अस्सी वर्ष पहले दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका ने बहुपक्षीय संस्थानों की स्थापना में अग्रणी भूमिका निभाई और दूसरे देशों के साथ शक्तियां साझा कीं। आज वही अमेरिका बहुपक्षीयता से दूरी बना रहा है। अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति अन्य देशों के साथ राजनीतिक और आर्थिक रिश्तों में अपने अति राष्ट्रवादी हितों पर जोर दे रहे हैं। वे नैतिकता को ताक पर रखकर लेनदेन की कूटनीति के साथ इसे आगे बढ़ा रहे हैं।
1990 के दशक में जब बहुपक्षीयता के सितारे बुलंद थे, उस समय रूस और पूर्वी गुट के देशों में राजनीतिक परिवर्तन आने तथा पश्चिमी देशों में उदारवाद के कारण वैश्विक सहयोग मजबूत होने की प्रबल संभावनाएं दिख रही थीं। अब सब बदल गया है। रूस फिर आक्रामक हो गया है, चीन ताकतवर हो गया है और उदारवाद अमेरिका में खत्म तथा कई यूरोपीय देशों में कमजोर हो रहा है। आशावाद के उस दौर में मैंने संयुक्त राष्ट्र में काम किया था, इसलिए मैं 80 साल पहले शुरू की गई और अब खत्म हो रही बहुपक्षीयता के लिए एक शोकगीत पेश कर रहा हूं।
मगर सबसे पहले समझ लें कि दुनिया कोई राजनीतिक इकाई नहीं है और संयुक्त राष्ट्र तथा उससे जुड़ी बहुपक्षीय संस्थाओं को अब भी प्रशासन संस्थाओं के भौगोलिक पदानुक्रम का हिस्सा नहीं माना जा सकता। हमारे पास न तो विश्व राज्य है, न विश्व समाज है और न ही वास्तव में एकीकृत विश्व अर्थव्यवस्था है। जो है वह विभिन्न देशों के कुछ राजनेताओं, अफसरशाहों, शिक्षाविदों और कारोबारी नेताओं का समूह है, जिनके भीतर कुछ मूल्य हैं और जो वैश्वीकरण के खतरों एवं मजबूरियों से निपटने के लिए मिलकर काम करना चाहते हैं।
अस्सी सालों से मौजूद बहुपक्षीय व्यवस्था में एकरूपता नहीं है। व्यापार, निवेश, वित्तीय प्रवाह अथवा वृहद नीति समन्वय पर खासा प्रभाव रखने वाली ज्यादातर बहुपक्षीय संस्थाएं संयुक्त राष्ट्र के सीधे अधिकार से बाहर काम करती हैं। सुरक्षा परिषद की बात छोड़ दें तो संयुक्त राष्ट्र में सभी देश बराबर हैं। संधि संस्थाएं हस्ताक्षर करने वाले सभी देशों को बराबर भूमिका ही देती हैं। ऐसी ही संस्था विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) पर अब खतरा मंडरा रहा है क्योंकि इसकी विवाद निपटारा प्रणाली बेअसर हो रही है और कुछ अपवादों को छोड़कर सभी व्यापार साझेदारों के साथ बराबरी का बरताव अनिवार्य करने वाले सर्वाधिक तरजीही देश के नियम का उल्लंघन हो रहा है। संधि संस्थाएं आमतौर पर सभी अधोहस्ताक्षरकर्ताओं को समान भूमिका सौंपते हैं।
कुछ मामलों में डब्ल्यूटीओ भी अपवाद है। अधिकतर बहुपक्षीय संस्थानों के पास साझेदार देशों के लिए पैमाने तय करने का औपचारिक अधिकार नहीं है। उनका प्रभाव देशों के बीच संवाद से उपजता है। यह बात अलग है कि उस संवाद में अक्सर विकसित देशों का और विश्व बैंक तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संस्थानों के विशेषज्ञों का दबदबा होता है।
अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था भी अजीब सा समझौता थी, जिसमें रसूखदार ताकतें नियम बनाती थीं और बाकी राष्ट्र उन्हें मानते थे। बड़े और शक्तिशाली देश संयुक्त राष्ट्र की परवाह नहीं करते। यह बात बड़ी ताकतों के बीच समझौता कराने और सुरक्षा कदमों में कमजोरी की शक्ल में सामने आ भी जाती है। संयुक्त राष्ट्र का सबसे अहम योगदान यह है कि वह छोटे और कमजोर देशों को वैश्विक रिश्ते प्रभावित करने की गुंजाइश देता है। किंतु 1990 के दशक में सहकारी बहुपक्षीयता की अच्छी संभावना दिख रही थी। संयुक्त राष्ट्र ने कई वैश्विक सम्मेलन आयोजित किए और कई तो शासनाध्यक्ष स्तर के थे। नतीजा यह हुआ कि साझा मूल्यों, नियमों और राज्य के व्यवहार से जुड़े मानकों को संहिताबद्ध कर दिया गया। साथ ही बेहतर नीति पर आम समझ भी बनी।
संयुक्त राष्ट्र की इस क्षमता का 90 के दशक के वैश्विक सम्मेलनों में अच्छा इस्तेमाल किया गया क्योंकि वैचारिक विभाजन में कमी और रूस तथा पूर्वी यूरोप एवं मध्य एशिया में साम्यवाद के पतन ने भी इसमें भूमिका निभाई। विकासशील देशों का आर्थिक रुख भी पूंजीवाद की ओर हो गया। चीन की आर्थिक नीति में तेंग श्याओफिंग के शासन के दौरान आए परिवर्तन तथा भारत में 1991 में हुए सुधारों में यह बात साफ नजर आई।
इक्कीसवीं सदी शुरू होते ही बदलाव आने लगा और खुद को अब भी सबसे बड़ी ताकत मानने वाले अमेरिका की आक्रामकता ने हालात बदतर बना दिए हैं। के कारण स्थिति और बिगड़ गई है। वैचारिक बाधा नहीं हुई तो वह चीन और रूस के साथ मिलकर आधिपत्य स्थापित कर सकता है क्योंकि ये देश भी राष्ट्रों के समूह में यकीन नहीं करते।
संयुक्त राष्ट्र मूल्यों, मानकों और नीतिगत ढांचों पर सहमति बनाने का काम करता है और दूसरी कोई भी अंतरराष्ट्रीय संस्था व्यापक स्वीकार्यता के साथ ऐसा नहीं कर सकती। वजह यह है कि संयुक्त राष्ट्र सार्वभौम है, उसे सबने मिलकर अधिकार दिए हैं और उसके काम करने के तरीके में नागरिक समाज के लिए गुंजाइश बनती है। मगर वास्तव में बड़ी प्रगति किसी मुद्दे पर बने देशों के ऐसे समूह के प्रयासों का नतीजा है, जो विश्व हित के लिए काम करने को तैयार हैं। संयुक्त राष्ट्र के पास मौजूद राजनीतिक प्रक्रिया ऐसे गठबंधन बनने देती है और सार्थक प्रगति के लिए ज्यादा संगठित हित समूहों को काम करने देती है।
अमेरिकी राजनीति के रुझान को देखें तो वह दबदबा बनाने की कोशिश करता रहेगा। इसलिए जरूरी है कि संयुक्त राष्ट्र इस राजनीतिक बदलाव से प्रभावित देशों की मजबूत आवाज बना रहे क्योंकि बंटी हुई दुनिया में उसकी अहम भूमिका है। उसके महासचिव किसी समुदाय के नेता की तरह काम कर सकते हैं, जिनका प्रभाव विश्व समुदाय के साझा मूल्यों को बरकरार रखने की क्षमता के कारण होता है। अमेरिका जैसी महाशक्तियों के दुनिया भर की आका बनने के प्रयासों की तपिश जिन देशों ने झेली है, उन्हें दूसरे देशों के साथ जुड़े रहने और साम्राज्यवादी खतरों का सही जवाब देने के लिए संयुक्त राष्ट्र का इस्तेमाल करना चाहिए। उम्मीद है कि यूरोपीय देश ऐसे उभरते गठजोड़ का समर्थन करेंगे।
संयुक्त राष्ट्र और उससे जुड़ी संस्थाएं पूरी तरह राज्य की शक्ति पर निर्भर हैं। साम्राज्यवाद के मौजूदा प्रयासों का सही जवाब देने के लिए शायद वे नाकाफी हैं। पारस्परिक निर्भरता नाटकीय रूप से बढ़ी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा बहुराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठनों का नेटवर्क अंतरराष्ट्रीय संबंधों में अहम होते जा रहे हैं। जन संचार की बढ़ती पहुंच राजनीति को बदल रही है। इंटरनेट लोगों तथा उद्यमों को अभूतपूर्व तरीके से जोड़ रहा है। साम्राज्यवाद का जवाब अब इस गैर सरकारी नेटवर्क पर भी निर्भर करेगा।
बहुपक्षीयता के भविष्य का यह नजरिया पूरी तरह निराशावादी नहीं है। यह दबावों से जूझ रहे देशों के मिल-जुलकर दिए जवाब की उम्मीद पर टिका है। यह कारोबार, शिक्षाविदों और गैर सरकारी संगठनों के बीच अंतरराष्ट्रीय भावना बढ़ने पर भी टिका है। मेरे शोकगीत को शायद डॉनल्ड ट्रंप के मागा का जवाब देने के लिए बहुपक्षीयता के फिर खड़े होने की संभावना कहना ज्यादा सही होगा। मागा को भी ‘मेकिंग अमेरिका अ ग्रेट अग्रेसर’ कहना शायद ज्यादा सही होगा।