी) प्रथमा ग्रामीण बैंक भी था जिसकी स्थापना उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में 2 अक्टूबर, 1975 में हुई थी। इसका प्रायोजक बैंक, सिंडिकेट बैंक (अप्रैल 2020 में जिसका विलय केनरा बैंक में हो गया था) था और इसका लक्ष्य छोटे किसानों, ग्रामीण क्षेत्र के कलाकारों और कृषि श्रमिकों तथा वाणिज्यिक बैंकों द्वारा उपेक्षित छोटे कारोबारों को कर्ज देकर सभी लोगों तक वित्तीय सेवाओं की पहुंच को बढ़ावा देना और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास करना था।

गगनचुंबी इमारतों और वित्तीय प्रौद्योगिकी (फिनटेक) केंद्रों से दूर, यह उन क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों में से एक है जो आधी सदी से भारत के सुदूर इलाकों में लाखों लोगों के जीवन को बदल रहे हैं। सरकार की ऋण और बैंकिंग तक पहुंच को लोकतांत्रिक बनाने की दूरदृष्टि के कारण आरआरबी भारत की समावेशी वृद्धि की दास्तान में एक गुमनाम नायक की भूमिका में रहा है। पिछले पांच दशकों में उनका विकास ग्रामीण भारत के बदलते हुए स्वरूप को दर्शाता है जो कृषि से जुड़े संघर्षों से लेकर डिजिटल आकांक्षाओं तक है। 

लेकिन, आजकल देश में डिजिटल अर्थव्यवस्था पर जोर है और सार्वजनिक व निजी क्षेत्र के वाणिज्यिक बैंकों की पहुंच देश के ग्रामीण क्षेत्रों में हो रही है ऐसे में ये सवाल उठ रहा है कि क्या ये क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक अब भी जरूरी हैं?

इन क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की शुरुआत 26 सितंबर 1975 में हुई थी, जब सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर एक नई श्रेणी के बैंकों को स्थापित किया था ताकि गांव के लोगों को भी बैंकिंग की सुविधा मिल सके। प्रथमा ग्रामीण बैंक तो उस कानून के बनने से पहले ही खुल गया था।अध्यादेश ने इसका मार्ग प्रशस्त किया।

पहले पांच क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक अक्टूबर 1975 में महात्मा गांधी के आत्मनिर्भर गांवों के सपने को साकार करने के लिए स्थापित किए गए थे। यह एक मिश्रित बैंकिंग मॉडल की शुरुआत थी, जिसने वाणिज्यिक बैंकों की वित्तीय मजबूती को सहकारी संस्थाओं की सामुदायिक जड़ों के साथ मिला दिया। यह कदम ग्रामीण क्षेत्रों के ऋण पर नरसिंहम समिति (1975) की सिफारिशों के बाद उठाया गया था, जिसने ग्रामीण भारत में कम लागत और पहुंच योग्य बैंकिंग व्यवस्था की आवश्यकता पर जोर दिया था।

हालांकि, 1969 में बैंकों का पहला राष्ट्रीयकरण हुआ और इसके बाद ग्रामीण शाखा विस्तार का एक विशाल अभियान चला। इन बैंकों का लक्ष्य था गांवों और छोटे शहरों में कम खर्च में बैंकिंग सेवाएं दी जाएं, खासकर उन जिलों पर जहां बड़े राष्ट्रीयकृत बैंक नहीं थे।

इस आरआरबी मॉडल को तीन स्तरीय स्वामित्व संरचना के आधार पर बनाया गया जिसमें केंद्र सरकार की 50 फीसदी, राज्य सरकार की 15 फीसदी और प्रायोजक बैंक की हिस्सेदारी 35  फीसदी होती थी। वर्ष 1975 में सिर्फ 5 आरआरबी थे लेकिन 2005 तक इनकी संख्या 196 हो गई। हर बैंक अपने इलाके की जरूरतें पूरी करता था। लेकिन, जैसे-जैसे इनकी संख्या बढ़ी, इनमें प्रशासनिक और वित्तीय अक्षमता के कारण कुछ परेशानियां भी आने लगीं। इन बैंकों के काम का परिचालन दायरा छोटा था।

इसलिए, सरकार ने इन बैंकों का विलय करने का फैसला किया। पहले चरण में, वर्ष 2006 से 2010 के बीच इनकी संख्या 82 हो गई। आज, 26 राज्यों और 2 केंद्र शासित प्रदेशों में महज 28 आरआरबी काम कर रहे हैं। करीब 700 जिले में इनके पास 22,000 शाखाएं हैं, जिनमें से ज्यादातर गांव और छोटे शहरों में हैं। इन बैंकों में लगभग 31 करोड़ लोगों के खाते हैं और इनसे 3 करोड़ लोगों ने कर्ज लिया है। 

मेरे पास अभी ताजा आंकड़े नहीं हैं, लेकिन 2024 में इन बैंकों ने 7,571 करोड़ रुपये का मुनाफा कमाया था, जो अब तक का सबसे ज्यादा मुनाफा है। इन बैंकों के पास पर्याप्त पूंजी है और इनमें सकल एनपीए (फंसे कर्ज) 6.15 फीसदी और शुद्ध एनपीए 2.4 फीसदी है।

इन बैंकों का लगभग 90 फीसदी कारोबार गांवों और छोटे शहरों में होता है। ये बैंक ज्यादातर किसानों और छोटे कारोबारियों को कर्ज देते हैं। ज्यादातर आरआरबी को सरकार या बड़ी कंपनियों से जमाएं नहीं मिलती हैं ऐसे में ये गांव के लोगों की बचत पर निर्भर रहते हैं। आंकड़ों के मुताबिक 60 फीसदी से अधिक क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक 80 फीसदी से ऊपर का ऋण-जमा अनुपात बनाए रखते हैं, जो यह दर्शाता है कि स्थानीय जमाओं को किस प्रकार स्थानीय विकास में लगाया जाता है।

आरआरबी कई प्रमुख सरकारी योजनाओं, जैसे प्रधानमंत्री जन धन योजना, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना और मुद्रा ऋण के क्रियान्वयन में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन्होंने कम से कम 15.7 लाख स्वयं सहायता समूहों को सफलतापूर्वक जोड़ा है और 1.65 लाख संयुक्त देयता समूहों की फंडिंग की है जिससे उद्यमिता और महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा मिला है। आरआरबी दूसरे बैंकों और गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के मुकाबले कम ब्याज दर पर कर्ज देते हैं। पहले इन बैंकों में सब कुछ हाथ से किया जाता था, लेकिन अब ये तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं। आजकल सभी बैंकों में कंप्यूटर है और ये ऑनलाइन पैसे भेजने और रूपे कार्ड जैसी सुविधाएं भी देते हैं।

वर्ष 2009 में, केसी चक्रवर्ती कमिटी ने 82 आरआरबी में से 40 को दोबारा पूंजी देने की सिफारिश की थी ताकि इनका पूंजी पर्याप्तता अनुपात बेहतर हो। ऐसे में सरकार ने करीब 40 आरआरबी को 2,200 करोड़ रुपये दिए थे, साथ ही 100 करोड़ रुपये का प्रशिक्षण कोष और 700 करोड़ रुपये का एक आपातकालीन कोष भी तैयार किया था। यह प्रक्रिया चलती रही। मार्च 2020 में, सरकार ने इन बैंकों को और पैसे देने का फैसला किया। सरकार ने 670 करोड़ रुपये दिए, ताकि ये बैंक और भी बेहतर तरीके से काम कर सकें। 

अब जब  क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक अपनी 50वीं वर्षगांठ मना रहे हैं तब इन्हें नए तरीके अपनाने की जरूरत है। एक सुझाव है कि एक बड़ी कंपनी बनाई जाए, जो इन सभी बैंकों को संभाले और उन्हें तकनीक के मामले में मदद करे। ये बैंक डेटा का इस्तेमाल करने और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस से ऋण देने की स्कोरिंग जैसे नए तरीके अपना सकते हैं, ताकि ये आज की दुनिया में प्रासंगिक बने रहें। ये वित्तीय प्रौद्योगिकी कंपनियों के साथ मिलकर भी काम कर सकते हैं, ताकि अधिक लोगों को कर्ज मिल सके।

लेकिन, आधुनिकीकरण के साथ-साथ इन बैंकों को अपनी पुरानी पहचान भी बनाए रखनी चाहिए। गांव के लोगों के लिए ये बैंक सिर्फ कर्ज देने वाले नहीं हैं, बल्कि उनकी जिंदगी का सहारा हैं। इन क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का 1975 से 2025 तक का सफर ग्रामीण भारत में सुधार और बदलाव की एक दास्तान को बयां करता है।

(लेखक जन स्मॉल फाइनैंस बैंक में वरिष्ठ सलाहकार हैं) 

First Published : December 18, 2025 | 10:04 PM IST