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वृहद आर्थिक परिस्थितियों की नहीं होनी चाहिए अनदेखी

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 14, 2022 | 10:09 PM IST

सन 2020 कतई 2008 जैसा नहीं है। वैश्विक अर्थव्यवस्था जिस संकट से गुजर रही है वह वित्तीय संकट नहीं बल्कि जन स्वास्थ्य संकट है जो अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रहा है। दोनों वर्षों में इकलौती समानता यह है कि अर्थव्यवस्था की हालत एकदम खस्ता है। सन 2008 में ऐसा वित्तीय तंत्र ध्वस्त होने के कारण हुआ था और 2020 में मांग में अस्थायी कमी के कारण।
परंतु 2021 का घटनाक्रम 2009 से एकदम अलग होगा क्योंकि वजह एकदम अलग हैं। कुछ मायनों में 2008 में वास्तविक अर्थव्यवस्था मजबूत थी, केवल वित्तीय क्षेत्र में दिक्कत थी जिसके चलते पूंजी का गलत आवंटन हुआ और दुनिया भर में असंतुलन फैला। सन 2020 में वास्तविक अर्थव्यवस्था दबाव में है। ऐसे में मौद्रिक उपायों की मदद से समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता है। हमने 2008 के बाद सीखा कि बेशुमार मौद्रिक तरलता दिक्कतें पैदा कर सकती है। इससे परिसंपत्ति कीमतों में मुद्रास्फीति आती है, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रवाह प्रभावित होता है और असमानता बढ़ती है।
भारत के लिए प्रासंगिक एक अंतर यह भी है कि सरकारों की वृहद आर्थिक स्थिति, खासकर उभरते बाजारों वाले देशों की स्थिति प्रभावित हुई है। विकसित देश कम से कम फिलहाल वृहद आर्थिक हकीकत की अनदेखी करने की स्थिति में हैं। वे घाटा बढऩे दे सकते हैं और कर्ज का वित्तीय स्थिरता और मुद्रास्फीति पर असर पडऩे से बच सकते हैं। कम से कम अल्पावधि से मध्यम अवधि में वे ऐसा कर सकते हैं। परंतु उभरते बाजारों को यह सुविधा नहीं है। जीडीपी की तुलना में अधिक सार्वजनिक ऋण उनके लिए समस्या बन सकता है। भारत जैसे देश के लिए तब और अब में अंतर तीन मामलों में है। पहला राजकोषीय स्थिति, दूसरा मुद्रास्फीति और तीसरा चीन।
राजकोषीय स्थिति की बात करें तो 2008-09 को घाटे और कर्ज के लिए याद किया जाता है। राजकोषीय घाटा दोगुना से अधिक बढ़कर जीडीपी के 3.1 फीसदी से 6.5 फीसदी हो गया। इसमें संकटकालीन खर्च के अलावा चुनाव पूर्व घोषणाएं और वेतन आयोग शामिल था। टीकाकारों ने उस समय भी इस पर काफी बातें कही थीं। केयर रेटिंग द्वारा इस बार घाटा और बढ़कर जीडीपी के 9 फीसदी के बराबर रहने की बात कही गई है। जब इस दौर का इतिहास लिखा जाएगा तो कई लोग सवाल करेंगे कि वर्ष 2019-20 में घाटा जीडीपी के 4.6 फीसदी के बराबर क्यों था? यह फरवरी में बजट में तय 3.8 फीसदी के लक्ष्य से भी खराब रहा। यह ऐसी राजकोषीय स्थिति है जिसने सरकार को राहत और प्रोत्साहन व्यय के मामले में भी सतर्क कर दिया है।
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) के 2007-08 के कार्यकाल की तुलना में राजकोषीय हालात खराब हो सकते हैं लेकिन मुद्रास्फीति के मोर्चे पर हालात बेहतर हैं। मई-जून 2008 में संकट के तुरंत पहले उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति 7 से 9 फीसदी के बीच थी। जुलाई 2008 में थोक मूल्य महंगाई 12 फीसदी थी। इसके लिए रिजर्व बैंक ने वैश्विक जिंस कीमतों, कमजोर कृषि उपज और मजबूत मांग को वजह बताया था। आज उपभोक्ता मूल्य महंगाई 7 फीसदी के आसपास है लेकिन रिजर्व बैंक को यह अस्थायी लग रही है। काफी संभावना है कि मुद्रास्फीति के अनुमान 2008 की तुलना में स्थायी रूप से कम हो चुके हैं।
उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों में 2008 की तुलना में कमतर मुद्रास्फीति ने विकसित देशों के केंद्रीय बैंकों को यह अवसर प्रदान किया कि वे अधिक आक्रामक प्रति चक्रीय मौद्रिक नीति अपनाएं। इसमें ऐसे अपारंपरिक उपाय अपनाना शामिल है जो केवल समृद्ध देशों के केंद्रीय बैंकों द्वारा अपनाए जाते हैं। भारत में रिजर्व बैंक खामोशी से सरकारी प्रतिभूतियों के बाजार और उच्च श्रेणी के कॉर्पोरेट ऋण का आंशिक समर्थन कर सकता है। उसे यह भरोसा मुद्रास्फीति के प्रबंधन की क्षमता से मिला है।
मौजूदा दौर और 2008 में एक अंतर चीन का भी है। उसने वित्तीय संकट के बाद वाले वर्षों की तरह इस बार ऐसा कोई बड़ा प्रोत्साहन नहीं दिया है जो वैश्विक अर्थव्यवस्था की मदद करे। भारत के नजरिये से यह मिलाजुला आशीर्वाद है। वैश्विक मांग कमजोर है लेकिन अहम बात यह है कि जिंस कीमतों का भी कोई चक्र नहीं है। 2008 के बाद चीन ने मांग बढ़ाने के लिए जो उपाय किए थे उनसे ऐसा चक्र उत्पन्न हुआ था। यह इस तथ्य के बावजूद है कि चीन महामारी के आर्थिक झटकों से अपेक्षाकृत सुरक्षित है। सन 2008 के उलट भारत इस बार सर्वाधिक प्रभावित देशों में से एक है। कई विश्लेषण बताते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था में जो गिरावट आई है वह वैश्विक वृद्धि में एक फीसदी तक की कमी करने में सक्षम है। जबकि 2008 के वित्तीय संकट के बाद वाले वर्ष में इसने वैश्विक वृद्धि में 0.5 फीसदी का योगदान किया था। 2020 में एक अंतर यह भी हो सकता है कि वैश्विक पूंजी उभरते देशों के बजाय चीन का रुख करे। 2008 के संकट के बाद उभरते बाजारों में पूंजी की आवक 5 फीसदी बढ़ी थी।
जब संकट आता है तो यह विचार करने का वक्त होता है कि क्या ठीक से किया गया और आपातकाल में कौन सा काम अलग तरह से किया जाना चाहिए था? इस मामले में भारत ने भले ही निवेश का बेहतर केंद्र होने का दावा किया हो लेकिन यह स्पष्ट है कि वह गहराई, स्थिरता और प्रतिफल के मामले में चीन के आसपास भी नहीं है।
मुद्रास्फीति और घाटे के मामले में सबक और स्पष्ट है। मुद्रास्फीति को लक्षित करने की दिशा में कष्टकारी बदलाव ने देश को बुरे समय के लिए कुछ मौद्रिक गुंजाइश प्रदान की। इस बीच सरकार अच्छे वर्षों में अर्थव्यवस्था के राजकोषीय पक्ष का सही ढंग से प्रबंधन नहीं कर पाई जिसका खमियाजा अब उठाना पड़ रहा है। पिछले संकट के समय सरकार की राजकोषीय स्थिति उतनी बुरी नहीं थी जितनी मौजूदा संकट के समय वर्तमान सरकार की है। राजकोषीय मोर्चे पर मेहनत की कमी, बेहतर वर्षों में कड़े निर्णय लेने की अनिच्छा बुरे वर्षों में भारी पड़ती है।

First Published : October 27, 2020 | 11:28 PM IST